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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से
मथुरा कलौनी की कहानी— 'एक दो तीन'


प्रसाद था गणितज्ञ।
गणित कितना रोचक विषय है, यह गणित जानने वाला ही बता सकता है। पता नहीं क्यों, लोगों ने इसे एक हौआ समझ रखा है। यह गणित ही है, जो हमें बताता है कि एक और एक मिल कर दो होते हैं। दो में से दो घटाओ तो शून्य बचता है। ऐसा रस और किसी विषय में है कहीं? गणित न हो तो लोग यह भी न जानें कि आँखें चार भी हो सकती हैं। सब विज्ञानों का आधार गणित है। पर यह
सब होते हुए भी पता नहीं लोग एक गणितज्ञ के विषय में क्यों गलत धारणा पालते हैं।

प्रसाद यही सोच–सोच कर दुःखी हो रहा था। बिना किसी मतलब के, बिना किसी ठोस प्रमाण के, यार–दोस्तों ने उसे नीरस गणितज्ञ कह कर बदनाम कर रखा था। शायद इसी बदनामी के कारण वह अभी तक अकेला था। उमर बीतती जा रही थी, पर अभी तक उसका किसी लड़की के साथ कोई समीकरण नहीं बना था। एक सरला थी, तो उसने उसे ठुकरा कर प्रेमाशीष से शादी कर ली थी। गणित की दृष्टि से देखा जाय, तो सरला का निर्णय एकदम गलत था। क्योंकि एक और एक मिल कर दो होते हैं, पर यहाँ एक और एक मिल कर भी वह अकेला ही बचा था।

भुक्तभोगी होने के नाते प्रसाद इतना तो समझ ही गया था, कि दिल के मामलों को गणित नहीं सुलझा सकता है। यहाँ गणित का कोई मॉडल फिट ही नहीं बैठता है। समीकरण तो बनता ही नहीं है। एक और एक मिल कर कभी तीन भी बन जाते हैं। विभाजन के समय अक्सर विभाजक शून्य बन जाता है। एक
गणितज्ञ के लिए इससे अधिक दुःखदाई बात हो ही नहीं सकती।

शहर की एक संस्था ने उसे कंप्यूटर के बारे में बोलने के लिए आमंत्रित किया था। मंच से बोलते समय हाल में बैठी एक कन्या ने उसका ध्यान आकर्षित किया। कन्या पाँचवीं या छठी पंक्ति में बैठी थी। एकदम उज्वल चेहरा, कंधों तक गोलाई में कटे बाल, आसमानी रंग का कुर्ता तथा गहरे रंग की चुनरी। उसे रोमांच हो गया। उसके दिल में कुछ–कुछ होने लगा। अपना बाकी लेक्चर उसने किसी तरह अटकते–अटकते ही पूरा किया।

उसका लेक्चर पूरा होते ही लोगों में हॉल से बाहर निकलने के लिए भगदड़ मच गई। यह सीन उसका जाना–पहचाना था। प्रायः सभी जगह ऐसा ही होता है। उसका लेक्चर पूरा होते ही लोग ऐसे भागते हैं जैसे किसी कैद से छूटे हों। जब क्लब के महासचिव उसे धन्यवाद दे रहे थे, तो उसने उस कन्या को भी बाहर निकलते देखा। जल्दी–जल्दी धन्यवाद नमस्कार कर वह भी बाहर निकल आया। बाहर लड़की ने उसे देखा तो वह उसकी ओर बढ़ आई।

"
आपने कंप्यूटर के संबंध में बहुत अच्छी तरह से बताया।" उसने कहा।
कोई हिचक नहीं, कोई झिझक नहीं। साधारण तौर पर बहुत सहज भाव से उसने कहा था। प्रसाद ने उसकी आँखों में देखा। सफ़ेद रंग के बीच में हलका भूरा रंग। हलके भूरे रंग के बीच में गहन काली पुतलियाँ। स्वच्छ और अथाह। प्रसाद गिरते–गिरते बचा। उसने कहा, "चलो, मेरा प्रयत्न व्यर्थ तो नहीं गया।"
"व्यर्थ क्यों जाता?" उस लड़की ने पूछा।
"गणित और कंप्यूटर ऐसे विषय हैं जिन्हें लोग...जिन्हें लोग...क्या कहते हैं..."
"बोर...नीरस?" लड़की ने प्रांप्ट किया।
"हाँ बोर और नीरस। मैंने देखा है कि मेरे लेक्चर के बाद लोग मुझसे ऐसे दूर भागते हैं जैसे मुझे कोई बीमारी हो।" प्रसाद ने कहा।
"यह तो समझ–समझ का फेर है। आप जैसा समझाने वाला मिले, तो विषय नीरस नहीं रह जाता है।" लड़की ने कहा।
"और आप जैसी समझने वाली हों तो समझाने में भी आनंद आता है।" प्रसाद ने कहा।
"चलिए, समझौता कर लेते हैं। आप बहुत अच्छा समझाते हैं और मैं अच्छा समझ लेती हूँ।" इतना कह कर वह
खिलखिला कर हँस पड़ी।

हँसी क्या थी जैसे कोई उन्मुक्त पहाड़ी झरना बह रहा हो! और हँसी ऐसी संक्रामक कि प्रसाद भी हँसने लगा। उनको इस तरह हँसते देख कर राह चलते लोग उनकी ओर मुड़–मुड़ कर देखने लगे। बीच सड़क पर आप हँस रहे हों और लोग मुड़–मुड़ कर देख रहे हों तो हँसी थम जानी चाहिए, पर यहाँ उलटा ही असर हुआ। हँसी का एक दौर फिर शुरू हुआ।
"लोग हमें पागल समझ रहे होंगे।" लड़की ने कहा।
"गणितज्ञ होने के नाते लोग मुझे आधा पागल तो ऐसे ही समझते हैं।" प्रसाद ने कहा।
"देखिए प्लीज, और नहीं हँसाइए।" लड़की ने कहा।
"अच्छा हँस लिए आज आप की वजह से। लोग कहते हैं न, कि हँसना और मुस्कराना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होते हैं।"
"
केवल हँसना। मुस्कराना नहीं।"
"मुस्कराना क्यों नहीं?"
"इसलिए कि मुस्कान को हम लोग ढाल के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। मन भले ही खिन्न हो, पर लोगों के सामने मुस्कान ओढ़े रहते हैं। ऐसी मुस्कान न मन के लिए लाभदायक होती है और न गाल की माँसपेशियों के लिए।"
"मैं ऐसी मुस्कान की बात नहीं कर रहा था।"
"अब हमें यहाँ से चलना चाहिए। कुछ लोग अपने गंतव्य की ओर जाना छोड़ कर हमें घूर–घूर कर देख रहे हैं। लगता है, थोड़ी देर में ही मजमा खड़ा हो जाएगा।" लड़की ने इधर–उधर लोगों को देखते हुए कहा।
"काश! मैं आपको किसी रेस्तराँ में ले जा सकता।" प्रसाद ने कहा, कितना अच्छा होता यदि हम एक–साथ खाना खाते और खाते–खाते बातें करते।"
"काश! क्यों?" लड़की ने पूछा।
"अभी मुझे संस्था वालों के साथ खाना है। बोरियत होगी पर उनका निमंत्रण स्वीकार कर चुका हूँ। पर हम लोग ऐसा क्यों नहीं करते?" प्रसाद ने कहा।
"कैसा?" लड़की ने पूछा।
"ऐसा कि आज नहीं तो कल। क्या मैं आपको कल दिन के खाने का निमंत्रण दे सकता हूँ?" प्रसाद ने पूछा।
"नहीं, कल नहीं हो सकता।" लड़की ने अपना सिर हिलाते हुए कहा।

ड़की ने अपना सिर क्या हिलाया उसकी केशराशि प्रसाद की आँखों के सामने लहरा गई। लहर सीधे उसके दिल में उतर गई। लगा दिल हिचकोले खाने। उसने किसी तरह अपने दिल को सम्हाला और बड़ी उम्मीद से पूछा, "कल रात का खाना?"
"नहीं, रात का खाना असंभव है। मुझे आठ बजे से पहले हॉस्टल लौटना पड़ता है। हॉस्टल का नियम है।"
"तो परसों दिन का खाना।"
"नहीं परसों भी नहीं। परसों की बुंकिंग पहले ही हो चुकी है।"
"तब तरसों रखिए।"
"हाँ, तरसों ही ठीक रहेगा।" लड़की ने कहा।
"तरसों कौन–सा दिन पड़ता है?"
"रविवार।"
"तो ठीक है, रविवार का खाना आप मेरे साथ खा रही हैं। वादा।" प्रसाद ने कहा।
"वादा।" लड़की ने कहा।

वह लड़
की तरसों का वादा करके चली गई। प्रसाद उसके ख्यालों में खोया वहीं खड़ा रहा। मधुर ख्याल थे। कहते हैं कि बात–बात से बात निकलती है। ठीक उसी प्रकार एक मधुर ख्याल से दूसरे मधुर ख्याल में विचरता हुआ प्रसाद एक ऐसे ख्याल में अटक गया जो जरा भी मधुर नहीं था। वरन दिल डुबोनेवाला था। जिस ख्याल में अटका था वह यह था कि न तो उसने उस कन्या का नाम पूछा था और न ही तरसों मिलने की जगह तय की थी। तब वह मिले तो किससे मिले और कहाँ मिले। सद्यः प्रस्फुटित प्यार के लिए इससे अधिक कष्टदायक बात और क्या हो सकती है।

संस्था वाले उसे खोजते हुए वहीं पहुँच गए नहीं तो, वह पता नहीं कब तक वहीं फुटपाथ पर खड़ा रहता। संस्था वालों ने उसे अच्छे–अच्छे पकवान खिलाए। पर वह पकवानों का क्या स्वाद ले सकता है, जो ऐसी उधेड़बुन में फँसा हो जिसमें उधेड़ना बहुत अधिक था और बुनना बहुत कम।

खाना खाकर उसी अनाम लड़की को तसव्वुर में बसाए वह घर की ओर चल पड़ा। प्रसाद का घर पार्क में था। यह पार्क शहर की चिल्लपों से थोड़ा हट कर गंगा के किनारे एक टीले पर चार–पाँच किलोमीटर परिधि के घेरे में बना था। छोटी–बड़ी क्यारियाँ, सुंदर मकान पिक्चर पोस्टकार्ड का–सा दृश्य प्रस्तुत करते थे। पर आज पार्क का मनोहारी दृश्य भी प्रसाद का मन हरने में असमर्थ था। एक क्षण तो वह उस कामिनी की कमनीयता में खो जा रहा था और दूसरे ही क्षण उसे यह ध्यान आ रहा था, कि न नाम पता, न पता पता। एक चेहरा है बस। और कुछ भी तो नहीं है अता–पता। गणित की दृष्टि से जोड़–घटाव कर संख्या ऋणात्मक हो जा रही थी।

तभी उसे याद आया। बिना वार्निंग के एक धमाके की तरह। ऐसा धमाका जिसके होते ही सब कुछ ! स्वाहा। उसे याद आया कि उसे प्रेम तो हुआ है एक अनाम, अज्ञात कुल गोत्र वाली लड़की से और उसकी सगाई हो चुकी है एक ठोस नाम पते वाली कुलीन कन्या से।

भाग्य, विधि का लिखा, विडंबना जैसे शब्द ऐसी स्थिति में प्रयोग किए जाते हैं। पर प्रसाद के संदर्भ में किसी भी ऐसे एक वर्णन में इतना वजन नहीं है, कि वह स्थिति का वर्णन कर सके। ऐसे सभी शब्द एकसाथ इस्तेमाल किए जाएँ तो शायद बात बने।

प्रसाद को लोग भले ही नीरस या भावना रहित या सूखा ठूँठ कहें पर अभी उसके सीने में जो धड़कता हुआ दिल था, वह उस अनाम लड़की के लिए ओवरटाइम कर रहा था। और प्रसाद चूँकि एक ईमानदार व्यक्ति था, इसलिए एक से सगाई और दूसरी से प्यार नहीं कर सकता था।

दलील पेश की जा सकती है कि प्रसाद की सगाई पहले हुई और प्यार जागा बाद में। पर जब सगाई हो चुकी थी तो उसे अपने दिलोदिमाग पर काबू रखना चाहिए था। यह कहाँ की शराफत है, कि टिकट लगा कर भी आप बैरंग घूम रहे हैं।
कहने वाले यह भी कह सकते हैं कि प्रसाद को प्यार हुआ भारत देश में जहाँ हर साल हज़ारों की तादाद मैं बनने वाली फिल्में हमें यही सिखाती हैं, कि प्यार हो जाता है, किया नहीं जाता। जो भी हो इन तर्कों का प्रसाद पर कोई असर नहीं पड़ने वाला था, क्योंकि इनके आकड़े एक गणितज्ञ के लिए बड़े बेढब थे।

प्रसाद ने वही किया जो बेचारा कर सकता था। वह जमींदोज हो गया। बाहर निकलना, यार अहबाबों से मिलना–जुलना बंद। अनाम लड़की से नहीं मिल सकता था, क्योंकि उसका नाम पता उसे नहीं मालूम था। यदि होता भी तो अपनी सगाई वाली सूरत उसे नहीं दिखा पाता। और अपनी मंगेतर धारिणी से इसलिए नहीं मिल सकता था, कि वह उसके प्रति अपराध भाव से ग्रसित था। उसका स्वयं का समीकरण जब असंतुलित था, तो यार–अहबाबों से कैसे मिल सकता था। बहुत दुःखी था बेचारा। साथी, मंजिल, साहिल दुःख के अँधेरे में सब गड़बड़ हो गए थे।

आज निकल गया। कल और परसों निकल गए। तरसों वाला रविवार का दिन आन पहुँचा। सुबह–सुबह एक चपरासीनुमा व्यक्ति आया और प्रसाद को एक बंद लिफाफा पकड़ा गया। प्रसाद 'हर आहट पे धड़के दीवाना दिल मेरा' हो रहा था। कहीं अनामी का पत्र न हो। पत्र उसी का था। लिखा था,
"प्रसादजी,
आपने लंच का वादा तो किया था, पर जगह नहीं बताई। इस आशा से कि आप वादे के पक्के रहेंगे, जगह का चुनाव मैंने कर लिया है। मैं आज साढ़े बारह बजे नटराज रेस्तराँ में आपकी प्रतीक्षा करूँगी। –चित्रा"

"आह, चित्रा।" प्रसाद ने कहा। फिर उसने सोचा, यथा नाम तथा गुण और फिर उसके मुँह से एक गहन गंभीर आह निकली। यह विश्वास करना कठिन है, कि प्रसाद जैसी छरहरी काया और आवश्यकता से अधिक विकसित टेंटुए वाले व्यक्ति के मुँह से ऐसी गहन गंभीर आवाज निकल सकती है। किसन दुबे को भी अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। पर घटना आँखों के सामने घटी थी। शक की कोई गुंजाइश ही नहीं थी।

"
मुझे नहीं मालूम था, कि तुम इस तरह एक भैंसे की तरह आवाज भी निकाल सकते हो।" उसने प्रवेश करते हुए कहा।
"आओ, वामन। कब आए?" प्रसाद ने कहा।
"कब आए! अरे, अभी–अभी तेरे सामने तो आ रहा हूँ। दीदे नहीं हैं क्या? यह तो बताओ, इस तरह रेंक क्यों रहे थे?" किसन दुबे ने पूछा।
"मैं बहुत दुःखी हूँ, वामन।" प्रसाद ने कहा।
"तुम और दुःखी? तुमको क्या दुःख हो सकता है? पिछले लेक्चर के पैसे कुछ कम मिले क्या?" किसन दुबे ने पूछा।
"पढ़ो तो सही।" प्रसाद ने कहा।

दुबे ने पढ़ा। पढ़ कर प्रश्नसूचक मुद्रा में प्रसाद को देखा। उत्तर में प्रसाद ने ऋषभ स्वर में एक आह भरी। फिर गंभीर आहों और ठंडी साँसों के बीच उसे अपनी व्यथा कथा सुनाई।

प्रचलित था कि जहाँ पर किसन दुबे हो वहाँ कभी शांति हो ही नहीं सकती। पर प्रसाद की कहानी सुन कर वह ऐसा चुप हुआ जैसे उसने अपना बोलने वाला यंत्र खो दिया हो।

"साँप सूँघ गया, क्या तुम्हें?" कुछ देर बाद प्रसाद ने पूछा।
"साँप क्या सूँघेगा मुझे। मैं भगवान के अन्याय के बारे में सोच रहा था। एक जमाना वह था जब मुझे तुम पर तरस आता था। जब से सरला ने तुम्हारा टेंटुआ दबाने की बात की थी, तब से मैं यही सोचा करता था, कि जिस व्यक्ति का इतना बड़ा टेंटुआ हो उसे कोई लड़की पसंद ही नहीं कर सकती है। और अब देखो, एक अदद पत्नी की चाह में मैं बूढ़ा हो चला और तुम...।"
"यहाँ मेरी जान पर बनी है और तुम्हें बकवास सूझ रही है।" दुबे की बात काटते हुए प्रसाद ने कहा।
"पर तुमने चित्रा के साथ पेंग बढ़ाई ही क्यों, जब कि तुम्हारी सगाई धारिणी के साथ हो चुकी है?" किसन दुबे ने पूछा।
"मेरे वश में कुछ था ही कहाँ! एक हाई वोल्टेज का झटका लगा बस। और फिर मैंने कौन सी पेंग बढ़ाई है? एक ही मुलाकात तो हुई है।" प्रसाद ने कहा।
"धारिणी से सगाई तोड़ दो।" वामन ने सुझाया।
"सगाई तोड़ना आसान है क्या? परंपरागत सगाई हुई है। सब की होती है मेरी भी हो गई। मुझे क्या पता था कि आगे चल कर ऐसा होगा। अब तो यह आलम है कि न मैं चित्रा से मिल सकता हूँ और न धारिणी के प्रति ईमानदारी बरत सकता हूँ। वह बेचारी न मालूम मुझ अभागे के प्रति क्या–क्या सपने सजा रही है।" ठंडी साँस छोड़ते हुए प्रसाद ने कहा। उ
सकी ठंडी साँसों से आस–पास का वातावरण काफ़ी गरम हो चला था।

"तो इसलिए दो–तीन दिनों से आउट ऑफ सरकुलेशन हो।" दुबे ने कहा।
"मन की
ऐसी हालत है कि कहीं आने–जाने की इच्छा ही नहीं होती है। अब तुम्हीं बताओ, क्या करूँ? है कोई उपाय?" प्रसाद ने कहा।
"सगाई तोड़ दो।" दुबे ने कहा।
"फिर वही। मैंने सगाई तोड़ कर धारिणी का दिल दुखाया तो जीवन भर अपने को माफ नहीं कर पाऊँगा।" प्रसाद ने कहा।
"क्या फिल्मी डायलॉग बोल रहे हो। उसे तो प्रसन्नता होगी कि एक टेंटुआधारी व्यक्ति के बदले उसे एक बाँका सुदर्शन जवान मिला।" दुबे ने कहा। प्रसाद के चेहरे के भाव देख कर वह तुरंत बोला, "खैर, मैं तो मज़ाक कर रहा था। मेरे पास एक उपाय है जिससे तुम्हें सगाई तोड़ने की जरूरत नहीं है। धारिणी स्वयं सगाई तोड़ देगी।"
"ऐसा हो तो बात ही क्या है?" प्रसाद ने उत्सुक होते हुए कहा।
"पर यह एक सगाईशुदा लड़की के प्रति अन्याय होगा। मैं बेकार में पाप का भागीदार बनूँगा।" दुबे ने भाव लेते हुए कहा।
"वामन हो, कोई मंत्र–तंत्र पढ़ लेना पाप से छुटकारा मिल जाएगा। उपाय बताओ?" प्रसाद ने कहा।
"देखो, तुम्हें आज उस लड़की को लंच खिलाना है। तुम जाओ बन–ठन कर नटराज और खिलाओ उसे लंच। पर किसी तरह धारिणी के कान में यह बात डाल दो, कि तुम चित्रा को लंच खिला रहे हो। धारिणी अवश्य खोजबीन करेगी। वह जब तुमको चित्रा के साथ गुटरगूँ करते देखेगी, तो अपने आप टूटती है सगाई।" दुबे ने कहा।
"तुम डाल दोगे धारिणी के कान में यह बात?" प्रसाद ने पूछा।
"चलो, डाल दूँगा। यारी में यह भी सही।" दुबे ने कहा।

बड़ी विचित्र मनःस्थिति में प्रसाद नटराज पहुँचा। डर लगा हुआ था कि पता नहीं क्या हो। पर जब उसकी दृष्टि चित्रा पर पड़ी, तो सारा भय उड़न छू हो गया। वह चहकने लगा। दोनों ने एक टेबिल बुक किया। डट कर खाना खाया। उसे धारिणी
का ध्यान ही न रहा। ध्यान तब आया जब वह टेबिल के पास आ कर खड़ी हो गई। उस समय प्रसाद बड़े प्यार और बड़े मनोयोग से चित्रा का हाथ देख रहा था।

धारिणी ने अपनी अँगुली से अँगूठी निकाली और टेबिल पर रखती हुई बोली, "यही सब करना था तो सगाई क्यों की? मैं जो..." मुँह ही मुँह बड़बड़ाती हुई वह वहाँ से चली गई।
प्रसाद एक खिसियानी हँसी हँसते हुए बोला, "यह धारिणी थी।"
"तुम्हारी मंगेतर।" चित्रा ने उसके चेहरे पर आँखें गड़ाते हुए कहा।
"अब नहीं है।" प्रसाद ने जल्दी से कहा।
"आश्चर्य है।" चित्रा ने कहा। उसने अपना बैग सम्हाला और सिर हिलाते हुए एक बार फिर कहा, "आश्चर्य है।" वह वहाँ से उठी और चलते हुए बोली, "चल चित्रा, गलत नंबर लग गया।"

प्रसाद ने उसे आवाज दी पर व्यर्थ। दूसरे टेबिलों से लोग उसे घूरने लगे, तो बिल चुका कर वह किसी तरह वहाँ से निकल लिया। यदि उसकी दुम होती तो वह उसे दबा कर भागता वहाँ से।
एक और एक दो बनने के चक्कर में दोनों लड़कियाँ एक दो तीन हो गईं और उसके हाथ लगा शून्य। दिन की वीरानियाँ। रात की तन्हाइयाँ।

शीर्षक के हिसाब से तो यह कहानी यहीं समाप्त हो जाती है। कई पाठक–पाठिकाओं को यह नागवार गुजरे कि यह भी कोई कहानी हुई? आगे क्या हुआ? मेरा भी मन नहीं मानता कि केवल शीर्षक को सार्थक करने के लिए कहानी को बीच में ही लटका दिया जाय, बिना अंजाम तक पहुँचे। यह कोई आधुनिक कहानी तो है नहीं, जिसमें कहा कम और बहुत
कुछ अनकहा समझने के लिए छोड़ दिया जाए। बहरहाल, आगे की कहानी इस प्रकार है।

नटराज में जो घटा उसकी खबर किसन दुबे तक पहुँची। प्रसाद के लिए उसे बहुत दुःख हुआ। पर उसने स्वयं को सांत्वना दे ली कि प्यार और लड़ाई में सब जायज है। फिर उसे क्या मालूम था कि उसका सुझाया हुआ फिल्मी फार्मूला प्रसाद के लिए उलटा पड़ेगा। धारिणी ने अँगूठी लौटा दी, इसकी तो वह तमन्ना ही कर रहा था। पर चित्रा ने भी प्रसाद का त्याग कर दिया, यह उसकी समझ में नहीं आया। खैर, महत्वपूर्ण बात यह थी कि अब वह धारिणी के साथ प्यार की बातें कर सकता था।

बात यों हुई कि उसने धारिणी को एक पार्टी में देखा था और बस धाँय! धारिणी उसके मन–मस्तिष्क में छा गई। वह एक सावधान व्यक्ति था। हर काम सोच–विचार कर ही करता था। उसने अपने दिल को टटोला था। अपनी भावनाओं को तराजू में तोला था। जब उसे विश्वास हो गया था, कि उस एक छोटी–सी मुलाकात में उसे धारिणी से प्रेम हो गया है, तो वह बाकायदा प्रेम निवेदन के लिए तत्पर हुआ था। पर तब तक धारिणी की सगाई प्रसाद के साथ हो चुकी थी।

अब जब धारिणी ने प्रसाद से अपनी सगाई तोड़ दी, वह तुरंत उसी क्षण उससे मिलने चल दिया। देर करने का फल वह देख चुका था। हालाँकि उसे नहीं मालूम था कि प्रेम निवेदन कैसे किया जाता है। उसका अपना तो कोई पुराना अनुभव नहीं था। फिल्मी तरीके में उसका विश्वास कम हो चला था। फिर भी उसने देर करना उचित नहीं समझा और निकल पड़ा। वह धारिणी के घर पहुँचा। दिल जोर से धड़–धड़ कर रहा था। बाएँ हाथ से उसने अपना दिल थामा और दाएँ हाथ से दरवाज़े की घंटी बजाई।

चित्रा भारी कदमों से, भारी दिल से और भारी दुःख से भरी हुई वहाँ से चली आई थी। कई दिन बीत गए, पर भारीपन कम न हुआ। उसका रोम–रोम पुकार कर कह रहा था कि यह क्या हो गया चित्रा! बहुत विश्वास था न अपनी बुद्धि पर, बहुत गर्व था न कि अपनी योग्यता पर कि मैं आदमी पहचानती हूँ। पहली बार ही ऐसी ठोकर खाई कि चारों खाने चित। यह उसकी बुद्धि का विश्लेषण था। पर उसका मन कह रहा था कि ऐसा नहीं हो सकता है। वह गलत नहीं हो सकती। उसकी समझ इतना बड़ा धोखा नहीं खा सकती। जरूर कोई आसान–सी चाभी है इस रहस्य की।

खबरदार चित्रा, यह कमजोरों की भाषा है। जीते–जागते रेंगते साँप को रस्सी समझने की भूल न करो। अपना मन काबू में रखो। जो दिख रहा है, वही सत्य है। यह चित्रा के मस्तिष्क की चेतावनी थी।

दिल ही तो है। मान जाए तो फिर दिल कैसा? दिल की न मानने से बहुत कष्ट होता है। चित्रा और प्रसाद दोनों ने अपने दिल की न मानी। अपनी–अपनी बुद्धि से काम ले कर जैसे–जैसे अपने–अपने दिल को काबू में रखा। ऐसा करने में उन दोनों की दिनचर्या बहुत सीमित हो गई थी। इधर–उधर झाँकना नहीं, इधर–उधर जाना नहीं। अर्थात इस ओर मैं और उस
ओर तू और बीच में बहुत बड़ा शहर।

इस बीच वाले शहर में किसन दुबे और धारिणी वाला मामला आगे बढ़ा और परवान चढ़ा। एक ओर तो आग ही हुई थी। दूसरी ओर भी सुलगी और बढ़ी। आग जब दोनों ओर बराबर लग गई तो बड़ों को बताया गया। बड़ों ने जैसा कि वे करते रहते हैं, बहुत ना–नुकुर की। मीन–मेख निकाला। जात–पात को खींचा। पर अंत में मान ही गए। दोनों बड़ी–बड़ी आगों के बीच एक और आग भड़का कर दोनों को उसके फेरे लेने का आशीर्वाद दे दिया।

वह शादी ही क्या, जिसमें आपके मित्र शामिल न हों। किसन दुबे जब मित्रों की सूची बनाने लगा तो उसे प्रसाद की सुध आई और उसे अपराध–बोध ने धर दबोचा। यानी वह तो उसकी मँगनी तुड़वा कर उसी लड़की से शादी कर रहा था पर उसका क्या बना, उसने कभी सुध ही न ली।

वह दौड़ा–दौड़ा उसके घर गया। जो कुछ उसने देखा उसके लिए वह तैयार नहीं था। स्वास्थ्य के मामले में प्रसाद माशाअल्लाह ही था, अब तो और भी अधिक माशाअल्लाह लग रहा था और उसका टेंटुआ? अब वह प्रसाद का टेंटुआ न लग कर पूरा का पूरा प्रसाद टेंटुआ का प्रसाद लग रहा था।

दुबे ने उसकी विरह कथा सुनी। वह धारिणी की सहेली की सहेली का संदर्भ ले कर चित्रा से मिला। चित्रा ने अपनी विरह कथा तो नहीं सुनाई, पर दुबे ने ताड़ लिया। चित्रा की आँखें उदास थी और चेहरा भी उदास था। चित्रा कि जुबाँ तो चुप रही पर उसके आस्तीन के खंजर ने पुकार–पुकार कर दुबे को सब बता दिया। दोनों ओर आग की तपिश थी, पर चहुँ ओर धुआँ ही धुआँ था।

वामन किसन दुबे ने संकल्प लिया। वह प्रसाद और चित्रा का विवाह कराएगा इसके लिए उसे चाहे धोती ही क्यों न पहननी पड़े। वह इधर से उधर दौड़ा और उधर से इधर। इधर उसने उधर का हाल सुनाया और उधर इधर का। दोनों को अपनी शादी का निमंत्रण दिया।

शादी में प्रसाद और चित्रा मिले। गिले–शिकवे हुए। धुएँ का साम्राज्य समाप्त हुआ और वे दोनों 'जैसे थे' वाली स्थिति में आ गए और वहाँ से सुहानी डगर पर आगे बढ़े। दुबे की सलाह पर दोनों ने तुरंत शादी का निर्णय लिया। चित्रा ने अपने माँ–बाप को तार दिया और प्रसाद अपने माँ–बाप से मिला। फिर वही ना–नुकुर, मीन–मेख और जात–पात की बातें। पर इन सबसे गुजरने के बाद दोनों की शादी हो ही गई।

बस, यह कहानी यहीं पर समाप्त होती है। दोनों दंपति सुखपूर्वक हैं। प्रसाद प्रसन्न है कि वह अंत में एक और एक दो बनाने में सफल हुआ। दो में एक और मिल कर तीन होने में अभी तीन महीने और देर है।

२४ मार्च २००६

 
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