इस सप्ताह-
|
अनुभूति
में-
जगदीश श्रीवास्तव, अरुण
तिवारी अनजान, महेश द्विवेदी, शशि पाधा और हिम्मत मेहता की रचनाएँ। |
- घर परिवार में |
रसोईघर में- पर्वों के दिन शुरू हो गए हैं और दावतों की
तैयारियाँ भी। इस अवसर के लिये विशेष शृंखला में शुचि प्रस्तुत
कर रही हैं-
पनीर पसंदा |
बचपन की
आहट- संयुक्त अरब इमारात में शिशु-विकास के अध्ययन में
संलग्न इला गौतम से जानें एक साल का शिशु-
फिल्म और बच्चों का साथ।
|
भारत के अमर शहीदों की गाथाएँ-
स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रारंभ पाक्षिक शृंखला के अंतर्गत- इस अंक
में पढें मदन मोहन मालवीय की अमर
कहानी। |
- रचना और मनोरंजन में |
साहित्य समाचार में- देश-विदेश से साहित्यिक-सांस्कृतिक
समाचारों, सूचनाओं, घोषणाओं, गोष्ठियों आदि के विषय में जानने के लिये
यहाँ देखें |
नवगीत की पाठशाला में-
कार्यशाला-२४ का विषय है- दीप जले टल
गए अँधेरे। रचनाएँ अभी भी भेजी जा सकती हैं। विस्तृत
जानकारी के लिये यहाँ देखें
|
लोकप्रिय कहानियों के अंतर्गत-
प्रस्तुत है पुराने अंकों से
संयुक्त अरब इमारात से
अशोक कुमार श्रीवास्तव की कहानी—"मृगतृष्णा"।
|
वर्ग पहेली-१०६
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और रश्मि आशीष के सहयोग से
|
सप्ताह
का कार्टून-
कीर्तीश
की कूची से |
अपनी प्रतिक्रिया
लिखें
/
पढ़ें |
|
साहित्य एवं
संस्कृति में- |
समकालीन कहानियों में यू.के. से
दिव्या माथुर की कहानी
हिंदी@स्वर्ग.इन
सेंट
मार्लिबन क्रैमेटोरियम, जहाँ महावीर शर्मा जी की अंत्येष्टि
होनी तय हुई थी, मुझे आसानी से मिल गया किंतु उसका मुख्य द्वार
अभी तक बन्द था। यह देखने के लिए कि अन्दर जाने के लिए शायद
कोई और द्वार हो, मैं कार को मुख्य सड़क पर आगे पीछे दौड़ा रही
थी। यह जगह मेरे लिए नई थी, मुझे जानकारी नहीं थी कि कार को
कहाँ पार्क किया जाए। ग्यारह बजने वाले थे और मैं अभी पार्किंग
ही ढूँढ रही थी। देर से पहुँचूँगी तो लोग मुझे ऐसे घूर कर
देखेंगे कि जैसे मैंने एक बड़े महत्वपूर्ण काम में बाधा डाल दी
हो चाहे उनके दिमाग़ों में उस समय मृतक के सिवा कुछ भी घूम रहा
हो। दरवाज़ा खुलने की एक हल्की सी चरमराहट से मेहमानों की
गर्दनें प्रवेश-द्वार की ओर घूम जाएँगी, मंत्रोचारण करते हुए
पंडित जी का ध्यान बँट जाएगा और हर चेहरे पर लिखा होगा,
‘लेट-लतीफ’, ऐसे नाज़ुक मौकों पर भी लोग समय पर नहीं आ सकते!’ ख़ैर,
तभी मैंने देखा कि एक काले रंग की लिमोसीन आ पहुँची। उसके
द्वार पर पहुँचते ही न जाने कैसे क्रैमेटोरियम के...
आगे-
*
शंकर पुणतांबेकर का व्यंग्य
संगमरमर की सीढ़ियाँ
*
ममता की कलम से
भारतीय आप्रवासी-
डॉ. धनीराम प्रेम
*
सुदर्शन वशिष्ठ का आलेख
हिमालय का चितेरा रोरिक
*
पुनर्पाठ में-
अनूप शुक्ला का संस्मरण
बोलो न बोलो- रमानाथ अवस्थी |
अभिव्यक्ति समूह
की निःशुल्क सदस्यता लें। |
|
पिछले-सप्ताह-
|
१
मधु संधु की लघुकथा
अभिसारिका
*
रंगमंच में दिनकर कुमार से जानें
असमिया नाटकों की
विकास यात्रा
*
शिखा वार्ष्णेय का आलेख
न्यू
मीडिया और सामाजिक सरोकार
*
पुनर्पाठ में-
राजेन्द्र तिवारी का संस्मरण
शिमला में घुला निर्मल
*
समकालीन कहानियों में बाहरीन से
मंजु मधुकर की कहानी
चन्न चढ़े ते पाणी पीना
‘‘हैल्लो!’’
‘‘हैल्लो, मैं बोल रई गीता।’’
‘‘हाँ-हाँ, बोलो।’’ दीपाली ने उतावली में कहा।
‘‘सुन, पंद्रह की है करवाचौथ। अपनी पिंकी की तो पैल्ली करवाचौथ
है न, तो साड्डे घर ही सब्ब जुड़ेंगे। हमारी तो तू जानती ही है
कि सब सरदार पंजाबियों की ही सोसाइटी है, खूब रौनक होनी है।’’
गीता उत्साह से बोली।
‘‘लेकिन गीता, दिल्ली में तो सब सोलह की ही कर रहे हैं।’’
दीपाली ने गीता की वाणी को ब्रेक लगाया।
‘‘सुहा, कोलकाता में तो बीस बरस से देख रही है कि सभी त्योहार
एक दिन पैल्ले ही होता है और हाँ, पेन-शेन पर्स में रख लेना।
बाद में हाउजी के भी एक-दो राउंड हो जाने है।’’
‘‘अरे हाँ, अबकी तो तेरी बहू के घर से खूब बायना आया होगा।’’
दीपाली ने अपनी सरल सखी को छेड़ते हुए कहा।
आगे- |
अभिव्यक्ति से जुड़ें आकर्षक विजेट के साथ |
|