|  | जब से विदेश में नौकरी मिली है मेरे 
					रुतबे में थोड़ा इज़ाफा हो 
					गया है। विेशेषकर मित्र–मण्डली और ससुराल वालों के बीच। ऐसा 
					नहीं कि पहले रूतबा नहीं था, दामाद का रूतबा ससुराल वाले सदा 
					से मानते रहे हैं। पर अब जब भी छुट्टियों में मैं घर आता, 
					लोगों की भीड़ सदा आसपास बनी रहती है। दूर–दराज के 
					नाते–रिश्तेदार भी आने की खबर पाकर मिलने के लिए चले आते हैं।
					
 इन्हीं में से एक था अखिलेश, जो किसी प्राइवेट इन्टर कालेज में 
					पढ़ाता था, मिलने आया और कहने लगा, "जीजा मेरा पासपोर्ट बनकर 
					आया है, अब आप मेरे लिए कुछ जुगाड़ भिड़ाइए...मैं किसी तरह का 
					भी काम करने को तैयार हूँ...चाहें ऊँट चराने का हो...या 
					फिर मिस्त्रीगीरी का..."
 
 'कहावत है कि सारी खुदाई एक तरफ जोरू का भाई एक तरफ' मेरी इतनी 
					मज़ाल कहाँ...? कि मैं उसे न कर पाता। हाँ समझाने की कोशिश 
					ज़रूर की कि जब तक सही तरीके से ढँग की नौकरी न मिले उसको 
					इंतज़ार करना चाहिए। वहाँ छोटी–मोटी नौकरी करने वाले लोगों का 
					जीवन बड़ा नारकीय होता है। एक कमरे में पन्द्रह से बीस लोग रहते 
					हैं, दिन भर ४५-४८ डिग्री की गर्मी में पसीना बहाते हुए काम 
					करते हैं।
					तस पर जान का खतरा ऊपर से...दूसरे वहाँ सारा कारोबार वतनी 
					लोगों के माध्यम से ही होता है।
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