जयंती के
अवसर पर
बोलो न बोलो- रमानाथ अवस्थी
—अनूप कुमार शुक्ल
रमानाथ अवस्थी जी उन गीतकारों में से
थे जिनको सुनते समय लगता था मानों समय ठहर गया है। ८ नवंबर
को उनका जन्मदिन है। उन्हीं की स्मृति में यह लेख लिखकर
मैं अपनी ज़िंदगी के उन दुर्लभ क्षणों को दुबारा महसूस करने
का प्रयास कर रहा हूँ जो मैंने रमानाथ जी के साथ या उनकी
कविता सुनते हुए जिये।
सन १९८५-८६ की बात होगी शायद। मैं बनारस हिंदू
विश्वविद्यालय से एम.टेक. कर रहा था। काशी यात्रा का मौका
था, कवि सम्मेलन हो रहा था। बहुत से कवि पढ़ चुके थे। फिर
संचालक ने तमाम तारीफ़ के साथ एक कवि को बुलाया। भीड़ तथा
तारीफ़ इतनी हो गई कि मुझे कवि का नाम ठीक से सुनाई न दिया।
कवि ने भी बिना किसी ताम–झाम तथा लटके–झटके के केवल कविता
प्रस्तुत कर रहा हूँ कहकर शुरू किया—
सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात।
गीत के बोल हमें चमत्कृत करते से लगे। आगे की पंक्तियाँ
लगा कि ज़िंदगी का व्याकरण समझा रहीं हों—
गगन बीच रुक तनिक चंद्रमा लगा मुझे समझाने
मनचाहा मन पा लेना है खेल नहीं दीवाने।
गीत के साथ हैसियत की जानकारी बढ़ी—
रात लगी कहने सो जाओ देखो कोई सपना
जग ने देखा है बहुतों का रोना और तड़पना।
लेकिन जीत का सुख भी मिला—
मुझे सुलाने की कोशिश में जागे अनगिन तारे
लेकिन बाज़ी जीत गया मैं वे सबके सब हारे।
यह कविता तब से सैकड़ों बार सुन चुका हूँ। कविता की कशिश
कुछ ऐसी है कि ख़त्म होते ही दुबारा गुनगुनाने का मन करता
है। बाद में पता चला कि गीतकार थे स्व. रमानाथ अवस्थी।
जिन्होंने उनके गीत सुने है वे ही उनको महसूस कर सकते हैं।
बाकी लोग केवल कल्पना कर सकते हैं। रमानाथ जी की स्मृतियों
के बारे में बताते हुए डा .कन्हैयालाल नंदन लिखते हैं—
अजब रसायन की रचना लगते हैं मुझे पंडित रमानाथ अवस्थी,
जिसमें पाँच ग्राम निराला, सात ग्राम बाबा तुलसीदास, दो
ग्राम कबीर और डेढ़ ग्राम रविदास के साथ आधा ग्राम
'ठाकुरजी' को खूब बारीक कपड़े से कपड़छान करके आधा पाव
इलाचंद्र जोशी में मिलाया जाए तथा इस सबको अंदाज़ से बच्चन
जी में घोलकर खूब पकाया जाए। रमानाथ जी का मानसिक रचाव कुछ
ऐसे ही रसायन से हुआ है। वे निराला के स्वाभिमान को अपने
अंतर्मन में इतना गहरे जीते हैं कि अनेक लोग सकते में आ
जाते हैं।
रमानाथ जी की कविता की ख़ासियत है कि लगता है जैसे बतियाते
अंदाज़ में वाक्य उठाकर कविता पंक्ति बना दिए गए हैं। उनकी
एक कविता है—
तुमने मुझे बुलाया है, मैं आऊंगा
बंद न करना द्वार देर हो जाए तो
उसी में आगे हैÁ–
मेरे आने तक मन में धीरज धरना
चाँद देख लेना मन घबराए तो।
इसी के साथ अंतिम संकल्प विश्वास भी है—
मेरा और तुम्हारा मिलना तो तय है
शंकित मत होना यदि जग बहकाए तो।
'बंद न करना द्वार' के नाम से कविता संग्रह भी छपा था
रमानाथ जी का। धर्मयुग में एक बार होली पर प्रसिद्ध
पुस्तकों के नाम की पैरोड़ी छपी थीं। तब लिखा गया—
बंद न करना द्वार–चाहे सो भले जाना।
सहज विश्वासी–आस्तिक रमानाथ जी कहते हैं—
करने वाला और है, किसी को क्यों पुकारूँ
जीवन की नाव किसी घाट क्यों उतारूँ।
वे पराजित–मन ज़रूर नहीं जीते, लेकिन योद्धा–मन होकर समर भी
नहीं करते। रेडियो के अपने कार्यकाल में उन्हें प्रशासन के
हाथों अन्यायवश अपमान की स्थितियों तक भी पहुँचा दिया, तब
भी वे इसी पर डटे रहे कि—
टूटने का दर्द जहाँ समझा न जाए
ऐसी दुनिया को किस वास्ते सँवारूँ।
दुनियावी चाल–चलन का उनको बखूबी अंदाज़ा है—
चंदन के वन में आग लगी
खुशबू उड़ कर पहले चल दी
दुर्दिन में अपनों के जाने की
होती है कितनी जल्दी।
उनकी सहज स्वीकारोक्तियाँ सहज विश्वसनीय हैं—
देवता तो हूँ नहीं स्वीकार करता हूँ।
आदमी हूँ क्योंकि मैं तो आदमी को प्यार करता हूँ।
. . .और प्यार करते हैं तो इतना करते हैं कि अपने प्रेयस
के बिना कोई सपना मुकम्मल नहीं मानते और बिना ऐसे सपने के
कोई रात बिताना नहीं चाहते —
बीते सपनों में आए बिना तुम्हारे
ऐसी तो कोई रात नहीं जीवन में।
उनकी मान्यता है कि ऐसी प्रीति के लिए प्रेयस का पास होना
ज़रूरी नहीं है, मन की नज़दीकी बहुत है—
तन की दूरी क्या कर लेगी
मन से पास रहो तुम मेरे।
इसी विश्वास और अधिकारभाव को शब्द देती उनकी बहुत प्रसिद्ध
कविता है—
तुम मेरे होकर रहो कहीं
मैं बहुत–बहुत खुश
तनिक–तनिक नाराज़।
तुम शीतल–शीतल छाँह
प्रीति के झुलसे–झुलसे वन में
तुम चाँदी के से फूल
धुएँ से काले–काले घन में।
तुम मेरे होकर खिलो कहीं
मैं बहुत–बहुत खुश
तनिक–तनिक नाराज़।
प्यार के इस समूचे जीवन–व्यापार में दर्द ही ज़्यादा मिलता
है। उसे भी वे धनात्मक रूप में लेते हैं—
दुनिया बेपहचानी ही रह जाती
यदि दर्द न होता मेरे जीवन में।
रमानाथ जी कविता में तात्कालिकता से परहेज़ करते थे। लेकिन
उनकी तमाम सार्वभौमिक कविताएँ लोगों को अपनी ही बात कहती
दिखती हैं। जब चंद्रशेखर जी प्रधानमंत्री थे तो स्वतंत्रता
दिवस के अवसर पर उन्होंने लाल किले से कविता पढ़ी—
मेरे पंख कट गए हैं
वरना मैं गगन को गाता।
जब उन्होंने पढ़ा—
वह जो नाव डूबनी है
मैं उसी को खे रहा हूँ.
तुम्हें डूबने से पहले
एक भेद दे रहा हूँ।
मेरे पास कुछ नहीं है
जो तुमसे मैं छिपाता।
मेरे पंख कट गए हैं
वरना मैं गगन को गाता।
तो चंद्रशेखर जी को लगा तथा बाद में उन्होंने पूछा भी
रमानाथ जी से क्या ये पंक्तियाँ ख़ासतौर से उनके लिए लिखीं
गई हैं। बाद में उनकी सरकार गिर गई थी।
उनकी कविता धुएँ का रंग है—
चाहे हवन का हो
या कफ़न का हो
धुएँ का रंग एक है!
किसी का अलगाव क्या
किसी का पछताव क्या
अभी तो और सहना है!
चाहे हो महलों में
चाहे हो चकलों में
नशे की चाल एक है!
किसी को कुछ दोष क्या!
किसी को कुछ होश क्या!
अभी तो और ढलना है!
शाहजहाँपुर में दशहरे के बाद हमेशा कवि सम्मेलन–मुशायरा
कराया जाता है। एक बार मन किया कि रमानाथ जी को बुलाया
जाए। संपर्क करने पर मंजूरी तो दे दी लेकिन यह भी शर्त कि
साथ में नंदन जी को बुलाओगे तो आएँगे। दोनों लोग आए।
उन्हीं दिनों बायपास सर्जरी हुई थीं। काफ़ी देखभाल की ज़रूरत
थी सो हमारे घर में ही ठहरे। हमारा घर पुराना टाइप का
बंगला था। वहाँ चारो तरफ़ पेड़, हरियाली देखकर खूब खुश हुए।
जाड़े के दिन थे। धूप में बैठे रहे काफ़ी देर।
नंदन जी को तो पत्रकार घेरे रहे साक्षात्कार के लिए।
रमानाथ जी शाम को हमें समझाते हुए बोले— आप लोग रोज़ थोड़ी
देर यों ही अपने आसपास प्रकृति को देखा करें। बादलों को
देखा करें। हवा को महसूस किया करें। मन बहुत अच्छा महसूस
करेगा।
बायपास सर्जरी के कारण गाकर कविता पढ़ने से वो परहेज़ करने
लगे थे। हमने उनसे कविताएँ सुनाने का अनुरोध किया। पहले तो
उन्होंने ऐसे ही पढ़कर कुछ सुनाया। फिर जब हमारी श्रीमती जी
ने ये पीला वासंतिया चाँद गाकर सुनाया तो वे खुश हो गए।
तथा कविताओं की कुछ पंक्तियाँ गाकर सुनाईं।
रात को कवि सम्मेलन में जब वे पढ़ने को खड़े हुए तो आम
आशीर्वाद माँगने के बहाने तालियों की माँग करने वाले
कवियों के विपरीत वे बोले— "आप अपने हाथों को बिल्कुल कष्ट न दें। गले पर बिल्कुल ज़ोर
न डालें। आप सिर्फ़ सुनें। कविता से जुड़ेंगे तो मुझे अच्छा
लगेगा।"
यह कहकर उन्होंने गुनगुनाना शुरू किया—
आज इस वक्त आप हैं, हम हैं
कल कहाँ होंगे कह नहीं सकते।
ज़िंदगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते।
सारे श्रोता शांत हो गए। आगे उन्होंने सुनाया तो लगा कोई
संत कह रहा हो—
वक्त मुश्किल है कुछ सरल बनिए
प्यास पथरा गई तरल बनिए।
जिसको पीने से कृष्ण मिलता हो,
आप मीरा का वह गरल बनिए।
जिसको जो होना है वही होगा
जो भी होगा वही सही होगा।
किसलिए होते हो उदास यहाँ
जो नहीं होना है नहीं होगा।
हमारे कान तृप्त हो गए। महानगर उनको रास न आते थे। वे कहते
थे—
सड़कों पर मेरे पाँव हुए कितने घायल
यह बात गाँव की पगडंडी बतलाएगी
सम्मान सहित हम कितने अपमानित हैं
यह चोट हमें जाने कब तक तड़पाएगी।
शहरों में रहने के बारे में कहते थे—
भीड़ में भी रहता हूँ वीरान के सहारे
जैसे कोई मंदिर किसी गाँव के सहारे।
सन १९४७ में जब देश की धरती का बँटवारा हो गया तो भी उनका
स्वर सार्वभौम तत्व से अलग नहीं हुआ। उसी समय दिल्ली में
एक कवि सम्मेलन हुआ जिसमें इसी विषय पर कविता पढ़नी थी।
रमानाथ जी ने पढ़ा—
धरती तो बंट जाएगी
पर नीलगगन का क्या होगा?
हम तुम ऐसे बिछड़ेंगे
तो महामिलन का क्या होगा?
कविता को सुनकर कहते हैं मंच पर अनेक लोगों की आँखे भर आई
थीं, ख़ासकर पाकिस्तान से आए शायरों की। यह थी रमानाथ जी के
शब्दों की शक्ति।
रमानाथ जी को लोग गीत ऋषि कहते थे। वे बहुत सरल हृदय, बहुत
सहज आत्मा थे। सिर्फ़ दो दिन मेरे घर रहे थे लेकिन जब भी
कभी बात करता तो सारे घर का हालचाल पूछते थे। वायदा किया
था कि अगले साल जाड़े में आऊँगा धूप सेंकने कुछ दिन
तुम्हारे यहाँ। लेकिन वे सशरीर आ न पाए। शायद इसी दिन के
लिए उन्होंने कहा था—
आज इस वक्त आप हैं, हम हैं
कल कहाँ होंगे कह नहीं सकते।
ज़िंदगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते।
आगे फिर न आ पाने की चेतावनी भी दे गए थे—
आपने चाहा, हम चले आए
आप कह देंगे, हम लौट जाएँगे।
एक दिन होगा, हम नहीं होंगे
आप चाहेंगे, हम न आएँगे।
उनका शरीर भले चला गया हो लेकिन उनकी स्मृतियाँ हमेशा बनी
रहेंगी। इसी विश्वास से मैं उन्हें ८ नवंबर को उनके
जन्मदिन पर उन्हीं की कविता–पंक्तियों के माध्यम से
श्रद्धापूर्वक स्मरण कर रहा हूँ—
मैं पुकारूँगा तुम्हें हर बोल में, बोलो न बोलो।
१ नवंबर २००६ |