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					शिमला में घुला निर्मल
 हिमांचल प्रदेश से
					
                    राजेन्द्र तिवारी के संस्मरण
 
 
 
						निर्मल वर्मा का हिमाचल प्रदेश के साथ गहरा रिश्ता रहा है, 
						इसीलिए इस देवभूमि का उनकी रचनाओं पर गहरा असर दिखाई देता 
						है। सुन्नी के राजा 'राणाभज्जी की कैथू' स्थित 
						लाल–टीन–वाली–छत के जिस मकान 'भज्जी हाउस' में इस महान 
						रचनाकार का जन्म ३ अप्रैल १९२९ को हुआ, वह विवादास्पद मकान 
						अन्नाडेल से ऊपर की तरफ़ लोवर कैथू में
                    आज भी सरकार के आधीन है।
 वर्मा जी ने अपना बचपन जिन गलियों में गुज़ारा वहाँ अब उनके 
						जानने वाले बहुत कम रह गए हैं। उनके मकान की ऊपरी मंज़िल, 
						जिसमें उनका जन्म हुआ था, में ताला लगा है लेकिन निचली 
						मंज़िल में सुमित्रा नेगी रहती हैं। सुमित्रा नेगी को तो इस 
						बात का इल्म नहीं है कि वे जहाँ रहती हैं वहाँ एक 
						विश्वविख्यात साहित्यकार ने जन्म लिया है, लेकिन मोहल्ले 
						के प्रमोद जी बताते हैं कि निर्मल वर्मा जी यहीं रहते थे। 
						शिमला के बटलर हारकोर्ट स्कूल में, जहाँ वर्मा जी पढ़ते थे, 
						आजकल केंद्रीय विद्यालय है। इस विद्यालय के प्रधानाचार्य 
						प्रमोद कुमार टामटा को पता है कि वे यहाँ पढ़ते थे, उनके 
						पिता सेना में थे और गर्मियों में शिमला राजधानी होती थी 
						इसलिए वे बाद में भी शिमला आ जाते थे। उन्होंने दिल्ली 
						विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातकोत्तर किया। उन्होंने 
						चेक भाषा प्राग चेकोस्लोवाकिया के ओरियंटल 
						स्कूल में पढ़ी जब उन्हें चेक 
						भाषा का हिंदी अनुवाद करने के लिए आमंत्रित किया गया।
 
 शिमला में बिताए गए उनके बचपन के दिन उनकी साहित्यिक 
						रचनाओं में बार बार प्रतिबिंबित होते है। 'लाल टीन की छत' 
						में उन्होंने इस खूबसूरत शहर का वर्णन किया है। 'लाल टीन 
						की छत' वाले जिस मकान का ज़िक्र इस लेख में किया गया है, 
						उसके बारे में विस्तार से बताते हुए वे कहते हैं —
 'वहाँ से तीन पहाड़ एक साथ दिखाई देते थे। दायीं तरफ़ जाखू 
						की चोटी, सामने संजौली का कसबा, इलीशियम राउंड की पहाड़ी जो 
						खींचती हुई कैथू चली जाती। उनके बीच मकान इस तरह बिखरे 
						रहते जैसे किसी ने जल्दी में ताश के पत्तों को बिखरा दिया 
						हो – शाम होते ही वह जगमगाने लगते मानों एक साथ जुगनुओं का 
						लश्कर पहाड़ों पर उतर आया हो – उधर पहाड़ों की ओट में है 
						अनाडेल, जो यहाँ से दिखाई नहीं देता और उधर, उस तरफ़ 
						तुम्हारे बाबू का मकान।'
 
 इस विवरण से साफ़ पता चलता है कि उन्होंने अपने कैथू वाले 
						मकान के विषय में ही यह बातें लिखी हैं। वे शिमला की 
						वादियाँ, धुंध भरी फ़िजाएँ, घने जंगलों के बीच सीटी बजाती 
						ट्रेन, यहाँ की महिलाओं की खूबसूरती का वर्णन करते 
						हैं। उन्होंने घरों से 
						निकलने वाले साँप के आकार के धुएँ, पिघलती बर्फ़ और धूप तक 
						को छुआ है।
 
 उनके लेखन में उनका स्वभाव दिखाई देता है एक सरल और गंभीर 
						व्यक्ति जिसको अपनी सुविधाओं का कोई ख्याल नहीं। हिंदी जगत 
						को एक नवीन शैली देने वाले बाबू जी इतने सरल थे कि आम 
						व्यक्ति यह जान कर अचंभित हो जाता था कि जिससे वह मिल रहा 
						है वह निर्मल वर्मा हैं। टी .वी .टुडे के 'तेज' चैनेल के 
						प्रभारी अमिताभ ने अपनी आत्मीय यादों में लिखा है कि 
						निर्मल वर्मा में भाव विभोर कर देने वाली आत्मीयता थी। 
						रचना जगत के साथ ही उनका इंसानी कलेवर भी बहुत बड़ा था। एक 
						सच्चे रचनाकार होने के साथ ही वे एक बहुत अच्छे इंसान थे। 
						अमिताभ जी उनके किरायेदार रहे हैं, उनका एक प्रसंग दिल को 
						छू जाता है। उन्होंने लिखा है कि – १९९९ में निर्मल जी एक 
						दिन घर के मुआयने पर आए। वे 'अंतिम अरण्य' के दिन थे। उसी 
						के कथानक पर छोटी सी चर्चा के दौरान उन्होंने बेहद संकोच 
						के साथ बताया कि उनके करोलबाग वाले मकान (जिसमें अमिताभ जी 
						रहते थेहृ का सौदा हो गया है और रहने के लिए उन्हें अब 
						सहविकास अपार्टमेंट आना होगा। मकान खाली करने का इतना 
						शालीन और विनम्र आग्रह निर्मल जी 
						जैसा बड़ा इंसान ही कर सकता 
						है।
 
 निर्मल जी के लेखन का प्रारंभ १९५० में छात्रों की एक 
						मैगज़ीन में से हुआ लेकिन पुस्तक के रूप में उनकी पहली रचना 
						१९५९ में 'परिंदे' के रूप में आई और इस रचना ने निर्मल जी 
						को नई पहचान दी। परिंदे के कुछ अंश – एक पगली सी स्मृति, 
						एक उदभ्रांत भावना – चैपल के शीशों के परे पहाड़, सूखी हवा, 
						हवा में झुकी वीपिंग विलोज की काँपती टहनियाँ, पैरों तले 
						चीड़ के पत्तों की धीमी–सी चिर–परिचित खड़–खड़। वहीं पर गिरीश 
						एक हाथ में मिलिटरी का खाकी हैट लिए खड़ा है – चौड़े, उठे 
						हुए सबल कंधे, अपना सिर वहाँ टिका दो, तो जैसे सिमट कर खो 
						जाएगा। चाल्र्सबोयर, यह नाम उसने रखा था वह झेंप कर हसने 
						लगा – 'तुम्हें आर्मी में किसने चुन लिया, मेजर बन गए हो, 
						लेकिन लड़कियों से भी गए बीते हों – ज़रा–ज़रा सी बात पर 
						चेहरा लाल हो जाता है।' यह सब वह कहती नहीं सिर्फ़ सोचती भर 
						थी – सोचा था कभी कहूँगी, वह 'कभी' कभी नहीं आया।
 
 निर्मल जी आठ कहानी संग्रहों, नौ पुस्तकों और पाँच 
						उपन्यासों के रचयिता रहे। उनकी अमर कृतियों में 'परिंदे', 
						'रात का रिपोर्टर', 'अंतिम अरण्य', 'धुंध से उठती धुन', 
						'एक चिथड़ा सुख', 'कौवे व काला पानी', 'कला का जोखिम' आदि 
						खूब चर्चित रहे। कहा जाता है कि हिंदी साहित्य के 
						साहित्यकार हमेशा से नये प्रयोगों से बचते रहे हैं लेकिन 
						निर्मल वर्मा ने इस 
						कमी को पूरा किया। उनकी अदभुद जीवनशैली उनकी रचनाओं में 
						नए–नए प्रयोगों के साथ झलकती है।
 
 वे विश्व की कई भाषाओं में पारंगत थे तो भी उनका हिंदी 
						प्रेम अनन्य था। शिमला के 'इंस्टिटयूट आफ़ एडवान्स स्टडी' 
						में हमेशा अंग्रेज़ी में सेमिनार हुआ करता था। एक सेमिनार 
						में निर्मल जी को बुलाया गया। सभी लोग अंग्रेज़ी में बोल 
						रहे थे जब उनकी बारी आई तो उन्होने कहा कि मैं हिंदी का 
						लेखक हूँ और हिंदी ही बोलूँगा। जबकि सब जानते थे कि उनका 
						अंग्रेज़ी पर भी उतना ही अधिकार था।
 
 निर्मल जी ने १९८० से १९८३ तक भारत भवन, भोपाल में निराला 
						क्रियेटिव राईटिंग चेयर के चेयरमैन के पद पर कार्य किया। 
						उनकी रचना 'भारत और यूरोप' के लिए उन्हें 'ज्ञानपीठ मूर्ति 
						देवी पुरस्कार' से सम्मानित किया गया, १९८५ में उन्हें 
						'कौवे और काला पानी' के लिए साहित्य एकेडमी पुरस्कार दिया 
						गया तथा १९९९ में उन्हें भारत के सर्वोच्च साहित्य 
						पुरस्कार ज्ञानपीठ से अलंकृत किया गया। उनकी रचनाओं का देश 
						विदेश की अनेक भाषाओं में अनुवाद किया गया।
 
 अपने प्रारंभिक दिनों 
						के बाद वे १९८८ से १९८९ तक फिर शिमला में रहे जब उन्हें 
						भाषा एवं संस्कृति विभाग के यशपाल सृजनपीठ के अध्यक्ष का 
						पद दिया गया। इस दौरान वर्तमान साहित्यकारों व रचनाकारों 
						का संपर्क उनसे हुआ लेकिन उनकी सरलता को आज भी भाषा एवं 
						संस्कृति विभाग के लोग याद करते हैं। साहित्यकार श्रीनिवास 
						जोशी बताते हैं कि जब वे निर्मल जी से मिलने दिल्ली गए तो 
						उन्होंने सबसे पहले पूछा – शिमला वाले कैसे हैं और उनके 
						लिए स्वयं कॉफी बना कर लाए।
 
 डा .सुशील कुमार फुल्ल निर्मल जी के निधन को कलात्मक कहानी 
						का अंत कहते हैं। कहते हैं कि मूलतः हिमाचली लेखक होने के 
						कारण हिमाचली लेखकों को बहुत प्रोत्साहित करते थे। भाषा 
						एवं संस्कृति विभाग के साहित्यकार एस .आर .हरनोट ने अपने 
						अनुभव बताते हुए कहा कि वे बहुत सरल थे – एक रोज़ हिमानी 
						रेस्टोरेंट में बैठे थे, हरनोट ने निर्मल जी का फ़ोटो देखा 
						था उन्हें पहचानते हुए उनके पास गए और बोले आप निर्मल जी 
						हैं और अपना परिचय देते हुए कहा कि मैं भी कहानियाँ लिखता 
						हूँ। यह सुन कर वे उठे और हरनोट को गले लगा लिया।
 
 भाषा विभाग के निदेशक 
						डा .प्रेम शर्मा बताते हैं कि जब वे यशपाल सृजनपीठ के 
						चेयरमैन बन कर आए तो उनसे कुर्सी मेज़ की ज़रूरत के बारे में 
						पूछा गया। उन्होंने कहा कि इसकी ज़रूरत नहीं है, बताया कि 
						जब उनके घर जा कर किसी चीज़ की ज़रूरत के बारे में कहा तो 
						बोले कि – सुविधाओं को कम करके चलो स्वतंत्रता को जगह 
						मिलेगी।
 
 साहित्यकार अशेष ने बताया कि उनका सान्निध्य ही एक साधना 
						थी। उनके पास जितनी देर रहते थे ऐसा लगता था सारा माहौल 
						साहित्यिक हो गया है। पुरानी यादों में खोते हुए वे कहते 
						हैं कि शिमला में जब भी उनसे मुलाकात होती, एक हँसमुख 
						चेहरा आत्मीयता से ओतप्रोत आलिंगन करने को बेताब नज़र आता। 
						उन्हें देख कर साहित्यकार होने पर गर्व होता था। एक ऐसा 
						हस्ताक्षर जिसका सानी मिलना कठिन है।
 
 रचनाकार प्रिया आनंद 
						लिखती हैं — उनकी कहानी 'परिंदा' सपनों सरीखी है। कई बार 
						'परिंदा' पढ़ी और आज भी लतिका, मेजर गिरीश, डा .हयूबर्ट 
						नहीं भूले। उनका मानना है कि निर्मल वर्मा जी पाठक को हाथ 
						पकड़ कर जैसे कहानी के पास खड़ा कर देते हैं कि इसे पढ़ो, 
						समझो और जानो कि मैंने क्या लिखा है।
 
 निर्मल वर्मा के निधन से हिंदी साहित्य में एक ऐसा खालीपन 
						आया है जिसे भरना आसान नहीं होगा। दिल्ली के लोदी रोड़ 
						स्थित श्मशान घाट पर जब उनकी पत्नी श्रीमती गगन गिल ने 
						उन्हें मुखाग्नि दी तो कुछ लोगों ने उन्हे आधुनिक सावित्री 
						की संज्ञा दी। उनके परिजन चाहते थे कि उन्हें मुखाग्नि 
						उनकी बेटी पुतुल व दामाद एलेक्स दें लेकिन गगन ने यह काम 
						स्वयं किया। इस मौके पर श्रद्धांजलि देने के लिए साहित्य 
						जगत की नयी और पुरानी पीढ़ी के काफ़ी लोग उपस्थित थे।
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