1
असमिया
नाटकों की विकास यात्रा
- दिनकर कुमार
भारतीय साहित्य में नाट्यशास्त्र को ’’पंचमवेद‘‘ कहा
गया है, कहा जाता है कि ब्रह्मा ने भरतमुनि को पंचमवेद
का दायित्व अर्पित किया था, भरतमुनि ने उस पंचमवेद के
अनुसार देवलोक में प्रथम देवासुर नाटक का मंचन किया और
देवताओं को देवता का और असुरों को असुरों का अभिनय
करने का दायित्व सौंपा, देवताओं के हाथों असुर पराजित
हुए, उसके बाद असुरों ने देवादिदेव महादेव के सामने
अपना क्षोभ जाहिर किया, महादेव ने कैलाश पर्वत पर
विश्वकर्मा से कहकर रंगमंच का निर्माण करवाया और
भरतमुनि को वहाँ बुलाकर ’’विदुरादाह‘‘ नाटक मंचित
किया, उस नाटक में नृत्य न होने के कारण महादेव ने
तांडव नृत्य और पार्वती ने लास्य नृत्य प्रस्तुत किया,
इस नाटक का मंचन स्वर्ग लोक में होता था, बाद में
महाराज नहुष ने स्वर्ग पर कब्जा कर इस नाटक का अभिनय
मर्त्यलोक में भी करने की व्यवस्था की, इस तरह धरती पर
रंगकर्म शुरू हुआ, जिसका उद्देश्य था-दुखी, क्लांत,
उदास, असहाय लोगों को आनंद प्रदान करना, बाद में
नाटकों के विषय को लेकर काफी प्रयोग किए गए, संस्कृत
में अनेकों नाटककारों ने नाटकों की रचना की। धीरे-धीरे
नाटककार की सामाजिक प्रतिबद्धता समझी जाने लगी।
असम में प्राचीनकाल में नाटक का प्रचलन था या नहीं,
इसका कोई लिखित विविरण उपलब्ध नहीं है। १५वीं शताब्दी
में महापुरुष शंकरदेव ने धर्म-संस्कार की भावना से
मनुष्य के नैतिक चरित्र निर्माण हेतु असम तथा बाहर की
लौकिक नाटक कलाओं के साथ-साथ संस्कृत की नाट्यकला का
समन्वय कर नव वैष्णव धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु
एकांकी नाटकों की रचना की जिन्हें ’’अंकीया नाट‘‘ कहा
जाता है। शंकरदेव के प्रमुख अंकीया नाट
है-चिन्हपात्रा, कलिया दमन, पत्नी प्रसाद, केलि गोपाल,
रूक्मिणी हरण, पारिजात हरण, राम विजय, शंकरदेव के
शिष्य माधवदेव ने भी मुख्य रूप से शंकरदेव का आर्दश
सामने रखकर एक नई शैली के नाटक ’’झूमरा‘‘ लिखे जिसमें
नृत्य गीत को ज्यादा महत्व दिया गया, उसके बाद गोपाल
आता, द्विजभूषण, रामचरण ठाकुर, दैत्यादि ठाकुर आदि
अनेक वैष्णव नाटककारों तथा समाधिकारों ने धर्म प्रचार
और कृष्ण भक्ति दर्शाने के लिए अनेक नाटकों की रचना
की, इन सब नाटकों की भाषा असमिया से कुछ अलग ब्रजावली
थी, बाद में अंकीया नाटकों का अभिनय राज दरबारों में
भी होने लगा और नाटक की प्रस्तुति, अभिनय, रचना शैली
आदि में भी बदलाव आने लगा।
असम पर अंग्रजों का अधिकार होने के बाद असम में बंगाली
में बंगाली कर्मचारियों के आने के साथ-साथ बंगाल की
घुमंतू नाटक मंडलियाँ भी असम में आने लगी। इससे असमिया
नाटकों का विकास अवरुद्ध हो गया। शंकरदेव की रंग
परंपरा उपेक्षित होने लगी। समय गुजरने के साथ-साथ असम
के कई प्रतिभाशाली नाटककारों ने नए-नए विषयों को ध्यान
में रखकर नाटकों की रचना की। इस प्रसंग में ज्योति
प्रसाद का अग्रवाल का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता
है, जिन्होंने ’’शोषित कुंवरी‘‘, ’’कारेंगर लिगिरी‘‘
आदि नाटक लिखकर असमिया रंगमंच में प्राण फूँकने का काम
किया। असम के लेखक नए ढंग से पश्चिमी नाटक शैली पर
आधारित नाटकों की रचना करने लगे। पौराणिक पृष्ठभूमि पर
भी अनेक नाटकों की रचना हुई। इस अंचल में राष्ट्रीयता
का प्रभाव बढ़ने के साथ-साथ देशप्रेम से ओत-प्रोत
नाटकों की रचना हुई। सामान्य लोगों के उत्पीड़न जैसे
विषयों पर भी नाटकों की रचना हुई। साम्यवादी दर्शन से
प्रभावित नाटकों के साथ-साथ फ्रायडीय दर्शन के आधार पर
भी नाटक लिखे गए। शंकरदेव के नाटकों की धारा, भाषा,
शैली पीछे छूट गई। राजनीति, धार्मिक पाखंड आदि पर भी
नाटकों की रचना हुई। नई-नई प्रयोगात्मक शैलियों पर
आधारित एपिक नाटक, नुक्कड़ नाटक आदि का सिलसिला भी शुरू
हुआ। रेडियो के विस्तार के साथ ही ध्वनि नाटकों एवं
रूपकों की शैली विकसित हुई।
असम में समाज और विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ लोगों
के चिंतन का क्षितिज व्यापक हुआ। बुद्धिजीवी नाटककारों
और रंगकर्मियों ने दर्शक और पाठक के बदले हुए
दृष्टिकोण के अनुसार मंचीय शैली और अभिनय शैली में भी
परिवर्तन लाना शुरू कर दिया। स्वतंत्रता के बाद आधुनिक
पश्चिमी शैली का प्रभाव असमिया नाटककारों पर बहुत अधिक
पड़ा। उन्होंने अभिनय और प्रस्तुति के क्षेत्र में कई
अनूठे प्रयोग किए।
असम में, वर्तमान समय में रंगकर्म एक आंदोलन का रूप ले
चुका है। छोटे-छोटे कस्बों में भी नाटक संस्थाएँ
सक्रिय हैं। रगंकर्म के क्षेत्र में सशक्त प्रयोग हो
रहे हैं। हालांकि पूरे राज्य के रंगकर्मी स्थायी
रंगमंच की कमी महसूस करते हैं। दूसरी तहफ मोबाइल
थियेटर असम में एक सफल उद्योग बन चुका है। दो दर्जन से
अधिक मोबाइल थियेटर कंपनियाँ हैं, जो वर्ष भर पूरे
राज्य में घूम-घूमकर नाटकों का मंचन करती हैं।
व्यावसायिक कारणों से इन थियेटरों में ऐसे नाटकों का
ही मंचन किया जाता है, जो दर्शकों को ज्यादा से ज्यादा
आकर्षित कर सकते हों। डायना, टाइटेनिक, फूलनदेवी आदि
विषयों पर नाटकों की प्रस्तुति का नया मार्ग चुना है।
कुछ आलोचक मानते हैं कि कलात्मक नाटकों का प्रभाव कम
होता जा रहा है, परंतु यह भी सच है कि सैंकड़ों
रंगकर्मियों को मोबाइल थियेटर से रोजी-रोटी मिल रही है
और राज्य की जनता का व्यापक समर्थन इन थियेटरों को मिल
रहा है। जिस समय उपग्रह चैनलों ने नाटकों के अस्तित्व
के सामने सवालिया निशान लगा दिए हैं। ऐसे समय में असम
में रंगकर्म का माहौल काफी उत्साह जनक है। इस स्थिति
को देखते हुए कहा जा सकता है कि असम में रंगकर्म का
भविष्य उज्ज्वल है।
२९
अक्तूबर २०१२ |