|  | ‘‘हैल्लो!’’‘‘हैल्लो, मैं बोल रई गीता।’’
 ‘‘हाँ-हाँ, बोलो।’’ दीपाली ने उतावली में कहा।
 ‘‘सुन, पंद्रह की है करवाचौथ। अपनी पिंकी की तो पैल्ली करवाचौथ 
					है न, तो साड्डे घर ही सब्ब जुड़ेंगे। हमारी तो तू जानती ही है 
					कि सब सरदार पंजाबियों की ही सोसाइटी है, खूब रौनक होनी है।’’ 
					गीता उत्साह से बोली।
 ‘‘लेकिन गीता, दिल्ली में तो सब सोलह की ही कर रहे हैं।’’ 
					दीपाली ने गीता की वाणी को ब्रेक लगाया।
 ‘‘सुहा, कोलकाता में तो बीस बरस से देख रही है कि सभी त्योहार 
					एक दिन पैल्ले ही होता है और हाँ, पेन-शेन पर्स में रख लेना। 
					बाद में हाउजी के भी एक-दो राउंड हो जाने है।’’
 ‘‘अरे हाँ, अबकी तो तेरी 
					बहू के घर से खूब बायना आया होगा।’’ दीपाली ने अपनी सरल सखी को 
					छेड़ते हुए कहा।
 ‘‘बायना न सुहा, मेरे और दस बारह हजार सुहा हो गए। नवी साड़ी, 
					नवा सूट, झुमके पिंकी को दिए। चल तू जल्दी आना, मिलकर बातें 
					करेंगे।’’
 दीपाली ने फोन रखा और मुसकरा उठी।
 इतने बरस बीत गए, पर गीता नहीं बदली। वही बातचीत—आधी पंजाबी और 
					आधी हिन्दीवाली। बात-बात पर हर अच्छी-बुरी बात के बीच ‘सुहा’ 
					का तकियाकलाम। अब आज ही सुहाग के त्योहार के बीच ‘सुहा’, 
					‘सुहा’ की पुनरावृत्ति।
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