|  | सेंट 
					मार्लिबन क्रैमेटोरियम, जहाँ महावीर शर्मा जी की अंत्येष्टि 
					होनी तय हुई थी, मुझे आसानी से मिल गया किंतु उसका मुख्य द्वार 
					अभी तक बन्द था। यह देखने के लिए कि अन्दर जाने के लिए शायद 
					कोई और द्वार हो, मैं कार को मुख्य सड़क पर आगे पीछे दौड़ा रही 
					थी। यह जगह मेरे लिए नई थी, मुझे जानकारी नहीं थी कि कार को 
					कहाँ पार्क किया जाए। ग्यारह बजने वाले थे और मैं अभी पार्किंग 
					ही ढूँढ रही थी। देर से पहुँचूँगी तो लोग मुझे ऐसे घूर कर 
					देखेंगे कि जैसे मैंने एक बड़े महत्वपूर्ण काम में बाधा डाल दी 
					हो चाहे उनके दिमाग़ों में उस समय मृतक के सिवा कुछ भी घूम रहा 
					हो। दरवाज़ा खुलने की एक हल्की सी चरमराहट से मेहमानों की 
					गर्दनें प्रवेश-द्वार की ओर घूम जाएँगी, मंत्रोचारण करते हुए 
					पंडित जी का ध्यान बँट जाएगा और हर चेहरे पर लिखा होगा, 
					‘लेट-लतीफ’, ऐसे नाज़ुक मौकों पर भी लोग समय पर नहीं आ सकते!’  
					 ख़ैर, तभी 
					मैंने देखा कि एक काले रंग की लिमोसीन आ पहुँची। उसके द्वार पर 
					पहुँचते ही न जाने कैसे क्रैमेटोरियम के दरबान को खबर हो गई, 
					वह झट से प्रकट हुआ और पट से द्वार खुल गए। मैंने बिना सोचे 
					समझे अपनी कार को तेज़ी से घुमाकर मुख्य द्वार की ओर दौड़ा दिया 
					कि कहीं दरबान फिर अदृश्य न हो जाए। इसी भाग-दौड़ में मैं सामने 
					से आती हुई एक बड़ी वैन से टकरा गई। एक ज़ोर का धमाका हुआ, मेरी 
					आँखों के आगे नक्षत्र नाचने लगे...और फिर एकाएक घुप्प अन्धेरा 
					छा गया। शायद मैं बेहोश हो गई थी।  |