मदन मोहन मालवीय
अर्चिक व्यंकटेश
उत्तरी भारत में झांसी के पास ’’मालव‘‘ नामक एक प्रदेश
है। मालवीय जी के पूर्वज मालव में रहते थे। उस समय की
यह परिपाटी थी कि आदमी का नाम उस स्थान या गांव के नाम
पर रखा जाता था, जहां वह रहता था। जब उनके पूर्वज
प्रयाग चले गये तो मालवीयजी ने अपने नाम के आगे लगने
वाले ’’व्यास‘‘ की जगह ’’मालवीय‘‘ लगाना शुरू कर दिया।
मालवीयजी के दादाजी का नाम प्रेमधर मालवीय था। उनका
नाम बहुत प्रसिद्ध था और हर व्यक्ति उनका आदर करता था।
प्रवाह के विरूद्ध
अंग्रेजों को इस देश से भगाने के लिए सन् १८५७ में
नाना साहेब, तात्या टोपे, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने
वीरतापूर्वक युद्ध किया था। किन्तु उन्हें अपने
प्रयत्न में सफलता नहीं मिली। भारत को अंग्रेजी
साम्राज्य का हिस्सा बना बना लिया गया। इसके बाद
भारतीयों के दृष्टिकोण में भारी परिवर्तन हो गया।
पढे-लिखे और मध्यम श्रेणी के लोग अंग्रेजों की नकल
करने लगे। यह परिवर्तन उनके पहनने के कपड़ों, रहन-सहन
और भाषा में हुआ। वे अंग्रेजी में बोलने में गौरव का
अनुभव करते, अंग्रेजों की तरह कपड़े पहनते, और उन्हीं
के रीति-रिवाज पालते। मालवीय के पूर्वजों की श्रद्धा
पुराने काल से चली आई हुई परम्पराओं पर थी। इस प्रकार
वे उस समय के प्रवाह के विरूद्ध थे।
प्रार्थना
पंडित मालवीयजी के पिता पंडित ब्रजनाथजी श्रीमद्भागवत
(श्रीकृष्ण एवं उनके भक्तों की कहानियों का संग्रह) के
प्रवचन से अपना जीवन-निर्वाह करते थे। उनकी आय का और
कोई साधन नहीं था। हम लोग ऐसे त्यागी ब्राह्यणों के
भरण-पोषण की व्यवस्था सरलता से करते रहे हैं ब्रजनाथ
का दृढ विश्वास ईश्वर की इस कृपा में था कि वह उसमें
विश्वास करने वाले को कभी नीचा नहीं देखने देता। इसलिए
ब्रजनाथजी ने अपने भाग्य को भगवान के भरोसे छोड़ दिया
था।
पं. प्रेमधर मालवीय की मृत्यु हो गई थी। उनका धार्मिक
विधि से क्रियाकर्म करने के बाद पं. ब्रजनाथ श्राद्ध
करने के लिए गया पहुंचे। श्राद्ध कर्म पूरा हो जाने के
बाद पुरोहितों ने ब्रजनाथ से इच्छापूर्ति के लिए भगवान
से प्रार्थना करने को कहा। साथ ही उन्होंने यह भी कहा
कि उनकी इच्छा की पूर्ति के लिए वे उन्हें आशीर्वाद
देंगे। पं. ब्रजनाथ ने पूर्व की ओर मुँह किया और हाथ
जोड़कर प्रार्थना की। ’’हे भगवन ! मुझे एक ऐसी सन्तान
दीजिए जिसकी बराबरी करने वाला न तो पैदा हुआ हो और न
आगे हो।‘‘
भाग्यशाली नाम
वह शुभ दिन आया जब पं. ब्रजनाथ की प्रार्थना फलवती
हुई। २५ दिसंबर १८६१ को अहियापुरा में पं. मदन मोहन
मालवीय का जन्म हुआ (यह मोहल्ला अब मालवीय नगर के नाम
से प्रसिद्ध है) माता मूना देवी की कोख से यह पुत्र
जन्मा।
सूर्यास्त का समय था। घरों में दीप जलाये जाने थे कि
अचानक कांसे की थाली की आवाज सुनाई दी। लोगों ने समझ
लिया कि पं. ब्रजनाथ के यहां पुत्र-जन्म हुआ है।
ब्रजनाथ धनी व्यक्ति नहीं थे। सचरित्र, विद्वान होने
के कारण लोग उनका सम्मान करते थे। सब लोग उन्हें प्यार
करते थे। धार्मिक ग्रंथों के भाष्यकार ब्रजनाथजी के घर
के सामने शीघ्र ही आनंदित लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई।
ब्रजनाथजी का घर एक छोटा सा घर था। इसकी दीवारें
मिट्टी की बनी थीं। शुभेच्छा प्रकट करने के लिए आए सभी
लोग बैठ सकें इतनी जगह उसमें नहीं थी। उन सबको मिठाई
बांटी जा सके इतनी शक्ति ब्रजनाथ की नहीं थी। आने वाले
सभी लोगों का उन्होंने हाथ जोड़कर स्वागत किया और उनका
आभार माना। इसके बाद वे सब बिदा हुए।
बालक का नामकरण किया जाना था। यह सुझाया गया कि ’’म‘‘
से प्रारंभ होने वाला नाम शुभ होगा इसलिए ब्रजनाथ ने
तय किया कि ’’मदन मोहन‘‘ नाम रखना ठीक होगा।
बालक मदन मोहन हमेशा प्रसन्नचित्त एवं चंचल रहता था।
बचपन की शिक्षा
पांच वर्ष की उम्र में बालक मदन मोहन की शिक्षा
प्रारंभ हुई।
उन दिनों अहियापुरा में पाठशाला नहीं थी। ’’धर्म
ज्ञानोपदेश पाठशाला‘‘ के नाम से एक पाठशाला हरदेव नामक
विद्वान पंडित चलाते थे। मदन मोहन के पिता एक दिन बालक
मदन-मोहन को शाला में भर्ती करने के लिए पंडित हरदेव
के पास ले गये। पं. हरदेव ने बालक को देखा और कहा
’’ठीक है।‘‘ उन्होंने पूछा-’’क्या बालक कोई श्लोक
जानता है?‘‘
बालक ने कहा-’’हां‘‘।
’’बहुत अच्छा जरा सुनाओ तो, हम सब सुनेंगे‘‘-गुरूजी ने
कहा।
बालक ने गुरूजी के पास जाकर उनके पैर छुए। उसने पिताजी
को झुककर प्रणाम किया और पिताजी द्वारा प्रतिदिन सिखाए
गए सुन्दर श्लोकों को साहसपूर्वक सुनाना शुरू किया।
श्लोक सुनकर गुरूजी प्रसन्न हुए। उन्होंने कोई कविता
गाने के लिए कहा। बालक ने मीठे स्वर में कविता गाकर
सुनाई।
श्लोक और कविता सुनकर गुरूजी बहुत ही प्रसन्न हुए।
उन्होंने बालक के सिर पर हाथ रखते हुए कहा तुम सचमुच
भाग्शाली हो। तुम अपने कुटुम्ब को स्थायी कीर्ति
प्राप्त कराओगे। तुम्हारे कारण तुम्हारा कुटुम्ब महान
बनेगा।
पं. हरदेव की देखरेख में मदन मोहन की शिक्षा प्रारंभ
हुई। उन्हें ’’लघु कौमुदी‘‘ नामक संस्कृत का व्याकरण
ग्रंथ पढ़ाया गया। उन्हें भगवद्गीता, मनुस्मृति तथा
अन्य ग्रंथों के कई चरित्र विषयक श्लोक याद थे।
मदन मोहन जब आठ वर्ष के हुए तो उन्हें जनेऊ पहनाया
गया। उनके आदरणीय पिता ब्रजनाथ ने स्वयं अपने योग्य
पुत्र को पवित्र गायत्री मंत्र पढ़ाया। बालक का उपनयन
संस्कार या जनेऊ उनके गहन अध्ययन के प्रारंभ का तथा
अनुशासनबद्ध जीवन का द्योतक है। गायत्री मंत्र इस समय
पढ़ाया जाता है।
छोटा बुद्धिमान छात्र
बुद्धिमान बालक मदन मोहन सुबह और शाम पूजा-पाठ करने
लगा। पूजा-पाठ करते देखकर मां उसकी पूजा-पाठ की पद्धति
पर आश्चर्यचकित होकर सोचने लगती कि कहीं वह संन्यासी
(धार्मिक साधना करने वाला) न हो जाए। उसे डर था कि
कहीं उसकी नजर उस बालक को न लग जाए। वह उसे नजर न लगे
इसलिए राई नौन उतारती।
बचपन में मदन मोहन बहुत उद्यमी थे। खेल उनका जीवन था।
लाठी या गोलियाँ खेलने लगते तो उन्हें खाने और सोने की
भी सुधि नहीं रहती थी। शारीरिक व्यायाम में वे बड़े
नियमित थे।
मदन मोहन की धर्म ज्ञानोपदेश पाठशाला में सुबह छह बजे
से कार्य प्रारंभ होता था। नौ बजे शाला की घंटी बजती
तब सभी विद्यार्थी इकट्ठे होते। उंची कक्षा के छात्र
जोर से पवित्र श्लोक पढ़ते। अन्य छात्र उसे दुबारा
कहते। इस प्रकार सब विद्यार्थियों को मनुस्मृति,
भगवद्गीता तथा अन्य पुस्तकें पढ़ाई जाती। बार-बार गाने
के कारण ये श्लोक विद्यार्थियों को याद हो जाते।
मैं भाग्यशाली था
मदन मोहन भोजन के विषय में यह कहते थे-
’’जैसा भोजन मैं करता था वैसा तो राजाओं को भी नसीब
नहीं था। राजकुमार तो रसोइयों द्वारा बनाया हुआ भोजन
खाते हैं। क्या रसोइए प्रेमपूर्वक भोजन बनाते हैं?
निश्चय ही नहीं। वे तो केवल अपने वेतन प्राप्ति के लिए
ऐसा करते हैं। किन्तु मैं तो यंत्रवत तैयार किया हुआ
भोजन नहीं खाता। अपने बचपन से ही सयाना होने तक मैं ने
अपनी मां के हाथ का बनाया तथा प्रेमपूर्वक परोसा भोजन
खाया। मेरी मां प्रतिदिन मेरी इच्छा के अनुसार भोजन
बनाती और मुझे खिलाती। इस तरह उसने मेरा पालन पोषण
किया। इस मामले में मैं सचमुच भाग्यशाली और आशीर्वाद
प्राप्त था।
एक नई पाठशाला
मदन मोहन की उम्र के कुछ लड़के तब शाला में उपस्थित
होते थे जब कि अंग्रेजी पढ़ाई जाती थी। उन्होंने यह
देखा और उनकी भी अंग्रेजी पढ़ने की इच्छा हुई। अंग्रेजी
शालाओं में फीस अधिक ली जाती थी। ऐसी शालाओं में भेजने
के लिए क्या गरीब कुटुम्ब इतनी अधिक फीस दे सकते थे?
फिर भी जहां चाह है, वहां राह है। ब्रजनाथ अपने बेटे
की इच्छा समझ गए। स्कूल में उंची फीस की बात सुनकर मदन
मोहन की माता मूना देवी ने अपनी सोने की चूड़ियाँ एक
धनी व्यक्ति लाला गयाप्रसाद के यहां गिरवी रखकर पैसे
प्राप्त किये। पिता ने बालक को शाला में भर्ती करा
दिया।
अंग्रेजी पाठशाला में ’’गोर्डन साहब‘‘ नामक एक शिक्षक
थे। वे बहुत कड़े स्वभाव के थे-ठीक वैसे ही जैसे सेना
में होते हैं।
विद्यार्थियों को शाला में ठीक समय पर
हाजिर होना पड़ता था।
शाला में हाजिर होने के समय तक मदन-मोहन के घर के कभी
भी ताजा भोजन तैयार नहीं होता था। इसलिए उन्हें पहले
दिन बना हुआ भोजन खाकर शाला भागना पड़ता था। उस समय
उनके परिवार की ऐसी दयनीय हालत थी।
यद्यपि दिन बहुत कडे थे फिर भी मदन-मोहन ने हिम्मत
नहीं हारी। थोड़े ही दिनों में अपनी कक्षा में वे
अंग्रेजी लिखने और बोलने में सबसे श्रेष्ठ हो गए। अतः
वे शिक्षक के सबसे प्रिय छात्र बन गए। बालक के घर में सुविधापूर्वक अध्ययन करनेलायक जगह नहीं
थी। गंगाप्रसाद नामक उनके साथ पढ़ने वाला साथी उनके घर
से कुछ कदम दूरी पर रहता था। सूर्यास्त के तुरंत बाद
मदन मोहन हाथ में लालटेन लेकर इस साथी के घर जाते और
वहां पढ़ते। वे दूसरे दिन सुबह वापस लौटते। उन दिनों
इनका यह प्रतिदिन का क्रम था।
पाठशाला से वापस आने पर वे नियमित रूप से अभ्यास करते
थे। जहां सेवा और अनुशासन की आवश्यकता होती, वहां वे
सबसे आगे रहते थे। संगीत के अभ्यास को उन्होंने अपने
को समर्पित किया था। वे बांसुरी और सितार सीखते थे।
सुबह और शाम उनके पिता उन्हें मीरा और सूर के भजन
सिखाया करते थे। गरीबी होने पर भी वे इस प्रकार
सुखपूर्वक दिन बिताते थे।
स्नातक:
सन १८८१ ईस्वी में मदन मोहन ने एफ.ए. परीक्षा पास की ।
ये उस समय म्यूर सेंट्रल कॉलेज के छात्र थे। इस युवक
में ज्ञान की प्यास थी। अतः वह बी.ए. के अध्ययन हेतु
आगरा गये। किन्तु वे परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गए
क्योंकि उनका ध्यान और उनकी शक्ति बहुत सी बातों में
बंट गई थी। सन १८८४ में उन्होंने कलकत्ता
विश्वविद्यालय से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। वे
एम.ए. की उपाधि प्राप्त करना चाहते थे। तथापि वे समझ
गए थे कि परिवार को चलाने में उनके माता-पिता कितना
कठिन संघर्ष कर रहे थे। इसलिए उन्होंने उनको सहायता
पहुचाने के लिए नौकरी करने का निश्चय किया।
बुद्धिमानों का जमघट:
पंद्रह वर्ष की उम्र में ही मदनमोहन को अपने बाबा के
साथ मिर्जापुर जाने का अवसर मिला। वहां कई विद्वान
इकट्ठे हुए थे। इनमें से कुछ के वहां पर विद्वतापूर्ण
भाषण होने वाले थे। जब बालक ने ये वाद विवाद सुने तो
उसकी भी इच्छा बोलने की हुई । उसने एक या दो बार खड़े
होना चाहा। अन्त में उसे मौका मिला। वह खड़ा हुआ और
उसने अपना भाषण अत्यंत सम्मानपूर्ण ढंग से शुरू किया।
वहां इनके संस्कृत में तर्कपूर्ण, मीठे विषय प्रतिपादन
और अनुपम विद्वत्ता ने उपस्थित बड़े बड़े विद्वानों को
आश्चर्य में डाल दिया। उन्होंने इनपर प्रशंसा की झड़ी
लगा दी।
महान पंडित नंद राव सभा के अध्यक्ष थे। मदन मोहन के
रूपरंगए विद्वत्ता, विनय, शालीनता और वक्तव्य ने उन पर
जादू का सा प्रभाव डाला। वे मूक हो गए। उन्होंने अपनी
तीसरी कन्या कुन्दना देवी का विवाह इस युवक से करने का
निश्चय किया। पंद्रह वर्षीय मदन मोहन का विवाह कुंदना देवी
से हो गया। मदन मोहन भी श्रीमद्भागवत के महापंडित और
प्रवचनकार होकर वैसे ही प्रसिद्ध होना चाहते थे जैसे
उनके पिता और दादा हुए थे। जब इन्होंने इसके विषय में
अपनी माता को जानकारी दी तो मूना देवी बोली- ’’तुम
हमारे वर्तमान सुख को जानते हो। जैसा तुम ठीक समझते हो
वैसा करो।’’ मदन मोहन मां की भावनाओं को समझ गए।
उन्होंने चालीस रूपये मासिक की शिक्षक की नौकरी कर ली।
बहुरूपी हीरा:
मदन मोहन जन्मजात कवि थे। जब वे पंद्रह या सोलह वर्ष
के थे उन्होंने कविताएँ करनी प्रारंभ कर दी थी। थोड़े
ही समय में वे केवल कवि ही नहीं प्रसिद्ध कवि हो गए।
आपका कवि नाम ’’मकरन्द’’ था। ’’राधिका रानी’’ आपकी
पहली कविता थी।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की दूसरी सभा कलकत्ता में
हुई थी। जाने माने नेता दादा भाई नौरोजी उस सभा के
मान्य सभापति थे। काफी लोग इकट्ठे हुए थे। उस समुदाय
में अपने शिक्षक की सलाहपर यह नवयुवक मंच पर पहुँच गया
और उसने अपना भाषण शुरू किया। राष्ट्रीय भावना से
ओतप्रोत उस युवक की वाणी गंगा की भांति प्रवाहित हो
चली। सुननेवाले संतुष्ट थे। वे वहाँ बैठे रहे। भाषण
समाप्ति पर सारे श्रोताओं ने तालियाँ बजाई। कांग्रेस
के जनक ह्यूम ने बाद में मदन मोहन के भाषण को
अविस्मरणीय बताया।
इस अधिवेशन में मालवीय जी की भेट महाराजा रामपाल सिंह
से हुई। वे एक दैनिक पत्र ’दि हिन्दुस्तान’ के मालिक
थे। उन्होंने उस दैनिक के संपादक पद का भार स्वीकृत
करने की प्रार्थना की और पत्र की व्यवस्था का सारा
भारी उन्हें सौंप दिया।
अधिवक्ता:
यद्यपि वे जनता की सेवा में लगे हुए थे फिर भी मालवीय
जी सन १८९२ में अलाहाबाद उच्च न्यायालय के एडवोकेट
हुए। थोड़े ही समय में वे प्रसिद्ध वकील बन गए। उनके
आकर्षक और प्रेरक भाषणए सादा और स्पष्ट विश्लेषण और
तर्क तथा गंभीर विद्वत्ता का प्रदर्शन न केवल
न्यायालयों को ही होता था, बल्कि आम सभाओं और
सम्मेलनों में भी होता था।
असाधारण बुद्धिमत्ता, भाषणशक्ति, धैर्य तथा खूब काम
करने की शक्ति उन्हें ईश्वरीय देन थी। वकील के रूप में
वे सरलतापूर्वक घड़ाभर रूपये कमा सकते थे। किन्तु
जीवनभर उन्होंने झूठा और खोखला मुकदमा नहीं लिया। वे
उन मुकदमों में बहस करना और जीतना पसंद करते थे जिसमें
निरपराध और गरीब व्यक्ति फंसे होते थे।
राष्ट्र के शिक्षक
भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में मालवीयजी अदृश्य नींव की भांति थे।
गांधीजी जिस प्रकार ’’राष्ट्र के पिता हैं‘‘ उसी
प्रकार मालवीयजी ’’राष्ट्र के शिक्षक हैं।‘‘
भारत सरकार ने कलकत्ता, मुंबई और मद्रास में सन १८५७
में विश्वविद्यालयों की स्थापना की। ये विश्वविद्यालय
अंग्रेजी विश्वविद्यालयों के आदर्शों के आधार का
अनुकरण करने वाले थी।
पहले कहा गया है कि अनेक भारतीय अंग्रेजी भाषा,
रीति-रिवाज और संस्कृति पर गर्व करते थे। यह भावना
बढती पर थी कि भारतीय सब कुछ तुच्छ है। मालवीयजी जो
प्रमुख विद्वान थे, राष्ट्रप्रेमी थे इस बात के अधिक
इच्छुक थे कि भारतीय संस्कृति उचित सम्मान पाए और
शिक्षित लोग इस संस्कृति को समझें। इस उद्देश्य की
पूर्ति के लिए वे वाराणसी में एक विश्वविद्यालय
स्थापित करना चाहते थे।
विश्वविद्यालय की स्थापना क्या सरल काम है? एक पाठशाला
की स्थापना और उसका संचालन ही तो कठिन है। फिर
विश्वविद्यालय का प्रारंभ करना तब कितना कठिन काम होना
चाहिए? और वह भी तब जबकि अकेला आदमी प्रयत्न करता है।
किंतु ज्ञान की देवी के इस उपासक ने एकबारगी ही सदा के
लिए निश्चय कर लिया था।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इक्कीसवां अधिवेशन बनारस
में हुआ था। गोपाल कृष्ण गोखले उसके मान्य अध्यक्ष थे।
पंडित मालवीयजी ने इस अवसर का लाभ उठाया। उन्होंने
कांग्रेस के ज्येष्ठ नेताओं को इकट्ठा किया और बनारस
में विश्वविद्यालय स्थापित करने की अपनी तीव्र इच्छा
के बारे में उनसे कहा। सभी नेताओं ने हृदय से इस
कल्पना का स्वागत किया। प्रसिद्ध नेता सुनेन्द्रनाथ
बैनर्जी खडे हुए और बोले-’’मैं बनारस हिन्दू
युनिवर्सिटी में तब तक निःशुल्क अंग्रेजी के प्रोफेसर
के रूप में काम करूंगा जब तक कि कोई उपयुक्त विद्वान
नहीं मिल जाता।‘‘
स्थल
आज जहाँ बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी है, वह जमीन प्राप्त
करने के लिए मालवीयजी ने निश्चय कर रखा था। वह जमीन
बनारस के राजा की थी। राजा ने कहा-’’मैं आपको जितना
चाहे उतना रूपया देने को तैयार हूँ लेकिन आप उस जमीन
को न मांगे। मेरा उस जमीन से बहुत लगाव है।‘‘ किंतु
ईश्वर की कृपा से मालवीयजी ने मकर संक्रांति के पावन
दिन दान के रूप में उसी जमीन को प्राप्त कर लिया।
परिवर्तित दानी
फिर अर्थ का प्रश्न उपस्थित हुआ। मालवीयजी ने सारे देश
के दौरे का काम हाथ में लिया। उन्होंने हिन्दू
विश्वविद्यालय के लिए आर्थिक सहायता प्राप्त करना
प्रारंभ किया। जैसे जैसे उनका दौरा आगे बढ़ता था, वैसे
वैसे उनकी झोली भी भरनी प्रारंभ हुई। अपने अर्थ-संग्रह
के दौरान मालवीयजी हैदराबाद पहुंचे। उस समय निजाम वहां
के शासक थे। निजाम को उनके आने के कारण का पता चला।
किंतु मुसलमान होने के कारण हिन्दू विश्वविद्यालय नामक
संस्था को वे दान में धनराशि नहीं देना चाहते थे।
उन्होंने अपना निर्णय स्पष्ट रूप में मालवीयजी तक
पहुँचा दिया। किंतु मालवीयजी निजाम से बिना कुछ लिये
लौटना नहीं चाहते थे।
उसी दिन हैदराबाद में एक हिन्दू धनी का स्वर्गवास हो
गया। उसकी अर्थी बडी धूम-धाम से ले जाई जा रही थी,
उसके प्रशंसक उसके मृत शरीर पर से पैसा बरसा रहे थे।
यह देखकर मालवीयजी ने वह पैसा बटोरना शुरू किया और उसे
एक थैली में इकट्ठा करने लगे। जिन लोगों ने यह देखा,
तो आश्चर्य करने लगे। उन्होंने मालवीयजी की इस क्रिया
में हिस्सा बंटाना शुरू किया। वे भी रूपयों को बटोर कर
मालवीयजी की थैली में डालने लगे। इस प्रकार थैली भर
गई। निजाम ने ये समाचार सुने। उसे इस घटना से थोडी
शर्म महसूस हुइ। इस पर निजाम ने उदारतापूर्वक दान दिया
और उससे उसे बडा सन्तोष मिला
मांगने वालों के सम्राट
मालवीयजी ने अनेकों बार देश की चारों दिशाओं का दौरा
किया। वे हिमाचल से कन्याकुमारी और पेशावर से
ब्रह्यदेश गए। जहां कहीं भी वे गए, उन्हें इस महान
कार्य के लिए बहुत रूपये मिले।
एक बार मालवीयजी ने दरभंगा में श्रीमद्भागवत का प्रवचन
किया। दरभंगा के महाराजा समाप्ति के दिन उपस्थित हुए
थे। जब महाराजा ने मालवीयजी का असाधारण भाषण सुना तो
अत्यंत प्रभावित हुए। उन्होंने न केवल पच्चीस लाख
रूपये बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय को दान में दिए,
वरन् अपने जीवन की अंतिम घड़ी तक इस महान कार्य में
सहयोग देने का वचन दिया। मालवीयजी इससे अत्यंत
प्रभावित हुए और उनकी आंखों से आनंद के आंसू बहने लगे।
दरभंगा के महाराजा ने अपने वचनों को पूरा किया।
मालवीयजी के साथ वे अनेक रियासतों में घूमे और
विश्वविद्यालय के लिए उन्होंने खूब धन इकट्ठा किया।
पंडित मालवीयजी ने देश का दौरा करके एक करोड़ चौंतीस
लाख रूपये इकट्ठे किये और ’’भिखमंगों के सम्राट‘‘ की
उपाधि प्राप्त की। एक बार गांधीजी ने कहा था कि
’’मांगने की कला उन्होंने अपने बड़े भाई मालवीयजी से
सीखी है।‘‘
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय
4 फरवरी 1916 को वसंत पंचमी का शुभ दिन था। बनारस में
उत्सव की सी धूम धाम थी। पवित्र गंगा के किनारे भारत
के तत्कालीन वायसराय और गर्वनर जनरल लार्ड हार्डिग्ज
द्वारा हिन्दू विश्वविद्यालय का शिलान्यास किया गया।
मालवीयजी का दृष्टिकोण था कि वेद, उपनिषद, गीता,
महाभारत, रामायण आदि पवित्र ग्रन्थों का तथा भारतीय
संस्कृति के संस्कार डाले जाने और संस्कृत भाषा के
अध्ययन का महत्व है। उन्होंने जीवन के इन आदर्शो की
पूर्ति के लिए विश्वविद्यालय की स्थापना की थी और यह
उनके जीवन की सांस बन गई थी।
भारतीय संस्कृति का घर
प्रत्येक देश को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके
नागरिकों को गरीबी से पीड़ित नहीं होना पड़ेगा। यह सच है
कि प्रत्येक व्यक्ति उपयुक्त मात्रा में भोजन पाने का,
शरीर को ढंकने के लिए कपड़ों का तथा सुविधाजनक घर का
अधिकारी है। लेकिन केवल कृषि उन्नति में सब प्रकार की
उन्नति की शाश्वती नहीं है। आर्थिक उन्नति की अपेक्षा
चारित्रिक उन्नति अधिक महत्वपूर्ण है। प्रत्येक देश को
अपने धर्म की हमेशा रक्षा करनी चाहिए। यदि आजकल के
युवक उत्तराधिकार में प्राप्त हिन्दू धर्म की रक्षा
नहीं करते हैं तो हमे उन अशिक्षितों द्वारा घिर जाएंगे
जो अपनी शिक्षा का दुरूपयोग करते हैं। परिणामतः धर्म
की पूरी हानि होगी। हमें धर्म को संकुचित अर्थ में
नहीं समझना चाहिए। हमें कर्म का त्याग भी नहीं करना
चाहिए। धर्म को ठीक से समझना हर व्यक्ति के जीवन में
मार्गदर्शक बनता है। भारत की युवा पीढ़ी को भारतीय
संस्कृति को समझना चाहिए। ये मालवीयजी के विचार थे।
इस प्रकार बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय ने हिन्दू धर्म
के द्वारा सिखाए गए मूल्यों की रक्षा करने का साहस
किया।
हमारे युवक उदार शिक्षा ग्रहण करें। साथ ही वे यह भी
सीखें कि अन्य धर्मों की सीख का मूल्य निर्धारण करने
का प्रयत्न करें। मदन मोहन मालवीय के मन में यही इच्छा
थी। यह कहना कोई अंत्युक्ति नहीं है कि बनारस हिन्दू
विश्वविद्यालय उसी इच्छा का मूर्तिमान स्वरूप् है।
आदर्श पत्रकार
मालवीयजी ने अनेक क्षेत्रों में देश की सेवा की। किंतु
शिक्षा के क्षेत्रों में उनकी सेवा अपवाद रूप थी।
लेकिन पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी सेवाएँ कम नहीं
थी।
जब उन्होंने ’’दि हिन्दुस्तान‘‘ का संपादन-भार सम्हाला
तो उन्होंने पत्र के मालिक राजा रामपालसिंह से कहा
था-’’मेरे संपादकीय कार्य में जरा भी हस्तक्षेप नहीं
होना चाहिए। मुझे पूर्ण स्वतंत्रता रहनी चाहिए।‘‘
चूंकि राजासाहब ने इस शर्त को स्वीकार किया और
मालवीयजी को पूरी स्वतंत्रता दी। इसीलिए मालवीयजी ने
संपादन की भारी जिम्मेवारी को स्वीकार किया।
पत्रकारिता के क्षेत्र में उन दिनों पं. प्रतापनारायण
मिश्र और श्री बालमुकुन्द गुप्त बड़े निर्भीक माने जाते
थे। मालवीयजी ने इन पराक्रमी पत्रकारों से निकट की
मित्रता प्राप्त की।
मालवीयजी अनेक छोटे पत्रों के मार्गदर्शक थे। दिल्ली
से प्रकाशित होने वाला एक साप्ताहिक ’’गोपाल‘‘ था। वह
इनकी संरक्षण में था। उसी तरह ये ’’अभ्युदय‘‘ के चालक
प्राण थे जिसका संपादन बाबू पुरुषोत्तम दासजी टंडन
करते थे। मालवीयजी यह कहा करते थे पत्रकार को आदर्श
होना चाहिए। उसे स्वाभिमानी होना चाहिए। और उसमें
सम्मान की भावना होनी चाहिए। उसका महत्व होना चाहिए और
उसमें जिम्मेवारी की भावना होनी चाहिए। वह
चारित्र्यवान हो और सत्य और न्याय का पालन करने वाला
हो। मालवीयजी में एक अच्छे पत्रकार के सभी गुण मौजूद
थे।
मालवीयजी ने दिल्ली का ’’दि हिन्दुस्तान टाइम्स‘‘ खरीद
लिया और उसका बहुत वर्षों तक सफल संचालन किया। जब उनका
समय अन्य कामों में लगने लगा तो उन्होंने यह पत्र एक
संगठन को सौंप दिया। दिल्ली से प्रकाशित होने वाले
’’दि हिन्दुस्तान टाइम्स‘‘ और ’’दि हिन्दुस्तान‘‘
उन्हीं की प्रेरणा के फल हैं।
गोलमेज परिषद में
उन दिनों भारत में अंग्रेजी राज था। अंग्रेजी सरकार
भारत को स्वराज्य देने की बात सोच रही थी। सन १९३१ में
लंदन में दूसरी गोलमेज परिषद हुई। अंग्रेजी सरकार के
साथ बातचीत करने के लिए कुछ भारतीय नेताओं को गोलमेज
परिषद में भाग लेना पड़ा। महात्मा गांधी ने अपने साथ
मालवीयजी को ले जाने का निश्चय किया।
मालवीयजी बहुत धार्मिक वृत्तिवाले थे। जब उन्हें लंदन
जाना पड़ा तो वे अपने साथ पवित्र गंगाजल लेकर
समुद्रययात्रा की तैयारी की।
गोलमेज परिषद में अपनाया गया उनका रूख सदा याद किया
जाएगा। उनकी पुस्तक ’’इंडियन डायरी‘‘ में श्री
मांटुग्यु ने परिषद में मालवीयजी द्वारा अदा की गई
भूमिका की सराहना की है। उसी प्रकार तेज बहादुर सप्रू
ने भी हृदय से मालवीयजी के साहस की प्रशंसा की है। इस
प्रकार मालवीयजी ने प्रमुख राजनीतिज्ञों का मन अपनी
क्षमता द्वारा जीता।
दैनिक चर्या
मालवीयजी प्रतिदिन व्यवस्थित ढंग से काम करते थे।
वे प्रतिदिन सूर्योदय से पहले उषःकाल में उठते थे और
नियमित रूप से कसरत करते थे। नहाने के लिए एकमात्र
देशी साबुन का प्रयोग करते थे। स्नान करने के बाद वे
प्रातःकाल धार्मिक क्रियाएँ करते थे। वे भालपर तिलक
धारण करते। प्रातःकाल की प्रार्थना के बाद वे थोड़ा गरम
दूध पीते। वे सफेद वस्त्र पहनते और पगड़ी बांधते थे।
दोपहर बाद एक से दो तक एक घंटा वे मिलने के लिए आने
वालों से चर्चा किया करते थे।
उनका भोजन कम खर्चीला होता था। मिर्च वाले पदार्थों का
प्रयोग वे नहीं चाहते थे। भोजन करने के बाद वे थोड़ी
देर आराम करते थे। उनके सोने के कमरे में उनके आदरणीय
माता-पिता के बड़े बड़े तल चित्र थे। प्रतिदिन रात को वे
अपने माता-पिता के चित्रों के सामने सिर झुकाते और
ईश्वर को नमन कर सोते।
मालवीयजी जब तक जीवित रहे तब तक वसंत पंचमी (बनारस
हिन्दू विश्वविद्यालय का जन्म दिवस) के दिन जनसाधारण
उनसे मिल सकते थे। वे उन्हें संबोधित करते थे। उनका
भाषण सुनने के लिए हजारों छात्र, शिक्षक, तथा अन्य लोग
इकट्ठा होते थे। मालवीयजी अत्यंत सरल भाषा और सुन्दर
तरीके से बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्देश्य,
भारतीय संस्कृति और धर्म को समझाया करते थे।
अनेक भाषाओं के पंडित
मालवीयजी अनेक भाषाएँ जानते थे। वे अंग्रेजी, हिन्दी,
उर्दू और संस्कृत के असाधारण पंडित थे। जब वे अंग्रेजी
में बोलते थे तो किसी दूसरी भाषा का एक भी शब्द प्रयोग
नहीं करते थे। जब वे संस्कृत बोलना शुरू करते थे तो
ऐसा लगता था मानों उनकी जीभ पर सरस्वती विराज रही हों।
उनका लेखन भी उनके भाषण की ही भांति हृदय को हिला देने
वाला होता था। उनका लेखन, पाठक के हृदय को प्रभावित
करने वाला होता था। संक्षेप में, उनके शब्द मोती होते
थे और लेखन सोना।
एक क्रांतिकारी
यद्यपि प्रथम दर्शन में मालवीयजी जीवन संबंधी पुरानी
मान्यताओं से चिपके हुए आदर्शवादी दिखलाई पड़ते थे फिर
भी वे महान क्रान्तिकारी थे। १३ अप्रैल १९१९ को अमृतसर के (पंजाब) जलियाँवाला बाग
में महान दुर्घटना हुई। एक सभा में उपस्थित असहाय
श्रोतागण गोलियों से भून दिए गए। सरकार की सेना ने
बूढ़े, युवक, पुरूष और स्त्री की समान रूप से निर्मम
हत्या की। यह हत्या, सेना के कमांडर कर्नल डायर का काम
था। इसके कारण सारे देश को धक्का लगा और वह अस्तव्यस्त
हो गया।
जब केन्द्रीय धारासभा की शिमला में बैठक हुई तो
मालवीयजी बड़ी बुद्धिमानीपूर्वक और गहरी भावना के साथ
कत्ल के बारे में छः घंटों तक बोले। धारा सभा के
अंग्रेज सदस्यों ने भी मालवीयजी की वकृत्वशक्ति की
मुक्त कंठ से प्रशंसा की।
प्रादेशिक सरकार असहाय होकर सारी घटनाओं को देखती रही।
जब मालवीयजी ने इन घटनाओं के बारे में सुना तो उन्हें
भारी धक्का लगा। जब उनसे पूछा गया कि उन हिन्दुओं को
कैसे पुनः हिन्दू बनाया जा सकता है कि जिन्हें
मुसलमानी धर्म स्वीकार करना पड़ा तो वे बोले-राम नाम और
गंगाजल ये दोनों पर्याप्त हैं।
हिन्दुओं को संगठित करने के लिए उन्होंने अथक परिश्रम
किया गया था। उसी समय उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के
लिए भी कार्य किया। उन्होंने घोषणा की यदि ’’हरिजनों‘‘
की उन्नति नहीं की जाती है तो भारत कभी तरक्की नहीं कर
सकता। पिछड़ी जातियों, गरीबों, विधवा युवतियों तथा
अशिक्षित ग्रामीणों को ऊपर उठाने के उपायों के बारे
में वे हमेशा चिन्तन करते रहते थे।
यात्रा का अन्त
मालवीयजी पूरे सौ वर्ष जीवित रहना चाहते थे। किन्तु
ईश्वर की इच्छा कुछ और ही थी। नोआखली की भीषण घटनाओं
ने उनके शरीर और दिल को जर्जरित कर दिया। वे उस धक्के
को सहन न कर सके। इस दिमागी गहरे धक्के की स्थिति में
१२ नवंबर १९४६ को पं. मदन मोहन मालवीय का स्वर्गवास
हो गया।
मालवीयजी की शिक्षाएँ
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उस सर्वोपरि में आस्था (विश्वास) रखो। प्राणिमात्र पर
दया करो। गरीब और कमजोरों से सहानुभूति रखो। स्त्रियों
का सदा सम्मान करो। जो दुख में है उनके साथ सहानुभूति
रखो तथा उन्हें यथासंभव हर प्रकार की मदद पहुँचाओं,
किसी के प्रति भी क्रूर मत बनो।
शुद्ध जीवन बिताओ। पवित्र गाय की रक्षा करो। दूसरे के
धन की कामना मत करो। शुभ कामों की अच्छा परिणाम होता
है और बुरों का बुरा।
सदा आत्मविश्वास रखो। दूसरों की बुराई मत करो। जब
मतभेद हो तो दूसरों के विचारों का सम्मान करो।
किसी से डरो मत और न किसी को डराओ।
भारत हमारी मातृभूमि है। इसे भगवान का आशीर्वाद
प्राप्त है और यह पवित्र भूमि है।
न्यायमुक्त और चारित्र्यपूर्ण काम करो।
भारत को हिन्दुस्तान के नाम से भी जाना जाता है। इस
देश में जन्मे लोग भाग्यशाली हैं।
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हिन्दू धर्म महान धर्म है। हिन्दू तत्वदर्शन के अनुसार
देवों ने यह सिद्धांत बनाया है कि मनुष्य को सदा
शुद्धाचरण, भौतिक समृद्धि, आनंद और मुक्ति की ओर ध्यान
देना चाहिए। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मनुष्य
जीवन को चार आश्रमों में विभाजित किया गया है-
ब्रह्यचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और
संन्यास। इनके पालन से मानव जाति का कल्याण हो और
मानवीय सांस्कृतिक मूल्य सदा प्रस्थापित हों।
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यदि मनुष्य अपने ही सुख के लिए जिन्दा रहता है तो वह
जानवरों से अधिक अच्छा नहीं है। उसे अपने देश के लिए,
धर्म के लिए और दूसरों के लिए जिंदा रहना चाहिए। सारे
विश्व में सबसे प्राचीन ज्ञान की राशि वेद हैं। इस
दृष्टिकोण से पश्चिमी विद्वान भी सहमत है। वेद कहते
हैं-ईश्वर के द्वारा विश्व को बनाने से पहले यहाँ केवल
अज्ञान, एकदम अज्ञान था। ईश्वर प्रकाश से प्रेम करता
है। मनुष्य को अपने जीवन और मन में अधिकाधिक प्रकाश
खोजना चाहिए।
५ नवंबर २०१२ |