सप्ताह
का
विचार-
ख्याति नदी की भाँति अपने उद्गम
स्थल पर क्षीण ही रहती है किंदु दूर जाकर विस्तृत हो जाती है।
-भवभूति |
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अनुभूति
में-
मधु भारतीय, प्रदीप कांत, रमणिका गुप्ता, ब्रजकिशोर शर्मा शैदी
और रवींद्र बत्रा की रचनाएँ। |
सामयिकी में-
छब्बीस जुलाई को कारगिल जंग के ग्यारह वर्ष पूरे हुए। इस अवसर पर
ओमकार चौधरी की समीक्षा-
देश ने क्या सीखा कारगिल से। |
रसोईघर से सौंदर्य सुझाव- आँखों के पास गहरे घेरों और सूजन
के लिए खीरे के पतले टुकड़ों को आँखों पर रखकर बीस मिनट आराम
करें, फिर चेहरा धो दें। |
पुनर्पाठ में- विशिष्ट कहानियों के स्तंभ गौरव गाथा के
अंतर्गत १ सितंबर २००२
को प्रकाशित सूर्यबाला की कहानी--
आखिरवीं विदा। |
क्या आप जानते
हैं? भारत में गत पचास वर्षों में सिंचाई कुओं एवं टयूबवेल की
संख्या पाँच गुना बढ़कर १९५ लाख तक पहुँच चुकी है। |
शुक्रवार चौपाल- इस शुक्रवार चौपाल फिर से दुबई के इंटरनेशनल सिटी
में स्थित सबीहा के घर पर जमी। कुछ कारणों से इसकी रपट अभी तक...
आगे पढ़ें। |
नवगीत की पाठशाला में-
कार्यशाला-९ के कमल पर आधारित नवगीतों का प्रकाशन अभी भी
प्रति दूसरे दिन जारी है, अपनी टिप्पणियाँ लिखना न भूलें। |
हास
परिहास
१ |
१
सप्ताह का
कार्टून
कीर्तीश की कूची से |
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इस सप्ताह
समकालीन कहानियों में
भारत
से पावन की कहानी
तेईस साल बाद
मिस अनुरीति,
द्वारा श्री राधा
रमण वर्मा,
सी-१५, पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट क्वाटर्स,
मौरिस नगर, दिल्ली-११०००७ ---
पता हमारा था पर यहाँ अनुरीति कोई नहीं थी। डाकिया मुझसे दस रुपये ले गया था, कहा था, गोवा से
आया है, और इस पर पूरी कीमत का टिकट नहीं लगा है। उसे दस रुपये
देने से पहले मैंने एक बार उसे कहा भी था कि यहाँ कोई अनुरीति
नहीं रहती, पर फिर एक लड़की का नाम देखकर और लिफाफे का पीलापन
और धुँधला चुका पता लिखा देख भीतर अजीब सी उत्सुकता हुई थी और
मैंने पत्र ले लिया था। लिफाफा मैं खोल चुका था। पत्र का
कागज चार तहों में था, जो इतना जीर्ण हो चुका था कि तहों वाले
मोड़ों से फट चुका था और वो चार टुकड़ों में मेरे सामने था।
उसका लिफाफा मेज पर रखा था, जो शायद कभी झक सफेद रहा होगा आज
पीला, भूरा, जर्द था। अलग-अलग टुकड़ों को एक करके मैं पत्र
पढ़ने लगा-... पूरी कहानी पढ़ें।
*
पवन चंदन का व्यंग्य
झाँको, खूब झाँको, झाँकते रहो
*
मधुलता अरोरा की कलम से
कथा यू.के. के सोलह साल
*
शैलेन्द्र चौहान का साहित्यिक
निबंध
साहित्य में वैज्ञानिक एवं
सामाजिक चेतना
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समाचारों में
देश-विदेश से
साहित्यिक-सांस्कृतिक सूचनाएँ |
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पिछले सप्ताह
प्रेम जनमेजय का व्यंग्य
राधेलाल का कुत्ता
*
वरिष्ठ चित्रकार
जे.पी.सिंघल से प्रभु जोशी की भेंट
कला मेरे लिये
कुरुक्षेत्र ही थी
*
नवीन पंत का आलेख
लोकमान्य तिलक की कानूनी लड़ाइयाँ
*
कनीज भट्टी की कलम से
दो विदेशियों की प्रेम कहानी भारत में
*
समकालीन कहानियों में
यू.के.
से महेन्द्र दवेसर की कहानी
सुरभि
कहानियों सी
कहानी नहीं हूँ मैं! मगर कहानी बन गयी हूँ, और कुछ कर नहीं
सकती! जज साहिब ने प्रेस पर से रिपोर्टिंग की पाबन्दी क्या
हटाई, मैं तो वेश्याओं से भी बदतर हो गयी । वेश्याएँ बिकती हैं
तो बन्द कमरों में नग्न होती हैं। मैं तो नंगी की जा रही हूँ
खुले आम– सड़कों पर, दुकानों में, किसी की भी गोद में, मेज़ पर,
बिस्तर में . . . कहीं भी! मैं पढ़ी जा रही हूँ, कही जा रही
हूँ, सुनी जा रही हूँ!! पत्रकार तो वैसे ही बढ़ा चढ़ाकर, नमक
मिर्च लगाकर लिखते हैं। रही सही कसर लोग पूरी कर देते हैं। जितने कलम
उतनी घातें, जितने मुँह उतनी बातें। जब किसी के हाथ में पत्थर
आ जाता है, तो सामने वाला घायल हो जाता है। उसकी हत्या तक हो
जाती है। मैं किसी के हाथ का पत्थर नहीं हूँ जो किसी को चोट
पहुँचा सकूँ। ... पूरी कहानी पढ़ें। |