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 कला 
मेरे लिये कुरुक्षेत्र ही थी वरिष्ठ कलाकार जे.पी. 
सिंघल से प्रभुजोशी की बातचीत
 
 
 घर के जिस हिस्सों में हम 
					बैठे थे, वहाँ छत अपेक्षाकृत कुछ नीची थी और वहाँ से धीमे-धीमे 
					जलती लकड़ियों की आँच-सा तांबई आलोक झर रहा था, जिसमें कभी-कभी, 
					बाहर हीरा-पन्ना मॉल के सामने से गुज़रती सड़क का शोर रूक-रूक कर 
					अंदर आ जाता, जो कमरे की अभिजात खामोशी के बीच विचित्र जान 
					पड़ता। जैसे महानगर की हवा में रहने वाला कोलाहल, अपनी कर्कशता 
					को बाहर छोड़कर, भीतर आते हुए थोड़ा विनम्र हो आया हो। कुछ इस 
					तरह विनम्र, गालिबन, वह ग़लती से उस जगह दाखिल हो गया है, जहाँ 
					उसके आने की मुमानियत थी। बाहर सड़क की ओर खुलने वाली बंद 
					खिड़क़ियों की तरफ मैंने शाइस्तगी के साथ देखा। वे चुप और 
					निरीह-सी लग रही थीं, जैसे कोलाहल को पूरी तरह बाहर रोके रस 
					पाने की जिम्मेदारी निभाने में वे असफल हो गयी है और उस असफलता 
					के लिए क्षमा प्रार्थी हों।
                  
 उन्होंने हस्ब-मामूल इशारा किया तो उनके सहायक ने आवरण हटा दिया। 
					मैंने देखा, उस रौशनी और शोर के बीच एक आदिवासी स्त्री, अपनी 
					अर्द्ध-निर्वसन देह के वैभव को समेटे हुए, चुप-सी खड़ी दूर देख 
					रही है, पता नहीं किसको। उसकी आँखों से देखा जा रहा, हमें 
					दिखाई नहीं दे रहा था। हाँ यदि हमें दिख भी रहा था तो वह था, 
					उसके पीछे खड़ा पतझर का मारा वह जंगल, जो हम से सैकड़ों मील दूर 
					था, जिसमें मैं कभी नहीं गया - और, कदाचित् वे भी कभी नहीं 
					गये, क्योंकि वह तो कहीं था ही नहीं। और, था भी तो सिर्फ उनके 
					भीतर जिसे उन्होंने शनै: शनै: बड़े जतन से अपने घूसर रंगों और 
					ब्रशों के जरिये, बाहर कैनवास पर उकेरा था। जंगल को भी और उस 
					स्त्री को भी, जो अपने आदिम और अनिन्द्य सौंदर्य में आपादमस्तक 
					लथपथ थी।
 
 दरअस्ल, यह उनकी एक अद्वितीय चित्रकृति थी, जिसे उन्होंने कोई 
					चालीस वर्ष पूर्व बनाया था और सन् दो हजार नौ की उस शाम में, 
					उनकी बैठक में उसे पहली बार देख रहा था। बाद इसके उनकी उस बैठक 
					में, सुनहली धूप में बस्तर का हाट लगा, फिर बस्तर के जंगलों के 
					ऊँचे दरख्त के तने का सहारा लिये खड़ी कुछेक आदिवासी कन्याएँ 
					आयीं, फिर सूखी लकड़ियाँ तोड़ती किशोरी - और फिर-फिर करते हुए, 
					थोड़ी देर में उनकी पूरी बैठक भर गयी, जिसमें बस्तर, उड़ीसा और 
					उत्तर-पूर्व के आदिवासी अंचल के बाशिन्दे और उनका भरापूरा 
					दैनंदिन था। कैनवास पर एक नितान्त अलभ्य जीवन और उस जीवन की 
					उदासियाँ और हलचलें। एक बहुत प्रीतिकर चित्रभाषा में दर्ज 
					आदिवासी जीवन का अनूठा आख्यान।
  
 मैं अभिभूत था, क्योंकि जीवन में पहली बार उनकी आदिवासियों पर 
					एकाग्र अनुपम चित्र शृंखला को उसके मूल रूप में देख रहा था। 
					अभी तक मैंने सिर्फ उनके आर्ट पेपर पर रिप्रॉडक्शन नहीं देखे 
					थे। देखते हुए मुझे बार-बार उन्नीसवीं सदी के कई महान 
					यथार्थवादी शैली के चित्रकारों की कृतियाँ याद आती रहीं, जिनकी 
					संसार भर में भूरि-भूरि ख्यातियाँ थीं- और, मेरी आँखों के 
					सामने जो फैला चित्र-संसार फैला हुआ था, वह बताता था कि हमें 
					अपने महानों शिनाख्तें करना नहीं आतीं।
 
 तॉबई-सी फैली वह रौशनी अब मुझे किसी तपस्वी के जलते अलाव से उठती 
					आँच-सी जान पड़ने लगी। वे चित्रकृतियाँ नहीं थीं, 'समय' और 
					'साधना' का हतप्रभ करने वाली तेज और तप्त अग्निबिम्ब थीं, 
					जिनसे एक कला मनीषी का तेजस्वित बाहर आ रही थी। उसी लौ के 
					प्रकाश में, मैं उनके चेहरे पर उभरते-मिटते रंगों की कौंध को 
					पकड़ने की कोशिश करने लगा था। मुझे लगा कि उनसे इस 'रंगोष्म' 
					शाम में कुछ ऐसे सवाल किये जा सकते हैं, जिनके उत्तरों से हमें 
					थोड़ा बहुत उनके उस लम्बे आत्मसंघर्ष का पता लग सके, जिसमें से 
					पिछले पचास साल से वे अनवरत लगे हुए थे।
 
 मैंने उन तमाम कृतियों के बीच घिरे बैठे सिंघल साहब से पूछने की 
					कोशिश में कहा-'भाई साहब, आज कला का बाजार अपने पूरे उफान पर 
					है। छोटा हो या बड़ा, सारे कलाकार अपने काम को तुरत-फुरत बेचने 
					के काम में जुते हुए हैं। हालात यहाँ तक कि एक कलाकार तीस दिन 
					में साठ कृतियाँ बना देता है- और अपनी एकल-चित्र प्रदर्शनी लगा 
					देता है। आप इसको लेकर क्या सोचते हैं ?
 
 'देखो भई, ये स्थिति मुझे थोड़ी विस्मय में तो डालती है, उन्होंने 
					कहा और खुद को छोटे-से सोफे पर व्यवस्थित कर लिया। आवाज में एक 
					इत्मीनान और खुद एतमादी भर आयी। उन्होंने बोलना शुरू किया। 
					क्योंकि, मुझे काम करते हुए कोई पचास साल से ज्यादा ही हो गये 
					हैं, लेकिन मैं अभी तक अपनी एक भी एकल प्रदर्शनी नहीं लगा पाया 
					हूँ- वजह यह कि, मेरा सोचना औरों से थोड़ा-सा भिन्न है। अब युग 
					'हाइपर'-होने व रहने का है। सब कुछ अभी, बिलकुल अभी, या 
					'तत्काल' चाहिए। वह लम्बे और घुमावदार रास्ते को रद्द करता है। 
					मैं कला में शार्टकर्ट को कोई बहुत सम्मान की दृष्टि से नहीं 
					देखता। मैंने अपने काम को पूजा है और इसलिए मेरी निष्ठा 
					'परफैक्टनेस' में है। चाहता हूँ, जो भी काम करूं, उसमें बहुत 
					ईमानदारी से एकाग्र रह कर उसे अपनी अपेक्षित पूर्णता के स्तर 
					पर पहुंचाऊं। मसलन, मेरे 'अमूर्तन' को भी देखकर आपको लगेगा कि 
					यह 'फटाफट' नहीं किया जा सकता। दरअस्ल, एक कृति अपने आप में 
					आपके काम की 'तन्मयता' का सीधा-सीधा वक्तव्य होती है।
 
 जैसे 
इन चित्रों को ही लें, जो आपके सामने हैं, इन्हें देख कर लगेगा कि ऐसा कोई कोई तब 
ही कर सकता है, जब उसने रंग-रेखाओं या कहें कि 'माध्यम' पर पकड़ हासिल करने में जीवन 
का एक बहुत महत्वपूर्ण कालखण्ड बहुत कठिन मेहनत और लगन के साथ गुजारा है। यह एकदिन 
में नहीं आ गया। इसके पीछे जाने कितने सालों की आशा-निराशा और कलागत आत्मसंघर्ष है। 
और चूँकि, मैंने किसी कला संस्थान में अकादमिक रूप से कोई व्यवस्थित शिक्षा-दीक्षा 
नहीं ली थी, इसलिए मेरा संघर्ष औरों की अपेक्षा कहीं थोड़ा ज्यादा जटिल था। यह एक 
अकेले और निहत्थे आदमी की लड़ाई थी। यह ईश्वर की अनुकम्पा थी कि मैंने स्वयं से हार 
नहीं मानी और अपने बनाये रास्ते पर धीरे-धीरे अकेला चलता रहा। मुझे अपने और अपने 
काम पर भरोसा था, क्योंकि मैं अपने काम को प्यार करता हूँ और कठिनाइयों से कतई नहीं 
डरता था।' 
 अब मैं बाजार के प्रश्न पर आता हूँ - भला, आप ही बताइये मुझे कि बाजार कब नहीं रहा 
है ? बाजार तब भी था, लेकिन तब संभावनाएँ कम और चुनौतियाँ ज्यादा थीं। आज की तुलना 
में कुछ ज्यादा ही निर्मम। मैं उस बाजार में कबिरा खड़ा बाजार में की तरह अकेला ही 
था, लेकिन, मेरे हाथ में लकुटिया नहीं बल्कि ब्रश था। वही मेरा अस्त्र था, वही मेरा 
शस्त्र। मेरे लिए वह लगभक कुरूक्षेत्र की तरह का था। उम्र बीस वर्ष की रही थी, 
लेकिन मैं अभिमन्यु नहीं था। आधे-अधूरे ज्ञान के साथ। मेरठ में रहते हुए उस उम्र 
में भी मैंने रंग और रेखाओं पर ऐसा नियंत्रण हासिल कर लिया था कि बीस वर्ष की उम्र 
में मेरी एक चित्रकृति धर्मयुग में प्रकाशित हो गयी। तब धर्मयुग में किसी चित्रकार 
के चित्र को जगह मिलना आसान नहीं था, क्योंकि उस समय के धुरंधर कहे जाने वाले 
चित्रकारों की तादाद कोई कम नहीं थी। और देश की चर्चित पत्रिकाओं पर वे ही छाये हुए 
थ। हिन्दी में तब 'धर्मयुग' देश ही की एकमात्र ग्लैमरस पत्रिका थी। तो उस उम्र की 
यह एक उपलब्धि थी। और इसके पीछे मेरा 'आत्मविश्वास' ही था। मैं उसी के सहारे आगे 
बढ़ता रहा।
 
 आपके साथ कोई और भी था?
 हाँ, मेरे साथ थे मेरे दो दोस्त। एक तो मेरा हीनता बोध। जिसमें शामिल थी कुछ चीजें 
भी - छोटे कसबे से आना। छोटा कद। भाषा का नाकाफीपन। और दूसरा साथी थी-मेरा 'अहम्', 
जिसे दार्शनिक कहते हैं, सुपर-ईगो। मेरे खयाल से मेरे पास मेरा 'सुपरईगो' नहीं होता 
तो मैं आज यहाँ नहीं होता। या कहूँ कि मैं बम्बई की एक 'गलाकाट' स्पध्र्दा वाली 
दुनिया से
  पराजित 
होकर मेरठ लौट गया होता। लेकिन, उस पवित्र-स्वाभिमान ने मुझे हर जगह झुको या गिरने 
से बचाया और इसलिए वह मेरी सांस के एकदम करीब है। मैं अपनी प्राणवायु उसके साथ शेयर 
करता हूँ, क्योंकि जिस दिन मेरा स्वाभिमान दम तोड़ देगा, मैं भी दम तोड़ दूंगा। वह 
मेरे साथ चलता है और जब सो रहा हूँ तो भी वो जागता रहता है। इसे 'घमण्ड' शब्द से 
नहीं जोड़ लीजियेगा। 'घमण्ड' अपनी कमियों और खामियों को जाने बगैर अपना अधिकतम 
मूल्यांकन से आता है, 'स्वाभिमान' अपने सामर्थ्य की सही पहचान से उठता है। मैंने 
उसकी शिनाख्त करना सीख लिया था। वह मेरी कला के भीतर ही था। मैंने उसे हर कीमत पर 
बचाने की कोशिश की, फिर चाहे मुझे कितनी बड़ी क्षति क्यों न उठानी पड़ी हो। इसके कारण 
व्यवसाय की दृष्टि से कई-कई बड़े कहे जाने वाले अवसरों को मैं बेहिचक ठुकरा दिये। आज 
भी जबकि मैं अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में हूँ, जब लोग लड़ाइयों को विराम देते हैं - 
मेरी खुद्दारी मुझे युध्दरत रखे हुए है।' 
इस बीच चाय की ट्रे लेकर उनका सहायक आ गया। पता नहीं उन्होंने कब इसका इशारा किया। 
वे ठिठक गये। बोलते हुए। चुप होने पर मैंने उनके चेहरे की तरफ देखा, तृप्ति और 
अतृप्ति के बीच का कोई रंग था- जो बीच-बीच में चमक उठता था। उन्होंने चाय लेने के 
प्रस्ताव किया और एक और कैनवास को उठा लाये। उस पर लिपटा हुआ कागज हटाते समय उनके 
हाथ ऐसे काँप रहे थे, जैसे कोई मूर्तिमान-रहस्य है और वे उस पर से पर्दा हटा रहे 
हैं। थरथराहट मेरे भीतर भरने लगी थी। 
 सचमुच ही एक साक्षात् विस्मय। देखकर लगा, जैसे एक जीवन में ऐसा काम संभव ही नहीं। 
वाश-तकनीक में रंग और रेखाओं का एक तिलस्म। वह भी कैनवास पर। लग रहा था, जैसे एक 
जगह जो रंग रख दिया, बस वही अंतिम प्रतिपाद्य। चित्रकार की इच्छा के अनुकल। न थोड़ा 
कम, न थोड़ा ज्यादा। जिसने यदि यथार्थवादी शैली में काम करने का थोड़ा भी प्रयास किया 
हो, वह रोमांच में आपादमस्तक डूब जाये। मुझे तअज्जुब हो रहा था कि काम की इतनी 
विविधता और पूर्णता के बावजूद उन्होंने अभी तक अपनी एक भी एकल-प्रदर्शनी कहीं न की।
 
 
  'आपने 
ऐसे अद्भुत 'रचे हुए' को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करने की आप में कभी कोई इच्छा 
जागृत नहीं हुई ?' यह सवाल से ज्यादा जिज्ञासा थी। हाँ, यह हकीकत न केवल आपको, 
बल्कि अधिकांशत: को अचम्भे में डालती है। दरअस्ल, इसकी दो प्रमुख वजहें थीं। एक तो 
मेरे पास काम का इतना अम्बार लगा रहता था कि इसके लिए अलग से कोई समय निकाल पाना 
संभव नहीं था। दूसरे बात जो कदाचित् मुझे और ध्यान देने के स्थगित करती रही - वह यह 
कि मैं जो भी काम करता था, उसके इतनी बड़ी तादाद में रिप्रॉडक्शन्स होते थे कि 
निम्नवित्तीय परिवार का सामान्य आदमी, जो मेरी चित्रकृतियों को 'अफोर्ड' नहीं कर 
सकता, वह उन्हें कांच की सुन्दर फ्रेम में मढ़वाकर अपने घर की बैठक में टांग लेता 
था। अभी भी देश के लाखों लोगों के पास मेरी चित्रकृतियों के रिप्रॉडक्शन होंगे। जब 
मेरी ढाई हजार चित्रकृतियों के कोई पचहत्तर करोड़ रिप्रॉडक्शन हो चुके हैं तो आप 
बा-आसानी अंदाजा लगा सकते हैं कि मैं अधिकतम लोगों तक अपने रचे हुए के साथ अधिकतम 
रूप में पहुंचा हूँ। मैं अपने उन अज्ञात कला प्रेमियों का आभारी हूँ, जो मेरे काम 
को सम्मान और प्रेम देते रहे हैं। 
 मुझे सहसा याद आया कि इन्दौर में कई लोगों ने मुझसे सिंघल साहब के चित्रों की तैल 
रंगों में अनुकृतियाँ तैयार करवायी थीं। मैंने बीच में उसका उल्लेख किया तो 
उन्होंने कहा कि कभी उसकी तसवीर उतार कर लाइयेगा। और मेरे प्रश्न के शेष उत्तर के 
लिए आगे बोले-'वैसे मैंने फरवरी में जीवन में पहली बार अपनी एकल प्रदर्शनी का तय 
किया है। जहाँगीर आर्ट गैलरी की चारों ए.सी. गैलरी बुक कर ली है और ऊपर की भी, जो 
कभी कैमोल्ड गैलरी के नाम से जानी जाती थी। बावजूद इसके मेरा बहुत थोड़ा-सा काम ही 
प्रदर्शित हो पायेगा। मेरा समग्र नहीं। उसके लिए मेरे मन में एक स्वप्न है कि पूना 
में अपने सारे काम को 'सिंघन-स्टूडियो के नाम से एक जगह एकल करके रख दूं, ताकि जो 
भी कोई कला की व्यास लेकर वहाँ आये, उसे एक अपेक्षित तृप्ति दे सकने में मेरी 
कृतियाँ इमदाद करें।'
 
 बाद कहने के वे थोड़े-से कही खो गये- पता नहीं, वे अपने अतीत में लौट गये थे, या 
कृतियों के भविष्य में। पर, कुछ पल वे वहाँ नहीं थे। मेरे साथ उस कमरे में, जहाँ 
उनका वह अमूल्य बिखरा और फैला हुआ था, जिसने मुझे एक अभूतपूर्व विस्मय से घेर दिया 
था।
 
 'आज जिस तरह 'समकालीन' कला अपना मुहावरा नित नये दशा और दिशा बदल रहा है, आपको यह 
देखकर कैसा लगता है ? मैंने एकाएक प्रश्न पूछा तो वे बहुत शांति से बोलने लगे-'कला 
की कोई एक निश्चित बँधी बँधायी परिभाषा, रूपरेखा या स्वरूप नहीं हो सकता। समय के 
साथ बदलता भी है, लेकिन मेरा सोचना है-उसे अपनी परम्परा से एक मजबूत रिश्ता बनाये 
रखना चाहिए। परम्परा से प्रसूत आधुनिकता अपने समय को उसकी समग्रता में पकड़ सकती है।
 '
  जलरंग 
को लेकर आपकी टिप्पणी क्या है?' जलरंग को लेकर मेरे अंदर शुरू से गहरा आकर्षण है। मेरा बहुत सारा काम जलरंग में है 
और मैंने कई चित्र जलरंग में प्रयोग करते हुए बनाये हैं कि वे एक नजर में तैलरंग 
में जान पड़ते हैं। तब ये 'हाई-विस्कोसिट' वाले एक्रिलिक रंग भी नहीं आये थे। मगर, 
बाजार ने जलरंग को हाशिये पर कर दिया है। लोगों के जलरंग को लेकर ये खयाल है कि 
उसकी उम्र अधिक नहीं होती- लेकिन आप मेरा चालीस साल पहले का जलरंग देखें तो लगेगा, 
कल किया है। दरअस्ल, आपको कृतियों की साज-संभाल आना चाहिए। एम.एम. पंडित साहब के 
चित्र देखिए, वे सारे जलरंग में बनाये हुए हैं।
 
 अंत में एक प्रतिक्रिया जानना चाहता हूँ -एस.एम. पंडित के काम के बारे में। मैंने 
देखा, चेहरे से लगा, वे थोड़े उलझ से गये हैं। बोले 'उन पर कभी बहुत इतमीनान से बात 
करेंगे। क्योंकि मैं उनको अपना गुरू मानता हूँ। उनको मैं राजा रविवर्मा से भी ऊपर 
का दर्जा देता हूँ। ठीक है, राजा रवि वर्मा तैल रंग को हिन्दुस्तान में प्रतिष्ठित 
किया। देव-छवियों का एक किस्म का अपने तरह से प्रतिमानीकरण किया, लेकिन उनके सारे 
संयोजन बहुत 'अरेन्ज्ड' लगते हैं। बहुत थियेटरिकल जैसे स्टेज पर कोई अदाकार अपनी 
मुद्रा के साथ उपस्थित है। जबकि, एस.एम. पंडित के रंग-रेखा, कम्पोजिश-ट्रीटमेंट 
एकदम सहज और लगभग अप्रतिम हैं। मुझे लगा वे थक रहे हैं। क्योंकि, अब उनके वाक्य 
छोटे, और पूर्ण विराम बड़े हो रहे थे।
 
 वे उत्तर को स्थगित करते हुए अंदर गये और एक चित्र लाकर उन्होंने मेरे सामने रख 
दिया। वह चित्रकार एस.एम. पंडित की कृति थी। अब वे नहीं बोल रहे थे - वह कृति ही 
बोल रही थी और हम चुपचाप बैठे हुए उस कृति का बोलना सुन रहे थे। कृति के उसके बोलने 
के पीछे सड़क का कोलाहल भी जैसे कहीं दुबक गया था। अब सिर्फ उस कृति को बोलना था। 
चारों तरफ। कमरे में। एक बहुप्रतीक्षित और बहुत शांत स्वरों की सिम्फनी की तरह। पता 
नहीं हम कितनी देर तक उससे चुपचाप सुनते रहें। बाद इसके वे उठे और उस जलरंग कृति को 
अपने साथ लेकर दरवाजे से अंदर चले गये।
 
 
          १९ जुलाई २०१० |