झाँको, खूब झाँको। आदत से
बाज नहीं आया करते। खुद कैसे हो इस बात पर गौर न करो। पड़ौसी कैसा है, इस बात पर
ज्यादा ध्यान दो। पड़ौसी के पड़ौस में क्या चल रहा है, ये भी आपको पता होना चाहिए।
अमेरिका को देखो न पड़ौसी के पड़ौसी के पड़ौसी को भी देख लेता है। ये जो दो-दो दीदे
दिये हैं भगवान ने, ये दूसरों को देखने के लिए ही दिये हैं, खुद को देखने के लिए
नहीं। इनका रुख कभी अपनी तरफ होता है क्या..? खुद को देखने के लिए तो दर्पण भी बाद
में आविष्कृत हुआ और हुआ भी तो झूठ बोलता है। लोग कहते हैं, दर्पण झूठ नहीं बोलता,
पर बोलता है, बाएँ अंग को दायाँ बताता है। ऊपर का नीचे और नीचे का ऊपर बताने लगे,
क्या भरोसा।
बात ताक-झाँक की हो रही थी। दुनिया के वैज्ञानिक अंतरिक्ष में दूरबीन लगाकर झाँक
रहे हैं। देखना चाहते हैं कि कहीं और भी जीवन और सभ्यता है पृथ्वी के अलावा। नये
जीवन और नयी सभ्यता की खोज हो रही है, जैसे यहाँ की सभ्यता कम पड़ गयी हो। सबका
अपना अपना आसमान है, झाँकने में क्या जाता है। मैं इन वैज्ञानिकों के अब तक के असफल
प्रयास से कतई प्रभावित नहीं हूँ। व्यर्थ अरबों फूँक रहे हैं। आने वाले समय में
इससे क्या मिलने वाला है कोई नहीं जानता। जहाँ आधी दुनिया भूख से मर रही हो, वहाँ
अंतरिक्ष में भटकने जैसा काम ही निरर्थक है पर इन्हें कौन समझाए?
दिखावा एक संक्रामक रोग है। किसी ने दूसरे के घर में झाँकना शुरू किया और देर सबेर
दूसरा भी इसकी चपेट में आ ही जाता है। दिखावा और अहंकार ताक झाँक के मुख्य उद्देश्य हैं।
आखिर ताक झाँक स्वयं को दूसरों से बेहतर साबित करने के लिये ही तो होती है।
तुम्हारा सब कुछ खराब, मेरा सब कुछ अच्छा, यह सिद्ध करने के लिए ताक झाँक कर
कूटनीतिक दाँव पेच तैयार होते हैं। ताक झाँक करने वाले प्राणी दो प्रकार के होते
हैं। पहली प्रकार के लोगों में हैं बड़े लोग, बड़े देश और बड़ी सभ्यताएँ तथा दूसरे
प्रकार में एकता कपूर के सिरियलनुमा लोग, जो बिना कारण ताक झाँक में लगे रहते हैं- "ओह तुम चैन से जी रहे हो, हम
तुम्हें चैन से न जीने देंगे।" वाली मुद्रा में।
पहली प्रकार के ताकझाँकी जीव जीवन के विनाश के सभी इंतजाम कर चुके हैं। परमाणु बम
हो या रासायनिक हथियार। वे एक दूसरे की कुशल क्षेम पूछने के लिए चिट्ठी नहीं,
मिसाइल भेजना चाहते हैं। वे देशवासियों का पेट काट-काट कर उन्हीं की मौत का इंतजाम
कर रहे हैं। किसी ने कहा है कि जीना है तो मरना होगा, सो इस प्रकार के ताकझाँकी
जीवों का प्रयास है कि पहले भूखा मर, बच गया तो हथियारों से मर। आखिर जीवन का
लक्ष्य ही तो मरना है। कहावत तो मैं बदलना चाहता था कि जीना है तो मरना नहीं मारना
होगा। कुछ सीख लो दुनिया की बड़ी ताकतों से। अपने देश के नागरिक निराशा और हताशा से भले ही मर रहे
हों अंतर्राष्ट्रीय चैनल पर नर्तकियों के साथ युवक युवतियों को नचाते रहो, कहते रहो
हम समृद्ध हैं।
दूसरी प्रकार के ताकाझाँकी जीवों में महिलाओं की संख्या अधिक होती है। वे निरंतर
इसी प्रयास में लगी रहती हैं कि ताक झाँक द्वारा किस प्रकार दूसरे को बेवकूफ़ बनाकर
धन संपत्ति पर अधिकार जमाया जाए। वे परिवार की किसी भी आदर्शवादी कन्या के पीछे
पड़कर दिन रात ताक झाँक करते हुए उसका जीना हराम कर देती हैं। वे झाँसी की रानी तक
से नहीं डरतीं, अनेक विवाह करती हैं, बहुमूल्य वस्त्राभूषण
पहनती हैं और सिंदूर की एक मोटी रेखा माँग में लगाती हैं। वे न स्वयं चैन से रहती
हैं न रहने देती हैं। वे बंदूक, पिस्तौल आदि चलाने तथा आत्महत्या करने में कुशल होती हैं।
वे साड़ी पहनकर तेज़
दौड़ सकती हैं और एक न एक खलनायक प्रकार के व्यक्ति से दोस्ती किए हुए लगातार ताक
झाँक में व्यस्त रहती हैं।
इसके अतिरिक्त एक प्रकार की
ताकझाँक और होती है जो सुरक्षा के नाम पर की जाती है। कभी दूकान में कैमरा कभी
स्नानागार में कैमरा। कभी समुद्रतट पर कैमरा तो कभी शहर के प्रमुख चौराहों पर। इस
तरह भिन्न भिन्न प्रकार की ताकझाँक के भिन्न भिन्न उपकरण होते हैं। सच पूछिये तो
आजकल के युग में ताकझाँक के बिना जीवन दुर्लभ है। आज की दुनिया में टीवी, कंप्यूटर,
कैमरा, मोबाइल सब जगह ताकझाँक के उपकरण लगे हैं। पुराने ज़माने की छत और
विश्वासपात्र नौकरानी का समय तो अब लद गया। बहुमंजिली इमारतों की दुनिया में न तो
सबके पास खुली छत रही और न ही नौकरों की सुविधा। इस कारण ताका झाँकी और लुका-छिपी
दोनों के उपकरणों का बदल जाना स्वाभाविक ही है।
ताक झाँक के अनेक कारण हो सकते हैं। खोज की स्वाभाविक प्रकृति, राजनैतिक कूटनीति,
परस्पर ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार और धन संपत्ति की इच्छा आदि। खोज की स्वाभाविक
प्रवृति को कारण ताक झाँक करने वालों कुछ नया मिल जाय यह आवश्यक नहीं है। संभव है
सब कुछ पुराना ही पुराना मिले। इस ब्रह्मांड में कहीं और कोई दूसरा अमेरिका इराक
में जूता खाने की जिद कर रहा हो। अफगानिस्तान में मुल्ला उमर को उमर भर तलाशता फिर
रहा हो। पाक में अपनी ही देन लादेन को देखने के लिए तरस रहा हो। हो सकता है उग्रवाद
से त्रस्त कोई भारत भी नजर आये, जो अमेरिका की तरफ ताक रहा हो। हाँ...... क्या
हुक्म है मेरे आका।
राजनीतिक कूटनीति की ताक झाँक को जासूसी कहते हैं। जिसमें सारी ताकझाँक सबूतों को
मिटाने, चुराने और बचाने के काम में आती है। पाकिस्तान को ही देखें अभी तक जितने भी
सुबूत दिये या दिखाए गए हैं, उन सभी से गिलानी जी को "गिलानी" हो रही है और जरदारी
साहब गरदन हिला हिलाकर कह रहे हों कि अमां मियां..... कसाब के अब्बा को तो, कोई
औलाद हुई ही नहीं। और तो और कसाब की तो माँ भी नहीं थी, तो उसका देश कहाँ से होगा।
भारत को और ठोस सुबूत पेश करने होंगे। अब ये मसला ठोसियत पर टिका कर भारत को ठोसा
दिखा दिया जाए, तो कोई अचंभा नहीं।
जहाँ तक परस्पर ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार और धन संपत्ति की इच्छा आदि के कारण होने
वाली ताक झाँक का प्रश्न है वह थोड़ी बहुत समाज में चलती है और दूरदर्शन के नित नये
चैनलों पर जी भर कर। यह ताक झाँक अकसर केवल पर्दे तक सीमित नहीं रहती वहाँ प्रकट
होकर दर्शकों के जीवन का हिस्सा भी बन जाती है। कहा न? यह संक्रामक रोग है।
ऐसा थोथा ही नहीं कह रहा हूँ आँखों देखी कह रहा हूँ। आप और हम कभी टीवी में ताकझाँक
करते हैं तो कभी
कंप्यूटर में। मेरा यह लेख भी तो आप कंप्यूटर की खिड़की में झाँक कर ही पढ़ रहे
हैं। तो फिर ताकझाँक से डराना क्या?
झाँको, खूब झाँको, झाँकते रहो!
२६ जुलाई
२०१० |