साहित्य
में वैज्ञानिक एवं सामाजिक चेतना
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शैलेन्द्र चौहान
भारतीय मानस
तपस्या, हवन, पूजा आदि से ऐसी दैवी शक्तियों तथा असाधारण
सामर्थ्य की अवधारणा करता रहा है जो आज वैज्ञानिक अनुसंधानों
के रूप में हमारे समक्ष भौतिक रूप में विद्यमान हैं। महाभारत,
रामायण आदि प्राचीन ग्रंथों में युद्ध में प्रयुक्त विशेष
अस्त्र शस्त्र जो पारंपारिक अस्त्रों से भिन्न दैवी वरदान के
रूप में प्राप्त होते थे उनकी तुलना आज के अत्याधुनिक अस्त्रों
से की जा सकती है।
इसी तरह रामायण में प्रयुक्त पुष्पक विमान किसी छोटे
हेलीकॉप्टर या हावर क्राफ्ट की तरह लगता है। आकाशवाणी का भी कई
जगह जिक्र आता है कुछ इस तरह जैसे पास ही कहीं से कोई पब्लिक
एड्रेस सिस्टम की तरह उद्घोषणा कर रहा हो। औषधि विज्ञान की तो
ऐसी चमत्कारिक स्थितियाँ हैं कि जीता हुआ व्यक्ति लोप हो जाए,
मरा हुआ पुन: जिन्दा हो जाए, एक शरीर के दो टुकड़े और पुन: दो
के एक हो जाएं। कुल मिलाकर मन्तव्य यह कि विज्ञान, जो कि
यथार्थ और सुविचारित स्वाध्याय तथा मेधा द्वारा नये नये
आविष्कार करता है वह भारतीय प्राचीन ग्रंथों में शक्ति और
वरदान की तरह प्रयुक्त होते हैं।
मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि मनुष्य ने वैज्ञानिक शक्तियों
से काफी पहले ही साक्षात्कार कर लिया था। परंतु उस समय की
सामाजिक व्यवस्था ऐसी थी कि वैज्ञानिक अनुसंधान निहायत
व्यक्तिगत संपत्ति की तरह उपयोग में लिये जाते थे और सारे
चमत्कार राजाओं और राजकुमारों के पास ही रहते थे। भारतीय
प्राचीन साहित्य में इन चमत्कारों और शक्तियों का भरपूर प्रयोग
हुआ है परंतु चँूकि साधारण जन के पास उन शक्तियों के बारे में
जानने का कोई जरिया नहीं था अत: उसने इन्हें चमत्कार के रूप
में ही स्वीकारा।
आज विज्ञान हमारी जीवन शैली का एक अभिन्न अंग है। आज बहुत
कुछ समाज के सामने हैं। यद्यपि आज भी सत्ताधारी वर्ग के
स्वार्थ हैं। सम्पन्नता की जीत है और सामर्थ्य का बोलबाला है
परंतु फिर भी विज्ञान हमारे दैनिक जीवन में एक महात्वपूर्ण
भूमिका का निर्वाह करने लगा है। यातायात के आधुनिक साधन,
प्रौद्योगिकी का विकास, उद्योग धंधे, उत्पादन, बिजली और प्रचार
माध्यम, रसायन एवं औषधि विज्ञान हमारे दैनंदिन जीवन का अंग बन
चुके हैं। जहिर है समाज पर विज्ञान की इतनी बड़ी पकड़ को
साहित्यकार भी नजर अंदाज नहीं कर सकता।
प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से हमारी चेतना को वैज्ञानिक
अनुसंधान प्रभावित कर रहे हैं। अत: साहित्य सृजन को भी वह
प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित कर रहे हैं। हाँ उनका
सीधा-सीधा उपयोग साहित्य में उस तरह स्थूल रूप में संभव नहीं
है कि हमें लगे कि यह साहित्य वैज्ञानिक युग का प्रतिबिम्ब है
अलबत्ता वैज्ञानिक साहित्य अब प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।
विज्ञान और साहित्य के अंर्तसंबंधों की बात जब की जाती है तब
यह ध्यान अवश्य रखा जाना चाहिए कि विज्ञान, विज्ञान है कला,
कला। यहाँ बात मैं अंर्तसंबंधों की कर हूँ स्थूल संबंधों की
नहीं। साहित्य पर विज्ञान का प्रभाव रूपांतरित होकर पड़ता है
सीधा नहीं। हाँ कहीं कभी यदि भावभूमि की जगह दृश्य चित्रण होता
है तब अवश्य वैज्ञानिक उपकरण या ये दृश्य साहित्य में अंकित
होते हैं जिन्हें साहित्यकार देखता सुनता है।
हिन्दी कविता में साठ के दशक में प्रयोगवाद के तहत वैज्ञानिक
चिंतन तथा चित्रण की अनेकों कविताएं लिखी गई परंतु विज्ञान की
मूलभावना को पकड़ने वाले कवि बहुत कम थे। गजानन माधव मुक्तिबोध
उन गिने चुने कवियों में थे जिन्होंने विज्ञान और फैंटेसी के
आधुनिक तथा कलात्मक बिंब और भाव कविता में लिए। उनकी एक कविता
'मुझे मालूम नहीं' में मनुष्य की उस असहायता का चित्रण है
जिसमें वह यथास्थिति तोड़ नहीं पाता। वह दूसरों के बने नियमों
तथा संकेतों से चलता है। उसका स्वयं का सोच दूसरों के सोच पर
आधारित होता है। दूसरों का सोच सत्ता के आसपास का चरित्र होता
है। सत्ता अपने को स्थापित करने के लिए मनुष्य के सोच की
स्थिरीकरण करती है। परन्तु मनुष्य की चेतना कभी कभी चिंगारी की
भांति इस बात का अहसास कराती है कि वह जो सामने का सत्य है
उससे आगे भी कुछ है। संवेदनहीन होते व्यक्ति की संवेदना को वह
चिंगारी पल भर के लिए जागृत करती है।
कोई फिर कहता
कि देख लो-
देह में तुम्हारे
परमाणु केन्द्रों के आसपास
अपने गोलपथ पर
घूमते हैं अंगारे
घूमते हैं इलेक्ट्रॉन
निज रश्मि-रथ पर
बहुत खुश होता हूँ निज से कि
यद्यपि सांचे में ढ़ली हुई मूर्ति में मजबूत
फिर भी हंू देवदूत
इलेक्ट्रॉन - रश्मियों में बंधे हुए
अणुओं का पंुजीभूत
एक महाभूत में
ऋण एक राशि का वर्गमूल साक्षात्
ऋण धन तड़ित् की चिनगियों का
आत्मजात
प्रकाश हूँ निज शूल
गणित के नियमों की सरहदें लाँघना
स्वयं के प्रति नित जागना
भयानक अनुभव
फिर भी मैं करता हूँ कोशिश
एक धन एक से
पुन: एक बनाने का यत्न है अविरत!
(संग्रह : चाँद का मुँह टेढ़ा है, पृष्ठ - ७४)
मुक्तिबोध गणित, भौतिकी और नक्षत्र विज्ञान की बात करते करते
क्रूर व्यंग्य करते हैं उन तथाकथित महापण्डितों पर जो अपने
अहंकार के मद में रूढ़ियों में जकड़े पड़े हैं। इसी में उनका
स्वार्थ पुष्पित पल्लवित होता है। उनका तेज उनका प्रभामण्डल
चकाचौंध तो पैदा कर सकता है पर विकासमान नहीं है और जो अवधारणा
विकासवान नहीं है वह कालान्तर में नष्ट हो जाती है। ऐसी
अवधारणाएं, ऐसी मान्यताएं, ऐसी क्रियाएं जो रूढ़िग्रस्त हैं
अवैज्ञानिक हैं। मुक्तिबोध न केवल विज्ञान तथा वैज्ञानिक
शब्दावली का चमत्कृत कर देने की हद तक उपयोग करते हैं बल्कि
वैज्ञानिक बिम्बों तथा प्रत्ययों के माध्यम से अवैज्ञानिक सोच
की निडर होकर तीव्र भर्त्सना भी करते हैं। मनुष्यता की वकालत
समाज की बुराइयों तथा सड़ांघ को मिटाने का आवाहन करते हुए वह
कहते हैं :-
भागो लपको, पीटो-पीटो
कि पियो दुख का विष
उस मनुष्य-आमिष-आशी की
जिह्वा काटो
पियो कष्ट, खाओ आपत्ति-धतूरा, भागो
विश्व तराशो, देखो तो उस दिशा
बीच सड़क में बड़ा खुला है
एक अंधेरा छेद
एक अंधेरा गोल-गोल
वह निचला-निचला भेद,
जिसके गहरे-गहरे तल में
गहरा गन्दा कीच
उसमें फँसो मनुष्य
घूसो अंधेरे जल में
-गन्दे जल की गैल
स्याह भूत से बनो, सनो तुम
मैन-होल से मनों निकालो मैल
(भूरी भूरी खाक धूल, पृष्ठ-७५)
मुक्तिबोध की कविता 'भविष्यधारा' की इन पंक्तियों में एक
बड़े सीवर का चित्र है। मनुष्यता, मानवीय गुण, परोपकार की
भावना, सामाजिक सरोकार लगता है जैसे एक बड़ी सीवर लाइन की
तलहटी में समा गये हैं। मूल्यहीन समाज, चारों तरफ फैला गहन
अंधकार, अनाचार यह सब कैसे साफ होगा इसके लिए ' मैन होल' से
सीवर लाइन में घुसना होगा, भूत की तरह बनना और सनना होगा कीचड़
में तभी मनों मैल निकल पायेगा।
समाज में व्याप्त बुराइयों, असंगतियों, विसंगतियों को आसानी
से तो कदापि नहीं मिटाया जा सकता। उसके लिए तो बहुत बड़े
प्रयत्न की आवश्यकता है, लगन की आवश्यकता है, इच्छाशक्ति की
आवश्यकता है। महज रोते रहने से ही तो समाज में व्याप्त असमानता
और असहजता दूर नहीं हो सकती। उसके लिए पौरूष, सामर्थ्य और
मनोबल वांछित है तभी मैल निकाला जा सकता है। यह कार्य इतना
आसान नहीं है इसमें बहुत लोगों को लगना होगा। यह वैज्ञानिक सोच
की परिणति है अन्यथा बड़े इत्मीनान से कोई गीत गा सकता है कि
सुबह जरूर आयेगी सुबह का इन्तजार कर। यानि सब कुछ भाग्य पर
छोड़ दो। कभी न कभी बुराइयाँ भी दूर हो ही जायेंगी चाहे तब तक
मनुष्यता ही विनाश के कगार पर पहँुच जाये।
निश्चित रूप से वैज्ञानिक सोच और उसकी साहित्यक परिणति ही
साहित्य की वह लोकमंगला धारा है जिससे मनुष्य विकासकामी और
प्रगतिकामी बनता है अन्यथा अर्नगल, दिशाहीन और अस्पष्ट साहित्य
यथार्थ से कोसों दूर मानव को कूप मण्डूक बनने में ही मदद करता
है। यह अवैज्ञानिक साहित्य होता है जो कुण्ठाओं, विकृतियों और
दृष्टिहीनता से भरा होता है। वैज्ञानिक सोच न केवल तर्कों पर
आधारित होता है बल्कि यथार्थ, भौतिक प्रयोग तथा गणितीय और
सांख्यकीय निष्कर्षों पर आधारित होता है। साहित्य के संदर्भ
में ये निष्कर्ष सीधे गणितीय तथ्यों पर आधारित नहीं माने जा
सकते। मनुष्य की अपनी एक जैविक पहचान है वैचारिक अस्मिता है।
और अपने सहधर्मी, सहयोगी तथा सहकर्मी के ऊपर आश्रित होने का,
विश्वास करने का, उससे स्नेह करने का भावनात्मक, और वैचारिक
आधार भी है। अत: वैज्ञानिक साहित्य की अवधारणा विज्ञान की
शब्दावली, नियम या तथ्य मानने और उन्हें साहित्य में उतारने की
कतई नहीं है यह तो मात्र एक विषय है। इससे कहीं आगे वैज्ञानिक
साहित्य विज्ञान सम्मत यथार्थ और आदर्श तथा मानवीय संबंधों की
भावभूमि पर ही रचा जा सकता है। मानवीय गरिमा, मानवीय चरित्र का
उदात्तीकरण और लोकमंगल मोटे मोटे प्रत्यय है जो वैज्ञानिक
साहित्य में समाविष्ट होते हैं। इन्हें जितनी अधिक कलात्मकता
और अनुभूति की प्रगाढ़ता से साहित्य में उतारा जा सकता है वही
साहित्यकार की सफलता का मानदण्ड होता हे।
वैज्ञानिक साहित्य का एक स्थूल पक्ष भी है यथार्थ, और उसका
वैचारिक चित्रण जैसे कि रिपोर्ताज, डायरी, लेख, राजनीतिक आलेख
इत्यादि। हिन्दी के आधुनिक साहित्य में यह सब विविध आयम आज
परिलक्षित होते हैं। स्व. रघुवीर सहाय एक अच्छे कवि रचनाकार तो
थे ही वह एक अच्छे सम्पादक तथा अखबारनवीस भी थे। उनके
रिपोर्ताज शैली में कुछ लघु निबंध संकलित हैं 'भँवर, लहरें और
तरंग' नाम से उसका अन्तिम निबंध है, 'रोटी का हक'। वैज्ञानिक
विचार मंथन की एक साहित्यिक प्रस्तुति यह भी है -
"पिछले कुछ वर्षों में कुछ एक झूठ चारों तरफ फैले हैं उनमें
से एक हैं कि जनता को सबसे पहले रोटी चाहिए। यह कथन झूठ इसलिए
है कि यह रोटी को पहले रखकर बाकी चीजों को बाद में रखता है।
बताता नहीं कि बाकी चीजें क्या है। भ्रम पैदा करता है कि जब
पहले रोटी आ जायेगी तो बाकी चीजें भी अपने आप पैदा हो जायेंगी।
माने रोटी और बाकी चीजें अलग-अलग दो बातें हैं और कुल मिलाकर
यह सिद्धांत फैलता है कि रोटी पैदा करने के साधन पर जनता का
अधिकार आवश्यक नहीं। उसे रोटी दे दी जाती है यही लोकतंत्र है।
यह लोकतंत्र नहीं है रोटी और रोटी पैदा करने का अधिकार दो
अलग अलग चीजें नहीं है। रोटी पैदा करने के साधनों पर अधिकार
जीवन में पूरा हिस्सा लेने का राजनैतिक अधिकार है। और लोकतंत्र
उस अधिकार पर अधिकार रखने की आजादी का नाम है। रोटी देने की
धारणा सामंती और लोकतंत्र विरोधी धारणा है क्योंकि वह साधनों
पर अधिकार मुठ्ठी भर लोगों का ही रखना चाहती है।"
(३ दिस. १९७४)
इस निबंध की भाषा थोड़ी अटपटी है परंतु इसके तर्क और मंतव्य
निश्चित रूप से विज्ञान सम्मत है। विश्लेषण और उदाहरण दोनों
यहाँ हैं अत: यह विज्ञान का ही साहित्य पर प्रभाव प्रमाणित
करता है। तमाम विश्लेषण और सोच विचार के बाद रचनाकार का सोच और
उसके मनोभाव एक ऐसी आधारभूमि को तलाश लेते हैं जो उसे सही और
श्रेष्ठ प्रतीत होती है। यहाँ रचनाकार एक निस्संग और निष्प्राण
दृष्टा की तरह चुप नहीं बैठा रहता बल्कि वह अपनी भूमिका तय कर
लेता है और वह पक्षधरता के साथ सृजन करता है। विचार और वैचारिक
पक्षधरता, विश्लेषण और निष्कर्ष की वैज्ञानिक विधि का अनुसरण
करते हैं यथा सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता 'धूल' का उदाहरण
लें :-
तुम धूल हो
पैरों से रौंदी हुई धूल
बेचैन हवा के साथ उठो
आँधी बन उनकी आँखों में पड़ो
जिनके पैरों के नीचे हो
यह पक्षधरता दलित और शोषित के प्रति ही क्यूं है? क्योंकि
समाज में मनुष्य और मनुष्य के बीच एक बहुत बड़ी दूरी है। एक
शोषित है दूसरा शोषक। वैज्ञानिक साहित्य मानव की बराबरी की
वकालत करता है। वह आँख बन्द करके रूढ़ियों का अनुसरण नहीं करने
देता वह चेतना को जागृत करता है। और कवि धूल को आँधी के साथ
उड़ने की स्वाभाविक क्रिया और उसकी परिणति से आगाह कराता है।
पक्षधरता के बाद प्रतिबद्धता भी वैज्ञानिक विचारधारा की
अनुगामिनी हुई है। यह प्रतिबद्धता किसी द्रोणाचार्य की कौरवों
के साथ प्रतिबद्धता नहीं है। न ही सत्ता की इजोरदार, अपराधी
तत्वों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और खुले बाजार के लिए
प्रतिबद्धता है क्योंकि विनाश और विकास दोनों ही विज्ञान ने
आसान बनाए हैं। आज भारतीय राजनीतिक सत्ता विनाश की प्रतिबद्धता
से संचालित है परंतु एक रचनाकार की प्रतिबद्धता मानव के
अस्तित्व, बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय तथा सृष्टि के कल्याण की
प्रतिबद्धता है। मूल्यहीनता, दृष्टिहीनता और स्वार्थलिप्सा के
प्रति नहीं। जनकवि 'शील' की प्रार्थना के साथ कि ' हे दिशा
सर्वहारा विवेक' वैज्ञानिक चिंतन और साहित्यिक सरोकारों की
कुंद पड़ी चेतना को झंकृत करने की आवश्यकता है :-
पद-दलित देश कुचला जन-बल, दल-बदलू
शासक, पतन प्रबल
चर्चित कानूनी सन्निपात, बढ़ रही
भेड़ियों की जमत
सोचो! यह किसकी राजनीति
यह लूट, अपहरण, बलात्कार
है किस दर्शन के चमत्कार?
किन मानव मूल्यों का प्रतिफल
दे रहे इज़ारेदार सबक
महंगाई दिन दिन आवश्यक
तब लोग किस तरह पेट भरें
किस तरह जियें किस तरह मरें?
विज्ञान और साहित्य का अंर्तसम्बन्ध शरीर और आत्मा का
अंर्तसम्बन्ध है। वह मन और शरीर के सम्बन्ध से भिन्न है वहीं
आत्मा और परमात्मा के रहस्यवादी सम्बन्धों से भी इसका कोई मेल
नहीं। आज जब विज्ञान ने मनुष्य की प्रवृत्ति पर विजय के रूप
में अपनी ध्वजा लहरााई है यहीं वह कई तरह से-अभिशाप बनकर भी
उभर रहा है। परमाणु अस्त्र, रासायनिक एवं जैविक अस्त्र तथा
बहुत सी अन्य आपदाओं का जनक भी है विज्ञान। साहित्य विज्ञान की
इस अच्छाई बुराई को आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित कर मानव की
सौन्दर्यदृष्टि को निरंतर निखारने का यत्न करते रहने की
जिम्मेदारी से निश्चित ही नहीं बच सकता। स्वस्थ मूल्य, स्वस्थ
वातावरण और स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए स्वस्थ वैज्ञानिक
साहित्य आवश्यक है। |