२३ जुलाई
जन्मतिथि के अवसर पर
लोकमान्य तिलक
की कानूनी लड़ाइयाँ
--नवीन पंत
लोकमान्य
बालगंगाधर तिलक आजीवन कानूनी लड़ाइयों में व्यस्त रहे। उनके
विरूद्ध सरकार ने राजद्रोह के तीन मुकदमे चलाए। लोकमान्य ने
सन १९१५ में लंदन टाइम्स के सर वेलेंटाइन शिरोल के विरूद्ध
मानहानि का मुकदमा दायर किया। स्वयं उनको मानहानि के एक
मुकदमे का सामना करना पड़ा। लोकमान्य ने अपने तीन मित्रों के
विरूद्ध चलाए जा रहे मुकदमों में उनकी हर तरह से सहायता की।
इनके अलावा, लोकमान्य को ताई महाराज मुकदमे में लगभग तीन वर्ष
तक रोज अदालत के चक्कर लगाने पड़े। इन मुकदमों में, जो लोग
लोकमान्य के वकील थे, वे बाद में इंग्लैंड के प्रधानमंत्री,
विदेश मंत्री और पाकिस्तान के गवर्नर जनरल बने।
लोकमान्य
स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी थे। उन्होंने ही कहा था -
'स्वतंत्रता मेरा जन्म-सिद्ध अधिकार है और मैं उसे प्राप्त
करके रहूँगा।' लोकमान्य चोटी के विद्वान, प्रतिष्ठित लेखक और
मुंबई विधान परिषद के सदस्य भी रहे थे। वे मराठी साप्ताहिक
'केसरी' के मुद्रक, प्रकाशक और संपादक भी थे। 'केसरी' उस समय
भारतीय भाषाओं में सबसे अधिक बिकनेवाला अखबार था। 'केसरी' के हर
अंक में ब्रिटिश सासन की अन्यायपूर्ण शोषण करने वाली और
भेदभावपूर्ण नीतियों की कठोर आलोचना रहती थी।
अँगरेज सरकार
लोकमान्य को देश में चल रहे क्रांतिकारी आंदोलन का
प्रेरणा-स्त्रोत मानती थी। उसने उन पर सन १८९७ और १९०८ में
राजद्रोह के मुकदमे चलाए। पहले मुकदमे में लोकमान्य की जमानत की
अरजी को न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानाडे ने अस्वीकार और बाद
में न्यायमूर्ति तैयबजी ने स्वीकार किया। इस मुकदमे को मुंबई
का कोई अँगरेज बैरिस्टर अपने हाथ में लेने को तैयार नहीं था।
गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के प्रयासों से कलकत्ता के दो
अँगरेज बैरिस्टर गार्थ ओर पुघ उनका केस लेने को तैयार हुए। इस
मामले में लोकमान्य के वकील दावर थे।
इस मुकदमे में
लोकमान्य को डेढ़ वर्ष की सजा हुई। इस मुकदमे का फैसला जूरी की
सहायता से किया गया था। जूरी के नौ सदस्यों में छह यूरोपियन और
तीन भारतीय थे। जूरी ने इसी अनुपात में लोकमान्य को दोषी पाया।
इस मामले की अपील प्रिवी काउंसिल में भी की गयी। प्रिवी काउंसिल
में लोकमान्य के वकील एसक्किथ थे, जो बाद में ग्रेट ब्रिटेन के
प्रधानमंत्री बने। लोकमान्य को प्रिवी काउंसिल से तो न्याय
नहीं मिला, लेकिन भारत विद्याविद् मैक्समूलर सहित अनेक
विद्वानों ने ब्रिटेन की सरकार से अनुरोध किया कि लोकमान्य जैसे
विद्वान को जेल में रख्ना उचित नहीं है। अत: उन्हें सजा की
अवधि पूरी होने से पहले छोड़ दिया गया।
ताई महाराज का केस
पहले मुकदमे से छूटने के बाद लोकमान्य को एक और मुकदमे में
उलझना पड़ा। इसे 'ताई महाराज का केस' कहा जाता है। लोकमान्य को
पुणे के एक प्रमुख सरदार श्री बाबा महाराज ने अपनी मृत्यु से
पहले अपनी जागीर के चार ट्रस्टियों में से एक प्रमुख ट्रस्टी
बनाया था। बाबा महाराज की विधवा ताई महाराज ने कुछ लोगों के
बहकावे में आकर लोकमान्य पर अनर्गल आरोप लगाकर मुकदमा चला दिया।
यह मुकदमा मई, १९०१ से मार्च १९०४ तक चला। इस मामले में सरकार की
नाराजगी और एक ओरत की स्वार्थलिप्सा के कारण लोकमान्य को बहुत
परेशानी का सामना करना पड़ा। इस केस की १६० पेशियाँ हुईं और
लोकमान्य को लगभग सभी पेशियों में अदालत में पेश होना पड़ा। इस
केस में पुणे के जिला जज एस्टन का रवैया बहुत ही अनुचित रहा।
उन्होंने लोकमान्य को हर तरह से परेशान करने का प्रयत्न किया।
अंत में मुंबई उच्च न्यायालय ने इस मामले में लोकमान्य को
ससम्मान रिहा किया।
लोकमान्य के विरूद्ध राजद्रोह का दूसरा मुकदमा 'केसरी' में
प्रकाशित दो लेखों के लिए चलाया गया था। लोकमान्य की ओर से
बैरिस्टर एम.ए. जिन्ना ने उनकी जमानत की अरजी पेश की। जमानत के
आधार पर न्यायमूर्ति तैयबजी का जमानत संबंधी निर्णय था।
न्यायमूर्ति दावर ने न्यायमूर्ति तैयबजी के आदेश को पलटते हुए
जमानत नहीं दी। इस मुकदमे में 'केसरी' में प्रकाशित मराठी लेखों
का अंगरेजी अनुवाद जूरी के सदस्यों के सामने रखा गया। लोकमान्य
के अनुसार अनुवाद गलत और भ्रामक था। लोकमान्य ने अपने बचाव की
जिरह में यह सिद्ध कर दिया कि अनुवाद ठीक नहीं किया गया है
लेकिन, अदालत ने सरकारी अनुवाद को ठीक माना। लोकमान्य ने अपने
बचाव में पॉंच दिन तक अपना पक्ष्ा रखा। उनका वक्तव्य अनेक
दृष्टियों से ऐतिहासिक है। उन्होंने अपने वक्तव्य में अनेक
कानूनी मुद्दे उठाए और अभियोग पक्ष द्वारा की जा रही अनेक
अनियमितताओं की ओर अदालत का ध्यान आकृष्ट किया। मुकदमे की
सुनवाई जूरी की सहायता से की गयी। जूरी के सदस्यों में सात
यूरोपियन और दो भारतीय थे। सभी यूरोपियन सदस्यों ने लोकमान्य
को दोषी और भारतीयों ने निर्दोष पाया। उन्हें छह वर्ष के
निर्वासित कारावास की सजा सुनायी गयी। उन्हें बर्मा के मांडले
में निर्वासित किया गया। इससे कुछ वर्ष पहले बर्मा के अंतिम नरेश
को महाराष्ट्र के रत्नागिरि में निर्वासित किया गया था।
इस मुकदमे के बारे में भी कुछ बातें बड़ी विचित्र हैं। इस मुकदमे
में लोकमान्य के पहले मुकदमे के वकील बैरिस्टर दावर के पुत्र
जुनियर दावर लोकमान्य के वकील थे। बैरिस्टर दावर स्वयं मुंबई
उच्च न्यायालय के न्यायाधीश हो गए थे। लोकमान्य के मुकदमे की
सुनवाई उन्हीं की अदालत में हुई।
फैसले के विरोध
में
मुकदमें के
आठवें दिन सायंकाल न्ययाधीश ने मुकदमे का निर्णय सुनाने की
घोषणा की। सायंकाल सात बजे से ही लोग अदालत के बाहर एकत्र होने
लगे थे। न्यायालय के दरवाजे बंद कर दिये गए और सड़क पर भारी
संख्या में साधारण और घुड़सवार पुलिस तैनात कर दी गयी थी।
लगभग रात नौ बजे जूरी द्वारा अपराधी घोषित किये जाने के बाद
न्यामूर्ति दावर ने लोकमान्य को छह वर्ष के निर्वासित कारावास
और एक हजार रूपए जुरमाने की सजा सुनायी। थोड़ी देर में एक मुंह
से दूसरे मुंह होती हुई यह खबर बाहर पहुंच गयी। लोकमान्य को
पिछले दरवाजे बाहर निकाला गया। पुलिस के भारी बंदोबस्त के कारण
रात को तो कोई प्रदर्शन नहीं हुआ लेकिन, अगले दिन सुबह जो
प्रदर्शन, हड़ताल, उपद्रव शुरू हुए वे छह दिन तक चलते रहे। सरकार
को स्थिति पर नियंत्रण करने के लिए सेना बुलानी पड़ी। अनेक
स्थानों पर सेना और पुलिस ने गोलियाँ चलायीं।
इसमें पंद्रह लोग मारे गए और ३८
घायल हुए।
न्यायमूर्ति दावर सन् १८९८ के मुकदमे में लोकमान्य के वकील थे।
मुकदमे के दौरान उन्होंने लोकमान्य के प्रति जिस भाषा का
प्रयोग किया, वह उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश
न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती के शब्दों में 'असामयिक, असंयत और
न्यायिक संयम एवं गरिमा से रहित थी।' क्या न्यायमूर्ति दावर
यह सिद्ध करना चाहते थे कि वे सरकार के प्रति अंगरेजों से अधिक
वफादार हैं?
जूरी द्वारा घोषित किये जाने पर जब अदालत ने लोकमान्य से पूछा
कि क्या उन्हें कुछ कहना है तो उन्होंने कहा, 'मैं केवल इतना
कहना चाहता हूँ कि जूरी के निर्णय के बावजूद मेरा दावा है कि मैं
निर्दोष हूँ। एक सर्वोच्च शक्ति है, जो हमारी नियति का निर्धारण
करती है और यह ईश्वर की इच्छा हो सकती है कि मैं जिस उद्देश्य
का प्रतिनिधित्व करता हूँ वह मेरे मुक्त रहने की अपेक्षा मेरे
बंदी रहने और तकलीफ उठाने से अधिक फले-फूले।'
मुकदमा मानहानि का
लोकमान्य ने सन् १९१५ में इंगलैंड में 'लंदन टाइम्स' के सर
वेलेंटाइन शिरोल के विरूद्ध मानहानि का दावा दायर किया। यह
मुकदमा ब्रिटेन की न्याय-व्यवस्था के नाम पर धब्बा है। इसमें
व्यावसायिक नैतिकता और न्यायिकत निष्पक्षता की धज्जियाँ उड़ा
दी गयीं। इस मुकदमे में लोकमान्य ने सर एडवर्ड कारसन को वकील
किया था। उन्होंने मंत्रिमंडल का सदस्य बनने के बाद लोकमान्य
का मुकदमा लड़ने से इंकार कर दिया। बाद में मंत्री पद से मुक्त
होने के बाद उन्होंने सर वेलेंटाइन शिरोल का केस ले लिया। उनका
यह आचरण एकदम अनुचित और गलत था। इस मुकदमे में ब्रिटिश सरकार ने
हर तरह से शिरोल की सहायता की। न्यायमूर्ति डार्लिंग ने भी
न्याय के सर्वोच्च आदर्शों का पालन नहीं किया और जूरी के
सदस्यों को लोकमान्य के विरूद्ध भड़काया।
लोकमान्य जीवन पर्यंत
मुकदमों में क्यों उलझे रहे? उन्होंने ब्रिटेन की अदालत में सर
वेलेंटाइन शिरोल के विरूद्ध मुकदमा क्यों चलाया? क्या उन्हें
ब्रिटिश शासन व्यवस्था पर विश्वास था? लोकमान्य मुंबई
विश्वविद्यालय के बी.ए., एल-एल.बी. थे। वे लगभग नौ वर्षों तक
कानून के लेक्चरर भी रहे थे। लोकमान्य चाहे अभियुक्त, गवाह,
शिकायतकर्ता या वकील किसी भी हैसियत से मुकदमे से जुड़े हों,
उन्होंने कानून का इस्तेमाल स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढ़ाने
के लिए किया। उन्होंने हर अवसर पर अदालत के मंच का इस्तेमाल
अपने विचारों का प्रचार करने के लिए किया।
मांडले कारावास के दौरान उन्होंने 'गीता रहस्य' नामक अनुपम
ग्रंथ की रचना की। उनके जेल से छूटने के बाद जब सरकार ने तत्काल
ग्रंथ की पांडुलिपि उन्हें वापस नहीं की, तो उनके मित्रों को
सरकारी इरादों के बारे में संदेह हुआ। उन्होंने लोकमान्य से
पूछा, 'अगर सरकार ने पुस्तक की पांडुलिपि वापस नहीं की तो आप
क्या करेंगे?' लोकमान्य ने कहा, 'पुस्तक मेरे दिमाग में है और
मैं उसे पुन: लिख दूँगा।' ऐसे थे लोकमान्य। |