दो
विदेशियों की प्रेम कहानी भारत में
कनीज भट्टी
दो विदेशियों
को राजस्थानके गूजरों की वेशभूषा में, अपने कार्यालय में देखकर
मुझे बहुत आश्चर्य हुआ, किन्तु मैं और भी अचंभित हो गयी जब मैंने
देखा कि वे मेरे सामने नमस्ते करके बैठ गये और हिंदी में बातचीत
करके वह सूचना माँगने लगे जो उन्हें चाहिए थी। मुझे बिलकुल भी
एहसास नहीं हुआ कि मैं किन्हीं विदेशियों से बात कर रही हूँ। ऐसा
लग रहा था कि - जैसे मैं राजस्थान के किसी गाँव के एक गूजर दंपति
से बात कर रही हूँ। हाँ, उनका असाधारण ज्ञान तथा तौर-तरीका यह
बता रहा था कि वे राजस्थान के शहरों में भी खूब घूमे हैं। मेरे
लिए अपनी जिज्ञासाओं का समाधान करना जरूरी हो गया कि इन दो
विदेशियों ने राजस्थान की गूजर-संस्कृति को क्यों अपना लिया और
इतना क्या पसंद आ गया जो इन्होंने बहुत अच्छी हिंदी भी बोलना सीख
ली।
बात शुरू हुयी तो यह पता लगा कि इन्होंने पुष्कर में एक ठाकुरजी
के घर रहकर, १०-१५ दिन बच्चों से हिंदी सीखी। फिर जैसलमेर घूमने
गये, वहाँ भी हिंदी सीखने की कोशिश की। आज एक 'लोक कलाकार' मेरे
दफ्तर में 'हाथी-समारोह' की तारीफ पूछने आया। ज्योति और नाशी को
देखकर समझा कि शक्ल से तो अंगरेज लगते हैं पर राजस्थानी पहनावा
पहनकर घूम रहे हैं। वह कलाकार मुझसे बोला, "ये तो सा'ब अंगरेज
हैं, पर इन्होंने राजस्थानी पहनावा कितने अच्छे तरीके से पहन रखा
है।" अचानक ज्योति बोला, "हम अंगरेज नहीं हैं, मैं इतली का
हूँ
और ये स्वीदन की है।" उस कलाकार का चेहरा देखने लायक था। उसे
उम्मीद नहीं थी कि ये इतनी अच्छी हिंदी बोलते हैं। ज्योति जिसका
सही नाम 'एंजो दी मातींनो' है, लेकिन गाँव के लोग इन्हें ज्योति
कहते हैं, उन्हें इतना टेढ़ा और लंबा नाम समझ में नहीं आता। नाशी
का सही नाम 'एलेन बोल्मग्रेन' है, लेकिन गाँव में वह नाशी के नाम
से पुकारी जाती है। इन दोनों को कोई भी अचानक देखता है तो इन्हें
राजस्थानी गूजर ही समझता है।
शुरूआत प्रेम कहानी की
पिछले १८ साल से ज्योति भारत आ रहे हैं। भारत की सीमा में कदम
रखते ही, पश्चिमी कपड़े उतारकर राजस्थानी वेशभूषा पहन लेते हैं
और फिर ६ महीने लगातार वही पहनावा पहनते हैं। नाशी ने भारत में
दो साल पहले कदम रखा और एक मेले में ज्योति से मिली। फिर दोनों
ने एक-दूसरे को देखा, परखा और इन्हें लगा कि हम दोनों के विचार
काफी मिलते हैं, दोनों को विदेशी कपड़ा, खाना, रहन-सहन पसंद नहीं
है, राजस्थान के गाँवों में घूमना और रहना पसंद है तो दोस्ती हो
गयी और अब साथ रहते हैं। इस तरह प्रेम कहानी शुरू हो गयी। ज्योति
इटली के सिसिली टापू के रहनेवाले हैं। इनके पिता वहाँ मास्टर थे।
अब ' रिटायर' हो चुके हैं। कहते हैं इटली में गरीबी है, पर फिर
भी वहाँ भिखारी गाड़ी में घूमता है। उधर महँगाई भी बहुत है। इटली
में ज्योति के माँ-बाप रहते हैं। ६ महीने भारत में रहने का
'वीजा' मिलता है। उसके बाद ये दोनों कभी इटली और कभी नाशी के घर
स्वीडन जाकर ६ महीने रहते हैं और फिर राजस्थान के लिए वापस चल
पड़ते हैं।
पगड़ी तो हैलमेट है
गोरा रंग, लंबा किताबी चेहरा, छोटी मगर आकर्षक आंखें, छोटी नाक,
इकहरा बदन उस पर काले रंग की लाल चुनरी की छपाईवाली गरम ओढ़नी,
लाल रंग की पैचवर्क और काँच के काम की काँचली, उसके साथ नीले रंग
की कुरती और काला लहंगा। माथे पर चाँदी की लड़ के साथ चाँदी का
बोरला, गले में बारीक मोतियों की माला, काले डोरे में डला
हनुमानजी और दूसरे काले डोरे में चाँदी का माता का ताबीज, हाथों
में चाँदी के सुंदर कड़े और नारियल की लकड़ी पर चढ़ी चाँदी के
पतरे के कड़े, अँगुलियों में चाँदी के छल्ले ओर पैरों में
मोटे-मोटे चाँदी के कड़े -- यह सब पहनकर २२ वर्षीय नाशी (एलेन)
जब चलती है तो कमर में लटकते घुँघरूवाले फुँदने छम-छम बजते हैं।
ऐसा लगता है जैसे कोई दुलहन आ रही है। ३७ वर्षीय ज्योति (एंजो दी
मातींनो) सर पर लाल रंग का टूल का बड़ा-सा ६ मीटर का साफा पहनते
हैं, भूरे रंग की दाढ़ी, कानों में चाँदी की बालियाँ, गले में
काली डोरी में माता का लॉकेट, गूजरोंवाला सफेद अँगरखा, लाँगवाली
धोती, पैरों में मोटे चाँदी के कड़े, कंधे पर डोरी में बँधा पीतल
का लोटा और हाथ में मोटी-सी लाठी, पैरों में चमड़े की गाँव की
मोजड़ी पहनते हैं।
बुजुर्गो से सीखती हूँ
नाशी एकदम शुद्ध हिंदी बोलती है और बड़ी मधुर और धीमी आवाज में
बोलती है। हमने नाशी से चाय पीने के लिए पूछा तो कहने लगी, "मैं
चाय नहीं पीती, छाछ पीती हूँ।" खाने में क्या पसंद करते हैं, तो
पूछने पर बोली मांसाहारी खाना मैंने दस साल से छोड़ दिया और
ज्योति ने पिछले २० साल से मांसाहारी खाना नहीं खाया। हम
दाल-सब्जी खाते हैं। हम खूब तेज मसालेदार खाना भी खा लेते हैं।
अब गाँवों में रहकर तो आदत हो गयी है, मिरची नहीं लगती। नाशी से
उसकी दिनचर्या पूछी तो बताया, "सुबह जल्दी उठना पड़ता है क्योंकि
गाँव में लोग देर तक नहीं सोते। उठकर नहा-धोकर औरतों के साथ काम
करवाती हूँ। मुझे गाय-भैंस का दूध निकालना भी आता है, गोबर के
छाने भी थापती हूँ, जानवरों की सानी करती हूँ। मैं रोटी-सब्जी भी
बना लेती हूँ। खाली समय में क्या करती हो? तो नाशी ने
बताया,"बालों में बांधने की डोरी, कमर में बांधने की डोरी,
काँचली बांधने की डोरी बनाना सीखती हूँ। मैंने जो काँचली पहनी
हुई है, ये मैंने खुद सिली है और ये काँचली की डोरी इसके फुंदे,
मोती की लड़ी और ये कसना, सब मैंने खुद सीखकर बनाया है।" नाशी
कहती है कि "मैं बूढ़ी औरतों से काम करना सीखती हूँ क्योंकि
बूढ़ी औरतें मर जाएगीं तो ये काम भी खतम हो जाएगा। उसका इतना अनुभव
किसी न किसी को तो सीख लेना चाहिए।"
खट्टे-मीठे प्रसंग
आज ज्योति हिंदी भाषियों से भी अच्छी हिंदी बोलते हैं। ज्योति
कहते हैं कि "नाशी से अकेले में भी बात करता हूँ तो भी हिंदी ही
बोलता हूँ। नाशी के साथ घूमने में कोई परेशानी तो नहीं होती? तो
ज्योति ने कहा कि "कभी-कभी झंझट हो जाता है, मैंने नाशी को कह
रखा है कि जहाँ ऐसा लगे, वहाँ घूँघट डाल लिया करो लेकिन एक बार
तो एक शैतान लड़के ने अचानक नाशी का घूँघट उठा दिया। मैं डंडा
लेकर उसके पीछे भागा और बहुत दूर तक उसका पीछा किया। उसके बाद वह
लड़का दूर भाग गया। मुझे लोगों की यह बात भी अच्छी नहीं लगती कि
जब हम दोनों आपस में कहीं खड़े होकर बात करते हैं तो लोग बहुत
पास आकर खड़े हो जाते हैं तो मैं उनसे हिंदी में पूछ लेता हूँ कि
'क्या ऊपर चढ़ेगा?'
ऐसा लगता है कि हम पर ज्योति और नाशी का पिछले जन्म का कोई कर्ज
बाकी है, जिसे लेने आये हैं और इनकी आत्मा यहीं घूम रही थी।
इसीलिए इन्हें राजस्थान और यहाँ के लोगों से इतना प्यार है कि जब
इनका 'वीजा' समाप्त होने लगता है तो इन्हें बहुत दु:ख होता है और
ऐसा लगता है जिसे इन्हें जबरदस्ती अपने घर से निकाला जा रहा है।
हमारे गाँव से इन्सान शहर, शहर से महानगर और महानगर से विदेश
जाने की सोच में रहता है और ये लोग विदेशों से हमारे गाँव में
आये हैं। तात्पर्य साफ है कि पाश्चात्य संस्कृति से लोग ऊबते जा
रहे हैं, गाँव की संस्कृति को पहली मान्यता दे रहे हैं। मशीनीकरण
से ऊबकर ताजी हवा, देशी खानपान और खुले वातावरण की तरफ पुन: लौट
रहे हैं और यही प्रकृति का नियम है कि विज्ञान की ऊँचाइयों तक
पहुँचकर, मानव को पुन: वहीं आना पड़ता है, जहाँ से वह आरंभ हुआ
था। |