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                           छब्बीस 
                          जुलाई को कारगिल जंग के ग्यारह वर्ष पूरे हुए। इस अवसर 
                          पर ओमकार चौधरी की समीक्षा- 
 
                          देश ने 
                          क्या सीखा कारगिल से 
 छब्बीस 
                          जुलाई को देश ने कारगिल जंग का दसवां विजय दिवस मनाया. 
                          १५ मई १९९९ में शुरू हुई लड़ाई २६ जुलाई को खत्म हुई थी। 
							इसमें भारत के ५३३ जवान शहीद हुए तो पाकिस्तान को चार 
                          हजार जवानों से हाथ धोना पड़ा। यह संयोग है या सोची समझी 
                          रणनीति, समझना मुश्किल है लेकिन कारगिल के षड़यंत्रकारी, 
                          पाकिस्तान के तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ 
                          ने हाल में दिए एक इंटरव्यू में बेशर्मी के साथ स्वीकार 
                          किया कि कारगिल की घुसपैठ में पाकिस्तानी सेना शामिल थी।
                          
 जिस समय युद्ध हुआ, उस समय और बाद में भी पाकिस्तानी 
                          हकूमत यह दावा करती रही कि कारगिल में जेहादियों ने 
                          घुसपैठ की थी, न कि उसकी सेना ने। मुशर्रफ ने यह भी कहा 
                          है कि यदि कारगिल में घुसपैठ के बाद युद्ध न होता तो 
                          भारत कश्मीर मसले पर बातचीत को तैयार नहीं होता। बकौल 
                          मुशर्रफ, वे कश्मीर मसले का अंतरराष्ट्रीयकरण करना चाहते 
                          थे। मुशर्रफ ने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज 
                          शरीफ को अंधेरे में रखकर इस कार्रवाई को अंजाम दिया। 
                          इसके कुछ ही समय 
                          पूर्व भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बस से 
                          लाहौर गए थे।
 
 वाजपेयी और नवाज शरीफ दोनों देशों के बीच आपसी सहयोग व 
                          समझबूझ की नई गाथा लिखने की तैयारी में थे। वहां की सेना 
                          को यह गवारा नहीं था। मुशर्रफ के बयान से साफ है कि 
                          पाकिस्तानी सेना और आईएसआई भारत विरोधी तत्वों, 
                          आतंकवादियों, कथित जेहादियों और घुसपैठियों को न केवल 
                          संरक्षण देती रही है, बल्कि षड़यंत्र भी रचती रही है। 
                          भारत-पाकिस्तान के बीच अब तक चार युद्ध हो चुके हैं। 
                          चारों में पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी। वहां की 
                          सरकार और सेना जानती है कि वह भारतीय सेना से आमने-सामने 
                          की लड़ाई में कहीं नहीं टिक सकती। यही कारण है कि अब 
                          उसने छद्म युद्ध की साजिश को अंजाम देना शुरू कर दिया 
                          है। यह समझने में भी भारतीय निजाम ने कई साल जाया कर 
                          दिए।
 
 कारगिल युद्ध के दस साल बीत जाने के बाद इसके विश्लेषण 
                          किए जा रहे हैं कि भारत ने कारगिल से क्या सबक सीखा है? 
                          कई सीख ली भी है कि नहीं? ली होती तो समुद्र के रास्ते 
                          पाकिस्तान के दस प्रशिक्षित आतंकवादी पिछले साल छब्बीस 
                          नवम्बर को मुंबई में घुसकर इतनी जघन्य वारदात को अंजाम 
                          नहीं दे पाते। इस घटना से तो यही लगता है कि भारतीय 
                          निजाम ने कारगिल से कोई सबक नहीं सीखा है। तब कारगिल में 
                          घुसपैठ हुई थी। आज नेपाल, बांग्लादेश की सीमाओं से बेखौफ 
                          घुसपैठ हो रही है। मुंबई पर समुद्री रास्ते से अटैक हुआ। 
                          कारगिल में हमला रोकने और घुसपैठ की जानकारी 
                          समय पर नहीं मिल पाने की 
                          वजह खुफिया तंत्र की विफलता को माना गया। सवाल है कि 
                          क्या उसके बाद खुफिया तंत्र को चुस्त-दुरूस्त करने के 
                          गंभीर प्रयास हुए? हर बजट में रक्षा बजट में बढोत्तरी 
                          होती जा रही है लेकिन क्या हमारी सेनाएं और खुफिया तंत्र 
                          देश की सरहदों को महफूज रखने में सफल हो पा रहे हैं। 
                          अफसोस की बात तो यह है कि हमारा निजाम इस तरह की घटनाओं 
                          से कोई सबक नहीं लेता।
 
 कारगिल में घुसपैठ को रोकने में विफल रहने के कारणों की 
                          जांच के लिए केन्द्र सरकार ने एक जांच कमेटी बनाई थी। के 
                          सुब्रहण्यम इसके अध्यक्ष थे और वरिष्ठ पत्नकार वीजी 
                          वर्गीज के अलावा लेफ्टिनेंट जनरल के के हजारी और सतीश 
                          चंद्र सदस्य। तथ्य सामने थे इसलिए निष्कर्ष निकालने में 
                          कतई देरी नहीं हुई। समय पर कारगिल समीक्षा समिति की 
                          रिपोर्ट सौप दी गई, लेकिन इसे कभी सार्वजनिक नहीं किया 
                          गया। कुल ९ हजार दस्तावेज कमेटी को दिए गए थे और जो सवाल 
                          पूछे गए उनके जवाब भी मिले थे। इसके २२०० पन्नों में 
                          सारे दस्तावेज और भारत की ओर से हुई गलतियों की भी खुल 
                          कर जानकारी दी गई थी।
 
 कमेटी ने उन सारे हालातों पर खुल कर विचार किया और अपने 
                          निष्कर्ष रखे जिससे कारगिल जैसे हालात दोबारा नहीं पैदा 
                          हो सके। यह आश्चर्य का विषय है कि सरकार ने इसके 
                          निष्कर्षों को संसद के सामने सार्वजनिक नहीं किया। देश 
                          को यह जानने का हक है कि कारगिल क्यों हुआ? रक्षा 
                          विशेषज्ञ कारगिल पर खुलकर अपनी राय जाहिर करते रहे हैं। 
                          अधिकांश का यही मत है कि हमारा खुफिया तंत्र खतरे को 
                          भांपने में पूरी तरह नाकाम रहा। भारत और पाकिस्तान के 
                          बीच दुनिया के सबसे उंचे रणक्षेत्न में हुए कारगिल युद्ध 
                          के बारे में कई रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि यदि 
                          हमने इसके सबक को गंभीरता से लिया होता तो मुंबई पर गत 
                          वर्ष २६ नवंबर को हुए हमले जैसे हादसे नहीं हुए होते और 
                          रक्षा मामलों में हमारी सोच ज्यादा परिपक्व होती।
 
 रक्षा विश्लेषक और नेशनल मैरीटाइम फाउंडेशन के निदेशक सी 
                          उदय भास्कर का कहना है कि यह युद्ध दो परमाणु शक्ति 
                          संपन्न देशों के बीच हुआ। यह युद्ध चूंकि मई १९९८ में 
                          पोखरण परमाणु विस्फोट के बाद हुआ था, लिहाजा पूरी दुनिया 
                          की निगाहें इस पर टिकी थी और भारत ने इसमें स्वयं को एक 
                          जिम्मेदार परमाणु शक्ति साबित किया। उन्होंने कहा कि १० 
                          साल बीतने के बाद भी हमने इससे कोई सबक नहीं लिया। इस 
                          तरह के युद्ध लड़ने के लिए सेना को जिस तरह के ढांचे की 
                          जरूरत है, वह आज तक मुहैया नहीं हो सकी है। भास्कर मानते 
                          हैं कि कारगिल युद्ध का एक बहुत बड़ा कारण हमारी खुफिया 
                          तंत्न की विफलता था। उनका कहना है कि मुंबई हमला समुद्री 
                          कारगिल था।
 
 इंडियन डिफेंस रिव्यू पत्निका के संपादक भरत वर्मा के 
                          अनुसार कारगिल युद्ध से मुख्य तीन बातें सामने आईं, 
                          राजनीतिक नेतत्व द्वारा निर्णय लेने में विलंब, खुफिया 
                          तंत्न की नाकामी और रक्षा बलों में तालमेल का अभाव। 
                          उन्होंने कहा कि कारगिल के सबक को यदि हमनें गंभीरता से 
                          नहीं लिया तो मुंबई जैसे आतंकी हमले लगातार जारी रहेंगे। 
                          कारगिल युद्ध के दौरान दुश्मन हमारी जमीन में अंदर तक 
                          घुस आया, लेकिन हमारे राजनीतिक नेतृत्व ने पाकिस्तान में 
                          स्कार्दू में प्रवेश कर घुसपैठियों की आपूर्ति को रोकने 
                          का निर्णय नहीं किया। यदि हमारा नेतृत्व यह फैसला करता 
                          तो इसके दूरगामी परिणाम होते। रक्षा विश्लेषक ब्रह्म 
                          चेलानी ने कहा कि कारगिल युद्ध का सबसे बड़ा सबक यह है 
                          कि पाकिस्तान हर उस स्थिति का फायदा उठाने से पीछे नहीं 
                          हटेगा, जहां सुरक्षा या सैन्य तैयारियों में कमी है। 
                          उन्होंने कहा कि कारगिल के बाद पाक समर्थित आतंकवादियों 
                          के आत्मघाती हमलों में काफी वृद्धि हो गई है।
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