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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है यू.के. से
महेन्द्र दवेसर दीपक की कहानी— सुरभि


कहानियों सी कहानी नहीं हूँ मैं! मगर कहानी बन गयी हूँ, और कुछ कर नहीं सकती! जज साहिब ने प्रेस पर से रिपोर्टिंग की पाबन्दी क्या हटाई, मैं तो वेश्याओं से भी बदतर हो गयी । वेश्याएँ बिकती हैं तो बन्द कमरों में नग्न होती हैं। मैं तो नंगी की जा रही हूँ खुले आम– सड़कों पर, दुकानों में, किसी की भी गोद में, मेज़ पर, बिस्तर में . . . कहीं भी! मैं पढ़ी जा रही हूँ, कही जा रही हूँ, सुनी जा रही हूँ!! पत्रकार तो वैसे ही बढ़ा चढ़ाकर, नमक मिर्च लगाकर लिखते हैं। रही सही कसर लोग पूरी कर देते हैं। जितने कलम उतनी घातें, जितने मुँह उतनी बातें।

जब किसी के हाथ में पत्थर आ जाता है, तो सामने वाला घायल हो जाता है। उसकी हत्या तक हो जाती है। मैं किसी के हाथ का पत्थर नहीं हूँ जो किसी को चोट पहुँचा सकूँ। पत्थरों के हाथों में है मेरा भाग्य-भविष्य! एक पत्थर का आदेश आयेगा और मैं दुनिया की नज़रों से ओझल इस जेल में सड़ती रहूँगी . . . शायद हमेशा के लिये! मेरे बैरिस्टर मिस्टर मार्क डीन ने जज साहिब से कहा भी कि लड़की बहुत छोटी है। जब तक इस पर लगे आरोप सिद्ध नहीं हो जाते, इसे मासूम समझा जाये और भविष्य में इसके मान-सम्मान की रक्षा करते हुए प्रेस पर रिपोर्टिंग की पाबन्दी लगा दी जाये। उस पाषाण ने फ़ैसला सुनाया कि लड़की पर लगाये गये आरोप इतने संगीन हैं कि मैं प्रेस के स्वातंत्र्य पर पाबन्दी लगाना उचित नहीं समझता।

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