सप्ताह का विचार-
वही राष्ट्र सच्चा लोकतंत्रात्मक
है जो अपने कार्यों को बिना हस्तक्षेप के सुचारु और सक्रिय रूप
से चलाता है। -- महात्मा गांधी |
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अनुभूति
में-
संजय ग्रोवर, मीना चोपड़ा, डॉ. आनंद,
व अवधबिहारी
श्रीवास्तव के साथ देश भक्ति की रचनाओं का संकलन मेरा भारत |
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इस सप्ताह
गणतंत्र दिवस के अवसर पर
समकालीन कहानियों में
भारत से डॉ. महीप सिंह
की कहानी
धुँधलका
उसे लगता है,
उसके पास बहुत कुछ है। वह संसद की सदस्य है। इस नाते पूरी
कोठी, टेलीफोन, रेल और हवाई यात्रा सहित उसके पास अगणित
सुविधाएँ हैं। उसकी पार्टी आज सत्ता में नहीं है। पर इससे क्या
होता है? वर्षों तक उसकी पार्टी सत्ता में रही है। अगले चुनाव
के बाद वह फिर सत्ता में आ सकती है। उस समय उसके मंत्री बन
जाने की पूरी संभावना है। आज उसे पार्टी के अध्यक्ष के बहुत
निकट समझा जाता है। वह दो राज्यों में पार्टी के सभी
कार्यकलापों की इंचार्ज है। वहाँ पर उसकी मर्जी के बिना एक
पत्ता भी नहीं हिलता। पिछले दिनों इन दोनों राज्यों की विधान
सभाओं के आम चुनाव हुए थे। उम्मीदवारों के चुनाव, टिकटों के
बँटवारे और चुनाव-प्रचार के लिए साधनों की सारी व्यवस्था उसकी
आँखों के सामने से गुजरती थी। लाखों रुपए उसकी उँगलियों का
स्पर्श लेते हुए निकल जाते थे। सभी उम्मीदवार चाहते थे कि
पार्टी के अध्यक्ष एक बार उनके क्षेत्र का अवश्य दौरा करें।
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डॉ.
योगेंद्रनाथ शुक्ल की लघुकथा
बदलते नायक
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अक्षय कुमार
का साहित्यिक निबंध
निराला की कविता में राष्ट्र
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डॉ. सत्यभूषण
वंद्योपाध्याय का आलेख
सलामी लाल किले से ही क्यों?
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आशीष सान्याल से क्रांतिकारी कवि:
नजरुल इसलाम का परिचय- तूफ़ान हूँ
मैं आज़ाद रहूँगा |
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पिछले सप्ताह
रामकिशन भँवर
का व्यंग्य
हाय मेरी प्याज़
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आज सिरहाने-
अरविंद कुमार सिंह की पुस्तक
भारतीय डाक:
सदियों का सफरनामा
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रंगमंच पर-
हृषिकेश सुलभ द्वारा
विदूषक की तलाश
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संस्कृति में रमेश चंद्र द्विज का आलेख-
पोंगल- संक्रांति का महा उत्सव
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समकालीन कहानियों में
भारत से
राजेन्द्र त्यागी की कहानी
अनजान रिश्ते
असगर आज अपने
गाँव चला गया। जाते-जाते खुद तो रोया ही हमारी आँखें भी नम कर
गया। जाते-जाते ही क्यों, जाने के एक दिन पहले से ही वह इस तरह
सुबक रहा था, मानों अपने अपने प्रियजनों से हमेशा-हमेशा के लिए
बिछुड़ रहा हो। नहीं, साल-छह महीने बाद फिर उसे रोजी-रोटी की
तलाश में अपना गाँव छोड़कर फिर उसे इस शहर की किसी झुग्गी को
आबाद करना है! फिर भी हमसे बिछुड़ने के गम ने उसे रोने के लिए
मजबूर कर दिया था। जब कभी असगर की मासूम सूरत मन में उतर आती
है, मैं उसके साथ अपने रिश्तों के बारे में विश्लेषण करने लगता
हूँ। सोचने लगता हूँ, अनजान रिश्तों के बारे में। और, कुछ
अनजान रिश्ते भी होते हैं, इस मान्यता को स्वीकारने के लिए
मजबूर हो जाता हूँ। असगर गंभीर प्रकृति का इनसान था। उसे कभी
हँसते हुए नहीं देखा, मगर कभी उदास भी नहीं।
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