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बंटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान 
की हुकूमतों को ख़याल आया कि सामान्य क़ैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होना 
चाहिए, यानी जो मुसलमान पागल हिंदुस्तान के पागलख़ानों में हैं, उन्हें पाकिस्तान 
पहुँचा दिया जाए और जो हिंदू और सिख पाकिस्तान के पागलख़ानो में हैं, उन्हें 
हिंदुस्तान के हवाले कर दिया जाए। मालूम 
नहीं, यह बात माक़ूल थी या गै़र माकूल़, बहरहाल दानिशमंदों के फ़ैसले के मुताबिक़ 
इधर-उधर ऊँची सतह की कान्फ़ेंस हुई और बिल आख़िर पागलों के तबादले के लिए एक दिन 
मुक़र्रर हो गया। अच्छी तरह छानबीन की गई - वे मुसलमान पागल जिनके 
संबंधी हिंदुस्तान ही में थे, वहीं रहने दिए गए, बाक़ी जो बचे, उनको सरहद पर रवाना 
कर दिया गया। पाकिस्तान से चूँकि क़रीब-क़रीब तमाम हिंदू-सिख जा चुके थे, इसलिए 
किसी को रखने-रखाने का सवाल ही पैदा नहीं हुआ, जितने हिंदू-सिख पागल थे, सबके-सब 
पुलिस की हिफ़ाज़त में बॉर्डर पर पहुँचा दिए गए। उधर का मालूम नहीं लेकिन इधर लाहौर के पागलख़ाने 
में जब इस तबादले की ख़बर पहुँची तो बड़ी दिलचस्प गपशप होने लगी। |