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इतिहास

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सलामी लाल किले से ही क्यों?
डॉ. सत्यभूषण वंद्योपाध्याय


१५ अगस्त, १९४७ को भारत पूर्ण रूप से स्वाधीन हो गया और उसके दूसरे दिन यानी १६ अगस्त, १९४७ को स्वतंत्र भारत का राष्ट्रध्वज प्रधानमंत्री नेहरू द्वारा लाल किले के लाहौरी गेट की प्राचीर से फहराया गया। लाल किला तब से ही भारतीय स्वाधीनता और देश की एकता का प्रतीक बन गया, जहाँ हर वर्ष १५ अगस्त स्वतंत्रता दिवस को प्रधानमंत्री द्वारा और २६ जनवरी गणतंत्र दिवस के अवसर पर राष्ट्रपति द्वारा भारत का तिरंगा फहराया जाता है।

स्वतंत्रता आंदोलन का प्रतीक

लाल किले से ही राष्ट्रध्वज क्यों फहराया जाता है और प्रधानमंत्री नेहरू ने सर्वप्रथम राष्ट्रध्वज फहराने के लिए इसी स्थान को क्यों चुना? लाल किले से ही देश की जनता को संबोधित करने की परंपरा क्यों शुरू हुई तथा प्रधानमंत्री लाल किले के इस प्राचीर से ही सलामी क्यों लेते हैं? इन सवालों के उत्तर के लिए हमें लाल किले की उस ऐतिहासिक भूमिका पर दृष्टिपात करना पड़ेगा, जिसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई दिशा दी।

सर्वविदित है कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में लाल किले की उल्लेखनीय भूमिका रही है, जिसके फलस्वरूप लाल किला भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का प्रतीक बना। १० मई, १८५७ को मेरठ में क्रांति की शुरुआत हुई और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सिपाहियों ने अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ खुला विद्रोह का दिया। मेरठ से बढ़ते हुए इन सिपाहियों ने ११ मई को दिल्ली में प्रवेश किया और अंग्रेजों के छक्के छुड़ाते हुए उन्होंने मुगल साम्राज्य के अंतिम बादशाह बहादुर शाह द्वितीय (१८३७-१८५८) को हिंदुस्तान का सम्राट घोषित किया।

इससे अंग्रेज़ी शासन को बहुत बड़ा धक्का लगा। उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को कुचलने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी। स्वतंत्रता संग्राम के सिपाहियों की यह विजय अधिक दिनों तक स्थायी नहीं रह पायी और २१ सितंबर, १८५७ को, यानी लगभग तीन महीने बाद अंग्रेज़ों ने दिल्ली पर फिर अधिकार कर लिया। इस संघर्ष में अनेक सिपाहियों को गोली से उड़ा दिया गया, जितने विद्रोही थे, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। जहाँ से उन्हें मदद मिलती थी, सबको तहस-नहस कर दिया गया। क्रांति की इस ज्वाला को दबाने के लिए अंग्रेज़ हुकूमत ने निर्दोष लोगों को भी नहीं बख्शा। हज़ारों स्वतंत्रता सेनानियों को जेलों में ठूँस दिया गया, उन्हें काला-पानी और देश निकाले की सज़ा दी। सैंकड़ों क्रांतिवीरों को फाँसी पर लटका दिया गया।

बहादुरशाह जफर पर मुकदमा

बाद में अंग्रेज़ों ने लाल किले से दक्षिण की ओर लगभग छह मील दूर हुमायूँ के मकबरे के पास बहादुरशाह को भी गिरफ्तार कर लिया। २२ सितंबर, १८५७ को बहादुर शाह जफर के दो पुत्रों को भी मकबरे के पास से ही गिरफ्तार कर लिया गया और किले की तरफ़ लाते हुए लेफ्टिनेंट हडसन ने उन्हें खूनी दरवाज़े के पास गोली से उड़ा दिया।

बहादुर शाह को गिरफ्तार करने के बाद उन पर लालकिले में ही जनवरी, १८५८ में मुकदमा चला। यह मुकदमा भी उसी दीवान-ए-खास में चलाया गया, जहाँ कभी मुगल शासनकाल में मुकदमे चलते थे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इस नायक पर आरोप लगाया गया कि उसने अंग्रेज़ी हुकूमत को उखाड़ फेंकने का षड़यंत्र किया और उस षड़यंत्र की अगुवाई की। बादशाह के खिलाफ लगभग ४० दिन मुकदमा चला और आज़ादी के इस प्रथम सेनानायक को आजीवन देश निकाले की सज़ा दी गई। बहादुरशाह को रंगून भेज दिया गया, जहाँ ७ नवंबर १८६२ को तड़के पाँच बजे के करीब स्वतंत्रता संग्राम के इस प्रथम नायक ने अपनी अंतिम साँसें लेकर जीवन-लीला समाप्त की। इस प्रकार जिस लाल किले में मुगल वैभव काल में मुगल सम्राट शाहजहाँ ने बड़ी शान और आन-बान से प्रवेश किया था, उसी में लगभग दो दो साल अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह पर मुकदमा चला और उसे देश निकाले की सज़ा दी गई।

कैप्टन पी.के सहगल और लेफ्टिनेंट जी.एस. ढिल्लन और उन पर अभियोग यह लगाया गया था कि उन्होंने अंग्रेज़ी साम्राज्य के खिलाफ बगावत की थी। जब इन पर मुकदमा चला, तो सारे राष्ट्र ने एक होकर अंग्रेज़ों का विरोध किया। मुकदमे की पैरवी में इन स्वतंत्रता सेनानियों की ओर से नेहरू सहित पूरा राष्ट्र एक हो गया। परिणाम यह हुआ कि अंग्रेज़ों के खिलाफ सारी जनता आंदोलन के लिए खड़ी हो गई। लिहाजा देश की जनता के इस दबाव के आगे अंग्रेज़ी शासन को झुकना पड़ा और जनमत के जबर्दस्त दबाव को देखते हुए गोरी सरकार ने मुक्त कर दिया। इस मुकदमे में इन स्वतंत्रता सेनानियों की रिहाई के बाद देशभर में विजयोत्सव-सा माहौल बन गया और लाल किला स्वतंत्रता सेनानियों तथा देश की जनता के बीच स्वाधीनता का परिचायक बन गया। इसी मुकदमे ने अंग्रेज़ी शासन की जड़ें हिला दीं और अंततः उसके दो वर्ष बाद ब्रिटिश सरकार को भारत को स्वतंत्र करने का निर्णय करना पड़ा।

नेहरू जी के बाद निरंतर सभी प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर से १५ अगस्त की सुबह राष्ट्र ध्वज फहराते हैं और भारत की जनता को स्मृति दिलाते हैं कि कोई भी राष्ट्र बलिदान और कुरबानियों के बिना स्वतंत्र नहीं हो सकता। भारत की आज़ादी का इतिहास शांति और सद्भावना का नहीं रहा। लगातार रक्त क्रांतियों और यातनाओं के बल पर ही सत्ता मिल सकी है। अहिंसा हमारा नारा भले रहा हो, यह पूरा देश महान हिंसा की विभीषिका से गुज़रा है, इस तथ्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता।

२५ जनवरी २०१०

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