| क्या पता था कि प्याज के दिन ऐसे 
बहुरंगे कि वह सौ फीसदी वी.आई.पी. हो जाएगा। प्याज खाना हैसियत वाले आदमी की पहचान 
बन गई है। '' क्यो भाई साब... प्याज खा रहे है, वह भी सलाद में, क्या ठाठ है। सब्जी 
मंडी में प्याज के दुकानदार के चेहरें की रौनक के भी क्या कहने! अब वह पहले वाला 
दुकानदार नहीं है कि आप गए और बैठकर छाँटने लगे - प्याज। बात यहीं कोई एक हफ्ते 
पहले की है जब प्याज २० रुपए किलो पर ठनठना रहा था। अपनी औकात और छुई-मुई शान के 
वास्ते आधा किलो प्याज ली, चलते वख्त रास्ते में एक प्याज गिर गई, मैंने गाड़ी 
रोककर उसे ऐसे सहेजते हुए उठाया, जैसे कोई गिन्नी गिर गई हो। उन दिनों की वह खरीदी 
गई आधा किलो प्याज कितने दिन मेरे घर पर मुख्य अतिथि की तरह रही, इसकी गणना यह 
लिखते समय मेरे पास ठीक-ठीक उपलब्ध नही है।  अभी कल ही तो दिल्ली में सस्ती 
प्याज पाने के लिए लोगों की ऐसी लम्बी लाईन थी कि टेलीविजन का चौखटा काफी छोटा पड़ 
गया। होटल में खाने की मेज पर यदाकदा सलाद की प्लेट में एक दो लच्छे दिख भर जाएँ तो 
ऐसा लगता कि जैसे मैं आम आदमी से तुरंत खास बन गया। लोगों की नजरें चुराकर प्याज के 
दो छल्लों को कपोल कवलित करने के बजाए पतलून की जेब में रख लेता हूँ, घर पहुँचने पर 
उन छल्लों को बच्चों को दिखा कर कहता हूँ कि देख लाले, यह है प्याज, हो गए न हम 
मोहल्लें में इनीगिने लोगों की हैसियत वाला। मेरा बच्चा छल्ला देखकर एक बार 
रोमांचित होकर बोल पड़ा था, हाय पापा, सुमित बहुत नक्शा मारता था, कि उसके पापा 
मार्केट से रोज प्याज लाते है। अब तो मै भी कह सकता हूँ कि मेरे पापा दि ग्रेट...। 
मेरा मन अंदर से कह रहा था कि उससे कह दूँ कि स्कूल के बैग में प्याज का छल्ला रख 
लें और फिर साथियों को दिखा कर वापस ले आना। पर हाय मेरा मोह माया। मन नही हो रहा 
था कि प्याज को अपने हाथ से एक पल के लिए दरकिनार करूँ। प्याज तू न गई मेरे मन 
से... यही माकूल टाईटिल होता न, यदि दिनकर जी जिंदा होते। दिगम्बरी भाई लोग जो 
तरह-तरह की रोक टोक की बिना पर प्याज को नाकारा समझते थे... वह भी प्याजगोशों को 
समझाने में लग गए है... अरे एक मुझे देखों प्याज खाते ही नहीं, प्याज न खाने वाले( 
महँगी के कारण न खरीद पाने वाले) उनकी टोली में आ गए है।  आम आदमी के पसीने उस समय छूटने 
लगते है जब दुकानदार मुँहतोड़ जवाब फेंकता है, ओ बाबू साहेब... प्याज है प्याज, 
घुइयाँ नहीं। लेना हो तो लो, वरना आगे देखों। प्याज जिनके यहाँ थोड़ी बहुत स्टॉक 
में थी, उनके कहने ही क्या। उनके दिन सुनहरे ही समझिये। मंडी का अपना विज्ञान है। 
भाव कब चढ़ेंगे और कित्ते दिन चढ़े रहेंगे, यह उनका अपना गणित है। मेरे एक परिचित 
आमदनी वाले विभाग में कार्यरत है, मैंने उनसे एक दिन कहा - भई कभी अपनी नजरें 
प्याजखोरों पर तिरछी कर लो। बोले, 'क्या तिरछी नजरे करूँ खाक, प्याज मिल रही है आगे 
से न सही पीछे से।'  २० रुपए किलो वाली प्याज में से 
एक प्याज लेकर आप सुबह सुबह सामने रखकर बैठ जाइए, धीरे-धीरे पहले ऊपर का छिल्का 
उतारिये फिर आगे के छिलके उतारते चले जाइए। सावधान आप मन में सब्जी बनाने का इरादा 
न कीजियेगा। जो छिल्का उतार रहे है न, समझिये वही वही प्याज है। अब आप क्या पाते है 
कि प्याज है और है तो वह छिलकों में। बचा सिर्फ शून्य। यही शून्य परम तत्व है। परम 
विज्ञान है। भगवत प्राप्ति का संतसम्मत साधन। छिल्कों की पर्त के संगठन का नाम 
प्याज है और उनके बिखराव में प्याज तिरोहित हो रही है। शून्य बच रहा है। जो दिख रहा 
है वो है नहीं... और जो नहीं है वो दिख रहा है। सरकार इस दिशा में किसी न किसी तरह 
से प्रयोग कर सकती है। एक अपील जारी कर सकती है। ''लीजिए एक प्याज और भोरहरे उठ 
बैठिए, प्याज साधना कीजिये... सारे मर्ज दूर। न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी।'' जैसे एक सीढ़ी होती है, कोई चढ़ता 
है फिर उतरता है - यह एक सामान्य सा नियम है। चढ़ा है तो उतरेगा और उतरा है तो 
चढ़ेगा। यहीं है न। पर जरूरत की वस्तुओं के भाव मंडी में तो ऊँचान तक बड़ी देर तक 
रुके रहते है। चढ़ गए तो चढ़ गए, अब लखियों मनौती मनाओं... पर उतरेंगे नहीं। बस 
चढ़े है तो...। जैसे जरूरतों के बाजार में भाव मरखैना सांड़ हो गया हो। और अपनी 
प्याज... चढ़ी जो चढ़ती चली गई।  कल के लिए कागज के पन्ने कोरे है 
सिर्फ यह लिखने के वास्ते कि बेटा वह भी समय था जब २० रुपए किलो वाली प्याज 
तुम्हारें दादा जी बाजार से लाते थे। और २१ वीं सदी का लल्ला बोल उठेगा...हाय...सच 
ममी...तब इत्ती सस्ती थी प्याज...।  |