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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
डॉ. महीप सिंह की कहानी— धुँधलका


उसे लगता है, उसके पास बहुत कुछ है।
वह संसद की सदस्य है। इस नाते पूरी कोठी, टेलीफोन, रेल और हवाई यात्रा सहित उसके पास अगणित सुविधाएँ हैं। उसकी पार्टी आज सत्ता में नहीं है। पर इससे क्या होता है? वर्षों तक उसकी पार्टी सत्ता में रही है। अगले चुनाव के बाद वह फिर सत्ता में आ सकती है। उस समय उसके मंत्री बन जाने की पूरी संभावना है। आज उसे पार्टी के अध्यक्ष के बहुत निकट समझा जाता है। वह दो राज्यों में पार्टी के सभी कार्यकलापों की इंचार्ज है। वहाँ पर उसकी मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता।

पिछले दिनों इन दोनों राज्यों की विधान सभाओं के आम चुनाव हुए थे। उम्मीदवारों के चुनाव, टिकटों के बँटवारे और चुनाव-प्रचार के लिए साधनों की सारी व्यवस्था उसकी आँखों के सामने से गुजरती थी। लाखों रुपए उसकी उँगलियों का स्पर्श लेते हुए निकल जाते थे। सभी उम्मीदवार चाहते थे कि पार्टी के अध्यक्ष एक बार उनके क्षेत्र का अवश्य दौरा करें। उनके नाम में ही ऐसा जादू था कि लोग उन्हें सुनने नहीं, मात्र उनके दर्शन करने के लिए उमड़ आते थे। सभी यह बात भी अच्छी तरह जानते थे कि यदि सविता जी चाहेंगी तो सुधाकर जी उनके क्षेत्र का दौरा करने का समय अवश्य निकाल लेंगे।

किंतु इन दोनों राज्यों में उनकी पार्टी की सरकार बनते-बनते रह गई। केंद्र में उनकी पार्टी की सरकार नहीं थी, हालाँकि देश के कई राज्यों में उनकी सरकारें थी। सविता को आशा थी कि दोनों में न सही, कम से कम एक राज्य में तो उनकी सरकार बन ही जाएगी। उसने जोड़-तोड़ की सारी तैयारी कर रखी थी। टूटकर आने वाले विधायकों को कितना धन दिया जाएगा, कौन-सा मंत्री पद उन्हें मिलेगा, किस कारपोरेशन का अध्यक्ष पद किसे दिया जा सकता है, उसने पूरी सूची तैयार कर ली थी। पर ऐन मौके पर पासा पलट गया। एक राज्य में तो विरोधी दलों के गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिल गया औऱ दूसरे राज्य में विपक्ष के नेता ने अपना घोड़ा सीधी सड़क पर न दौड़कर उसे पहाड़ियों के शार्टकट से दौड़ाया और पूरे नतीजे आने से पहले ही जीत की ओर बढ़ते कदमों की आहट लेकर जर, जोरू, ज़मीन की सभी सुविधाओं के द्वार उन संभावित विधायकों के लिए खोल दिए गए जिन्हें मोहपाश में बाँधा जाना था।

वह पार्टी के अनेक साथियों की आँखें और ओंठ परख रही थी। वह उस भाषा को अच्छी तरह पढ़ सकती थी जो उनकी आँखों और ओठों से बोली जी रही थी। पार्टी की हार का उन्हें मलाल था। लेकिन यह तो सविता की निजी हार मानी जा रही थी। बड़ी तेज़ पर फडफडाने वाली कबूतरी के कुछ पंख ज़रूर टूट गए थे, यह बात कितने लोगों को सुख दे रही थी।

लेकिन सुधाकर जी ने उसे कलावे में लेते हुए कहा था- ''सविता, दोनों राज्यों में तुमने जिस ढंग से चुनाव अभियान चलाया, उससे मैं बहुत खुश हूँ। घुड़दौड़ के मैदान में राजनीति के घोड़े तो दौड़ते ही रहते हैं, कभी किसी का घोड़ा आगे, कभी किसी का। इधर-उधर की बातें करने वालों की तुम चिंता न करना। ईर्ष्या-द्वेष मनुष्य के स्वभाव का अंग है। इसे तो देवता भी नहीं छोड़ पाए थे। मैं पार्टी की कार्यकारिणी की जल्दी ही मीटिंग बुला रहा हूँ। उसमें हम चुनाव परिणामों पर खुलकर विचार करेंगे। उस मीटिंग में अगर तुम्हारी कुछ आलोचना भी हो, उससे घबराना नहीं। मैं हूँ न तुम्हारे साथ।''
यह कहते-कहते सुधाकर जी के कलावे की पकड़ में कसाव कुछ और बढ़ गया था।

शाम को अपनी कोठी के आगे के बड़े लॉन में वह अकेली चुपचाप बैठी थी। आमतौर पर इस कोठी पर आने-जाने वालों की भीड़ लगी रहती है। अपनी बैठक में वह एक-एक करके सबसे मिलती है। फिर भी बहुत-से लोग वहाँ घुस आते हैं। सविता को बहुत झुंझलाहट होती है। अपने बिल्कुल पास बैठे व्यक्ति से वह धीरे-धीरे बातें करती रहती हैं। बिना बुलाए अंदर आने वाले व्यक्ति अभिवादन करके सामने लगे सोफों पर बैठ जाते हैं।

आज उसने गेट पर तैनात गार्ड से कह दिया था- आज मैं किसी से नहीं मिलूँगी। कोई भी आए कह देना, मैं घर में नहीं हूँ। गेट के पास ही उसके निजी सचिव का छोटा-सा कमरा है। उससे भी उसने कह दिया था- किसी का भी फोन आए, कह देना मैं कहीं गई हूँ... मुझे डिस्टर्ब न करना... हाँ, अगर सुधाकर जी के पी.ए. का फोन आ जाए तो मेरी बात करा देना।

लॉन में थोड़ा-थोड़ा अंधेरा छाने लगा था। उसने रोशनी करने से भी मना कर दिया था। जनवरी का महीना था। शाम को हल्की-हल्की ठंड महसूस होने लगी थी। नौकरानी से शाल मँगवाकर उसने ओढ़ ली थी।

वह सोचने लगी। कभी-कभी ऐसी उदासी का दौर उस पर क्यों आ जाता है। ऐसी उदासी उसकी हड्डियों को मरोड़ने लगती हैं। सब कुछ बहुत व्यर्थ लगने लगता है- बिल्कुल बेमतलब। उस समय न किसी से बात करने का मन करता है, न कुछ करने का। उसे पढ़ने का शौक है। कितनी ही किताबें वह खरीदती रहती है। उसकी बैठक की बीच की मेज़ नई-नई पत्रिकाओं से भरी रहती हैं। पिछले दिनों उसने रॉबर्ट पेन के अंग्रेज़ी उपन्यास का हिंदी अनुवाद खरीदा था- कत्लगाह। यह उपन्यास १९७१ के भारत-पाक युद्ध और बांग्ला देश के निर्माण पर था। उस समय पाकिस्तानी सैनिकों ने बंगालियों पर जो जुल्म किए थे उसकी निर्मम गाथा इस उपन्यास में थी। यह उपन्यास वह लगभग आधा पढ़ चुकी थी। अत्याचारों, नरसंहारों, युद्धों की कथाएँ पढ़ने में उसका मन बहुत रमता था। चंगेज़ खाँ, हलाकू खाँ से लेकर हिटलर तक के नरसंहारों पर छपी हर पुस्तक उसके पास थी।

लेकिन आज उसका मन 'कत्लगाह' पढ़ने में नहीं लग रहा था। लॉन में बैठकर पढ़ने के लिए वह इसे बाहर ले आई थी। उसने दो-चार पृष्ठ पढ़े भी थे। फिर उसका मन उचट गया था। उसने पुस्तक बंद करके एक ओर रख दी थी और आँखें बंद कर ली थीं।

आज उसने अपने बेटे की तस्वीर किसी पत्रिका में देखी थी। उसके कॉलेज की क्रिकेट टीम ने किसी दूसरे कॉलेज की टीम को बुरी तरह हराया था। उसके बेटे ने पूरी सेंचूरी मारी थी। उसे 'मैन ऑफ द मॅच' घोषित किया गया था। वह अब यूनीवर्सिटी टीम का कप्तान बन गया था।

वह उसके बारे में सोचने लगी।

राहूल से मिले, उसको देखे कई महीने गुज़र गए थे। राज्यों में होने वाले चुनावों में वह इतनी व्यस्त रही थी कि उसे सब कुछ भूल गया था। पार्टी कार्यकर्ताओं से वह दिन-रात घिरी रहती थी। उसकी व्यक्ति इकाई जैसे मिट गई थी। पार्टी, कार्यकर्ता, भीड़, नारे, दौरे, प्रचार ही उसमें रह गए थे। हर मिलने वाला चेहरा उसे भीड़ का एक चेहरा लगता था- सिर्फ एक चेहरे के सिवाय... सुधाकर जी का चेहरा। भीड़. चुनाव, प्रचार, बड़ी-बड़ी सभाएँ, धुआँधार भाषण- इन सबके बीच, इन सबसे ऊपर यही एक चेहरा उसके सम्मुख तिरता रहता था।

सुधाकर से उसकी मुलाकात कई वर्ष पहले हुई थी। जिस स्कूल में वह पढ़ाती थी, उसका वार्षिक दिन था। सुधाकर उस समारोह का मुख्य अतिथि बन कर आया था। उस समय वह पार्टी के युवा मोर्चे का अध्यक्ष था। उसे बारे में यह कहा जाने लगा था कि वह पार्टी में बहुत आगे जाएगा, किसी दिन पार्टी का अध्यक्ष भी बन सकता है। पार्टी के अध्यक्ष पटवर्धन जी बड़े होते जा रहे थे। वे प्रायः कहा करते थे कि युवा पीढ़ी को आगे आकर नेतृत्व सँभालना चाहिए। जब वे ऐसा कहते थे, सब की नज़र अनायास सुधाकर की ओर उठ जाती थी।

छह फुट कद वाला सुधाकर सदा बड़ी छोटी मोहरी का पैजामा और लंबा सफेद कुरता पहनता है। उसके पैरों में सदा पेशावरी सैंडल होते हैं। सर्दियों के मौसम में वह कुरते के नीचे पूरी बाँह का सफेद स्वेटर पहनता है और शाल उसके कंधों पर पड़ी होती है।

स्कूल के समारोह का संचालन सविता कर रही थी। जब विद्यार्थियों के पुरस्कार वितरण का समय आया तो वह सुधाकर के बिल्कुल साथ खड़ी थी। कोई अन्य अध्यापिका विद्यार्थी का नाम पुकारती थी और उसे दिया जाने वाला पुरस्कार सविता सुधाकर को पकड़ाती थी। विद्यार्थी आगे आकर पुरस्कार ग्रहण करता था। बीच-बीच में सविता छात्र या छात्रा के संबंध में बहुत धीरे-धीरे सुधाकर को कुछ बताती थी। वह बहुत मुस्कुराते हुए उसकी बात सुनता था।

समारोह पूरा हुआ तो जलपान करते सुधाकर ने कहा, ''सविता जी, आप मंच संचालन बहुत अच्छा करती हैं। आपका शब्दों का चुनाव भी बहुत अच्छा होता है और आपकी वाणी में कितनी मिठास है।''

सविता के चेहरे पर चमक आ गई थी। बड़े कृतज्ञता भरे स्वर में उसने कहा था, ''यह मेरा सौभाग्य है कि आप जैसे लोकप्रिय नेता के मुँह से मैं ऐसे शब्द सुन रही हूँ।''
''मैं अतिशयोक्ति नहीं कर रहा हूँ सविता जी।'' सुधाकर जी आँखों में सचमुच प्रशंसा का भाव था, ''आप जैसी प्रतिभा को तो फलने-फूलने के लिए एक बड़ी दुनिया मिलनी चाहिए।''

विदाई के समय स्कूल की प्रिंसिपल मिसेज मैथ्यू ने सुधाकर से हाथ मिलाया, फिर उसने सविता की तरफ़ हाथ बढ़ा दिया। सुधाकर के हाथों का स्पर्श कई दिन तक उसके शरीर में झनझनाहट बन कर गूँजता रहा।

मनोहर की सरकारी अफसरी और सविता की स्कूल टीचरी से जो मिलता था, उससे उनकी गृहस्थी की गाड़ी दुपहिए स्कूटर की रफ्तार ठीक से पकड़ लेती थी। आम तौर पर मनोहर सविता को सुबह सात बजे स्कूल के दरवाजे पर उतार आता था। राहुल को लेकर उस समय तक कुछ परेशानी हुई जब तक वह तीन साल का नहीं हुआ। उसके बाद सविता उसे अपने साथ ही ले जाने लगी थी।

किसी स्थिर तालाब के किनारे बैठना कितना अच्छा लगता है। पानी में हल्की-हल्की लहरें आती रहती हैं। कभी-कभी कोई चिड़िया या कौवा आकर उसमें चोंच भरता है। पानी में हल्की-सी हलचल होती है। किनारे बैठे लोग भी इतनी शांत स्थिरता देखकर कभी-कभी ऊबने लगते हैं। तब वे किनारे से छोटी-सी कंकरी उठाकर उसमें फेंक देते हैं। पानी में छप-सी होती है। लहरों में कुछ उछाल पैदा हो जाती है। किनारे बैठे व्यक्ति को अच्छा लगता है।

सविता की स्थिर शांत ज़िंदगी के तालाब में सुधाकर एक कंकरी बनकर नहीं, पूरा बड़ा पत्थर बनकर गिरा था।

कुछ सीढ़ियों की बनावट बहुत विचित्र होती है। उसमें ऊपर जाने वाली और नीचे उतरने वाली सीढ़ियाँ साथ-साथ काम करती हैं। जिन सीढ़ियों से व्यक्ति ऊपर चढ़ रहा होता है, पास की ही दूसरी सीढ़ियों से वह नीचे उतर रहा होता है। सविता के साथ भी ऐसा ही हुआ। वह राजनीति की सीढ़ियाँ चढ़ रही थी। सुधाकर युवा मोर्चे से निकल कर पार्टी की मुख्य धारा में आ गया था। जब वह पार्टी का महासचिव बना तो सविता पार्टी के चार सचिवों में शामिल कर ली गई और उसे महिला मोर्चे की ज़िम्मेदारी सौंप दी गई।

नीचे जाने वाली सीढ़ियों में उतनी रोशनी नहीं होती जितनी ऊपर चढ़ने वाली सीढ़ियों में होती है। ऊपर जाने वाली सीढ़ियों पर व्यक्ति मुँह ऊँचा करके चढ़ता है। महत्वाकांक्षाओं का संसार उसे सामने झिलमिलाता दिखाई देता है। नीचे जाने वाली सीढ़ियाँ उतरते समय व्यक्ति नीचे की तरफ देखता है और हर कदम पर फिसल जाने, चूक जाने का डर बना रहता है।

एक दिन मनोहर ने उससे कहा था, ''सविता, जिस रास्ते पर तुम चल पड़ी हो वह कहीं थमने वाला रास्ता नहीं है। एक स्कूल टीचर ऊपर चढ़ता हुआ सीनियर टीचर बन जाता है। ज़्यादा से ज़्यादा प्रिंसिपल बनता है और रिटायर हो जाता है। मेरे जैसा सरकारी अफसर, जिसने ज़िंदगी एल.डी.सी. और यू.डी.सी. से शुरू की हो कहाँ तक जाएगा... सेक्शन ऑफिसर तक... बहुत ज़ोर मारेगा तो अंडर सेक्रेटरी तक। मैं तुमसे यह नहीं कह सकता कि तुम वापस आ जाओ। यह भी सच है कि तुम मुझे कितना भी खींचो मैं तुम्हारे साथ-साथ नहीं चल सकता। हमारे रास्ते भी अलग हो रहे हैं और दिशायें भी।''

सविता गुमसुम-सी उसकी बातें सुन रही थी। पिछले कुछ वर्षों में उसके पारिवारिक जीवन में बहुत अंतर आया था। राहुल अपनी बढ़ती उम्र के साथ स्कूली पढ़ाई के अंतिम पड़ाव पर आ गया था। पहले उसने स्कूल से लंबी छुट्टी ले ली थी। फिर सुधाकर ने उससे कहा था- यह टीचरी-फीचरी छोड़ो और सारा समय पार्टी को दो... चिंता न करो। पार्टी तुम्हारी ज़रूरतों का ध्यान रखेगी।

सुधाकर ने अपनी बात पूरी की। वह उस प्रदेश से राज्यसभा के लिए चुन ली गई जहाँ पार्टी के विधायकों की काफी गिनती थी।

जब लोधी एस्टेट में सविता को एक लंबी-चौड़ी कोठी एलाट हो गई तो उसने मनोहर से कहा, ''अब हम लोग उस कोठी में शिफ्ट कर सकते हैं। अपना यह फ्लैट किराए पर उठा देते हैं। कम से कम छह वर्ष तो हमें वहाँ से कोई नहीं हिलाएगा।''

मनोहर के सामने एक दृश्य घूमने लगा- कोठी पर आने-जाने वालों का तांता लगा हुआ है। वहाँ लगातार एक शब्द गूँजता रहता है... सविता जी... सविता जी...। वहाँ उसका एकमात्र परिचय है- मनोहर मेहरा... सविता जी के पति।

उसे एक और बात सल रही थी। उस कोठी के हर कोने में एक छाया व्यापी हुई होगी, जिसका चेहरा-मोहरा सुधाकर से कितना मिलता-जुलता होगा।

उसने कहा था, ''सविता, मैं यह फ्लैट छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा। तुम कहाँ रहना चाहती हो, यह फैसला तुम कर लो।''
''आप मेरी बात समझते क्यों नहीं?'' सविता ने बड़े अधिकार भरे स्वर में कहा था, ''मैं संसद सदस्य हूँ। पार्टी की सीनियर लीडर हूँ। मुझसे मिलने के लिए सैंकड़ों लोग रोज़ आते हैं। पत्रकारों की भीड़ लगी रहती है। अभी तक मैं पार्टी के ऑफिस से काम चला लेती थी। अब मुझे यह सारा काम अपनी कोठी से करना चाहिए। इसीलिए मुझे राज्य सभा का सदस्य बनाया गया है। इस फ्लैट में तो यह नहीं हो सकता।''

जो हो सकता था, वही हुआ। सविता राहुल को अपने साथ रखना चाहती थी, किंतु मनोहर इसके लिए तैयार नहीं हुआ। राहुल भी अपने पिता के साथ रहना चाहता था। सविता अपनी पुरानी नौकरानी के साथ नई कोठी में आ गई।

वह पीछे कुछ छोड़ आई है, इसका कभी उसे एहसास नहीं हुआ। जिन ऊँचाइयों पर वह उड़ रही थी, वहाँ से पीछे मुड़कर देखने का न ही समय था न कोई अकुलाहट। उड़ते-भागते क्षणों में जब कभी उसे लगता कि उसकी गाड़ी के चक्कों में कुछ चूँ-चूँ होने लगी है तो सुधाकर के कलावे की स्निग्धता उसमें तेल का काम कर देती थी।

लेकिन आज... इस धुँधलाई शाम में... अंधेरे में चुपचाप बैठी वह सोचने लगी- उसका एक अपना घर है, तीन कमरों वाला छोटा-सा फ्लैट है। उसका पति है, जो रोज़ उसे अपने स्कूटर पर बैठाकर स्कूल छोड़ने जाता था और मुड़ने से पहले मुस्कुराता था और उसका हाथ दबाता था। उसका एक बेटा है। वह कॉलेज में पहुँच गया है। क्रिकेट का अच्छा खिलाड़ी है... टीम का कप्तान बन गया है।... उसे याद नहीं कि उसकी मसें कब फूटी थीं। पिछली बार जब उसे देखा था, वह शेव किए हुए था।

एकाएक उसे कुछ चुभने लगा। उसके चारों ओर अंधेरा अधिक गहरा होने लगा। वह सोचने लगी, राहुल धीरे-धीरे कैसे बड़ा हुआ होगा, कब उसकी मसें फूटी होंगी, कब उसने पहली बार शेव किया होगा। उसके सामने मनोहर की तस्वीर भी घूमने लगी। उसके बालों में कितनी सफेदी आ गई है। पिछली बार जब वह उससे मिली थी, वह बता रहा था कि शायद वह प्रीमेच्योर रिटायरमेंट की स्कीम में रिटायरमेंट ले ले। पर... वह सेवा मुक्त होने के बाद करेगा क्या?

वह अंधेरे में आँखें बंद किए बैठी थी।

२५ जनवरी २०१०

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