कलम गही नहिं हाथ
गणतंत्र की प्राचीन परंपरा
इस सप्ताह हम भारत के लिए गर्व और त्याग के
प्रतीक गणतंत्र दिवस के ६० वर्ष पूरे कर रहे हैं। उत्सव और समारोह के
साथ-साथ यह हमारी प्राचीन परंपराओं को फिर से याद करने का दिन भी है।
बहुत कम लोग यह जानते हैं कि विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा लादी गई ३०० साल
की लंबी
पराधीनता के बाद जिस गणतंत्र को हमने १९५० में प्राप्त किया है, उस
गणतंत्रीय प्रणाली की अवधारणा का जन्म भारत में ही हुआ था।
सामान्यत: यह कहा जाता है कि गणराज्यों की
परंपरा यूनान के नगर राज्यों से प्रारंभ हुई थी। लेकिन इन नगर राज्यों से
भी हजारों वर्ष पहले भारतवर्ष में अनेक गणराज्य स्थापित हो चुके थे। उनकी
शासन व्यवस्था अत्यंत दृढ़ थी और जनता सुखी थी। गणराज्य या गणतंत्र का
शाब्दिक अर्थ बहुमत का शासन है। ऋग्वेद, अथर्व वेद और ब्राह्मण ग्रंथों
में इस शब्द का प्रयोग जनतंत्र तथा गणराज्य के आधुनिक अर्थों में किया
गया है। वैदिक साहित्य में, विभिन्न स्थानों पर किए गए उल्लेखों से यह
जानकारी मिलती है कि उस काल में अधिकांश स्थानों पर हमारे यहाँ गणतंत्रीय
व्यवस्था थी। ऋग्वेद के एक सूक्त में प्रार्थना की गई है कि समिति की
मंत्रणा एकमुख हो, सदस्यों के मत परंपरानुकूल हों और निर्णय भी सर्वसम्मत
हों। कुछ स्थानों पर मूलत: राजतंत्र था, जो बाद में गणतंत्र में
परिवर्तित हुआ जैसे कुरु और पांचाल राज्यों में। वहाँ पहले राजतंत्रीय
व्यवस्था थी और ईसा से लगभग चार या पांच शताब्दी पूर्व उन्होंने
गणतंत्रीय व्यवस्था अपनाई। छह सौ ईस्वी पूर्व से दो सौ ईस्वी बाद तक,
भारत पर जिन दिनों बौद्ध धर्म की पकड़ थी, जनतंत्र आधारित राजनीति बहुत
लोकप्रचलित एवं बलवती थी। उस समय भारत में महानगरीय संस्कृति बहुत
तीव्रता से विकसित हो रही थी। पालि साहित्य में उस समय की समृद्ध नगरी
कौशांबी और वैशाली के आकर्षक वर्णन पढ़े जा सकते हैं। सिकंदर के भारत
अभियान को इतिहास के रूप में प्रस्तुत करने वाले डायडोरस सिक्युलस ने
साबरकी या सामबस्ती नामक एक गणतांत्रिक राज्य का उल्लेख किया है, जहाँ के
नागरिक मुक्त और आत्मनिर्भर थे।
आधुनिक गणतंत्र राजनीतिक व्यवस्था को तय
करनेवाली ऐसी प्रणाली है, जो नागरिकों में उनकी अपनी बुद्धि और विवेक
द्वारा
नागरिकताबोध पैदा करने का काम करती है। इसी नागरिकता बोध से उत्पन्न अधिकार चेतना के
द्वारा सत्ता पर जनता का अंकुश बना रहता है। सत्ता या व्यवस्था में बुराई
उत्पन्न होने पर असंतुष्ट जनता उसे बदल सकती है। गणतंत्र में सत्ता को
शस्त्र या पूँजी के बल पर प्राप्त करना संभव नहीं है। लेकिन इसके लिए
जनता का जागृत, शिक्षित और विवेकी होना आवश्यक है। इसके अभाव में
संपूर्ण राष्ट्र उपभोक्तावादी संस्कृति या गलत प्रचार का शिकार होकर
नष्ट भी हो सकता है। इसलिए आवश्यक है कि लंबी पराधीनता के बाद
आज हमने जो यह नई गणतंत्रीय व्यवस्था प्राप्त की है, उसके मूल्यों की
रक्षा हो और राष्ट्रीय विकास के हित में उसका सही प्रयोग हो।
पूर्णिमा वर्मन
२५
जनवरी २०१०
पुनः- कुछ महत्त्वपूर्ण
लेखों के कारण साहित्य समाचार स्तंभ इस बार नहीं प्रकाशित हो रहा है। यह
१ फरवरी के अंक में प्रकाशित होगा। |