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निराला की कविता में राष्ट्र
अक्षयकुमार
यद्यपि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' को
साहित्य में छायावाद का एक स्तंभ माना गया है, तथापि
उनका राष्ट्रवाद अनेक कविताओं में तेजस्वी रूप से
मुखरित होता है। उनकी कविता में राष्ट्रवाद के
अंतर्गत, 'राष्ट्र' को केवल एक राजनैतिक इकाई न मानकर,
एक सांस्कृतिक औऱ सामाजिक उन्नयन की इकाई माना गया।
'राष्ट्र' कोई भौतिकवादी तुच्छ अवधारणा नहीं है, यह एक
सनातन धर्म है जो अपने-आप को उत्तरोत्तर सँवारता और
पुनः परिभाषित करता रहता है।
गांधी जी का स्वराज जहाँ एक ओर वैदिक संस्कृति से
भारतीयता को जोड़ता नज़र आता है, दूसरी और वह पश्चिम
के उदारवादी-मानववाद से भी करीब दिखता है। उस पर भक्ति
संत-कवियों जैसे तुलसी, ज्ञानेश्वर, कबीर, आदि का
प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। निराला जब
काव्य-क्षेत्र में पदार्पण करते हैं, राष्ट्रवाद के
बिखरे और धुँधले बिंब मुखर हो उठते हैं। साम्राज्यवादी
राष्ट्र की कल्पना और एक अपरिभाषित किंतु निश्चित
राष्ट्रवादी भावना, जो भारतीय अस्मिता की सदा से ही
पोषक रही है, मिलकर 'राष्ट्र' की एक अपेक्षाकृत सुदृढ़
अवधारणा को जन्म देती है।
राजनीति के क्षेत्र में, तिलक अपने उग्र राष्ट्रवाद,
सुभाष बोस अपने सैनिकवाद, नेहरू अपने समाजवाद, सावरकर
अपने हिंदु-राष्ट्रवाद, भगत सिंह अपने क्रांतिकारी
राष्ट्रवाद से 'राष्ट्र' की विभिन्न संभावनाओं का
सूत्रपात करते हैं और गांधी के आगमन के पश्चात तो ये
सभी तरह के राष्ट्रवाद संघीभूत होकर एक विराट और समग्र
राष्ट्रवाद को जन्म देते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में,
निराला काव्य भी कई तरह के राष्ट्रवाद को लेकर चलता
है, लेकिन एक निर्बंध क्रांतिकारी की भावना, इस काव्य
की मूल प्रवृत्ति है।
'कुकुरमुत्ता', 'चतुरी-चमार' व 'कुल्लीभाट' जैसी
रचनाओं में निराला समाजवाद के करीब लगते हैं, तो
'तुलसी', 'शिवाजी का पत्र' आदि कविताओं में वे
हिंदू-राष्ट्रवादी प्रतीत होते हैं। गांधी की तरह ही,
निराला को विभिन्न विचारधाराओं ने अपने-अपने स्वार्थ
के लिए प्रयोग किया। उनके काव्य में अद्वैत और
भक्ति-भावना, जो एक तरफ तो संकीर्ण ब्राह्मणवाद और
दूसरी तरह तुच्छ भौतिकवाद का अतिक्रमण करती है- को इन
विचारधाराओं से बँधे आलोचकों व समीक्षकों ने अनदेखा
किया। जिस आत्म-हंता आस्था के साथ निराला रूढ़िवाद का
खंडन करते हैं, हिंदु-राष्ट्रवादी उससे आँखें मोड़
लेते हैं। उनके लिए तो इतना ही पर्याप्त है कि निराला
ने 'तुलसी', 'शिवाजी' और 'राम' को अपने काव्य का मुख्य
कथ्य बनाया।
निराला भी, गांधी की तर्ज़ पर, एक मौलिक 'राष्ट्र' की
कल्पना करने को बेचैन दिखते हैं। उनकी 'राम की शक्ति
पूजा' को सहज ही 'राष्ट्र' की उनकी खोज का एक गहन व
काव्यात्मक फलसफा माना जा सकता है जहाँ वे 'शक्ति की
करो मौलिक कल्पना' का उद्धोष करते हैं। निराला की
''मौलिक शक्ति'' का यदि राजनैतिक शब्दावली में
रूपांतरण किया जाए तो वह गांधी का स्वराज बन जाती है।
कविता की उल्लेखनीय उपलब्धि यह है कि निराला राम को एक
साधारण व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जो रावण
जैसे दैत्याकार साम्राज्यवाद से लड़ते हुए संशयग्रस्त
है-
'स्थिर राघवेंद्र को हिला रहा फिर संशय
रह उठता जगजीवन में रावण जय मय।
घोर
नैराश्य के बावजूद, लड़ना अभी शेष है- ''वह एक और मन
रहा राम का जो न थका।'' स्मरण रहे कि गांधी भी अपने
धर्म-युद्ध में यों ही जूझते हैं- कांग्रेस से
इस्तीफा, अंबेडकर से मतभेद, जिन्नाह की पाकिस्तान की
हठ- ये सभी गांधी के लिए संघर्ष के पड़ाव थे।
बावजूद इसके कि निराला सभी दकियानूसी परंपराओं और
विचार धाराओं का निरंतर अतिक्रमण करते हैं, वे
कहीं-न-कहीं जातीय मिथकों से ऊपर उठ नहीं पाते हैं।
घोर विरोध के क्षणों में भी ये मिथक उनकी काव्य-धारा
के संरचनात्मक फ्रेम बनकर उभरते हैं। लेकिन निराला,
अपने पूर्ववर्ती द्विवेदी कालीन कवियों की भाँति
भारतीय सांस्कृतिक मिथकों का कोई इतिवृत्तात्मक
पुनर्निर्वाह नहीं करते, वे उनमें नई जीवंतता डालते
हैं और समसामयिक संदर्भों से जोड़ते हुए, उन्हें तीखे
आलोचनात्मक स्तर प्रदान करते हैं। मिथकों का प्रयोग
करते हुए भी, उनमें एक गत्यात्मक आंतरिक्ता का सृजन
करते हैं। निराला का 'राम' मर्यादा की भीतरी उठा-पटक
का एक ऐसा विधान पेश करता है, जो भारत के 'राष्ट्र'
होने की एक आंतरिक लड़ाई का महाबिंब बनने की क्षमता
रखता है।
२५
जनवरी २०१० |