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                            विदूषक की तलाशह्रषीकेश सुलभ
 
 
                            विदूषकों की सांस्कृतिक जड़ें भारतीय परंपरा में बहुत 
                            गहरी हैं। मिथक-चरित्रों के बीच नारद जैसे बहुचर्चित 
                            विदूषक का होना विदूषकों की समृद्ध परंपरा की ओर संकेत 
                            करता है। नारद ब्रह्मा को भी वेद सुनाते हैं। अपनी 
                            प्रतिभा और तर्कशक्ति के कारण सबके बीच पूजे जाने वाले 
                            नारद की उपस्थिति वातावरण को व्यंग-हास्य के साथ-साथ 
                            गंभीरता से भी पूरित करती है। अपनी युक्तियों से 
                            बड़े-बड़े महारथियों की बोलती बंद कर देते हैं नारद। 
                            उनके कटाक्ष से अज्ञान और दंभ के मद में चूर इंद्र एवं 
                            अन्य देवताओं की आँखें खुलती हैं। उनके विरोध और उनकी 
                            अवमानना के भयंकर परिणाम देखने को मिलते हैं। नारद की 
                            सलाह और मंत्रणा की आवश्यकता इंद्र जैसे गंभीर और शिव 
                            जैसे शक्तिशाली को भी पड़ती है। अटल समझे जाने वाले 
                            निर्णय भी नारद के सुझाव पर पलक झपकते बदल जाते हैं। 
                            विदूषक नारद की जन पक्षधरता भी मिथकों में सामने आती 
                            है। वह संपूर्ण नाटकीयता के साथ सामाजिक विपक्ष के रूप 
                            में भी उपस्थिति होती है। सामाजिक विपक्ष की तीक्ष्णता 
                            और साहस से भी भरी विदूषकों की यह परंपरा क्या समकालीन 
                            हिंदी रंगमंच पर उपस्थित है। शायद नहीं। यह परंपरा आज 
                            अपने सरोकारों से हट चुकी है। औऱ निरंतर विकृतियों का 
                            शिकार बनती जा रही है। हिंदी रंगमंच पर विदूषक के 
                            चारित्रिक मूल्यों का पतन हुआ है। हिंदी रंगमंच अपने 
                            लिए नई युक्तियों और नए रोग की तलाश में कई स्तरों पर 
                            जूझ रहा है। नए प्रयोग, नए रंग मुहावरों की खोज और नई 
                            दृष्टिखोज के साथ परंपरा से नए संबंधों की प्रक्रिया 
                            जारी है। इस क्रम में विदूषक की क्षमता की नए सिरे से 
                            तलाश का प्रश्न एक महत्वपूर्ण चुनौती के रूप में उभरा 
                            है। 
                            विदूषक संस्कृत-रंगमंच तथा पारंपारिक एवं लोक-रंगमंच 
                            की सर्वाधिक महत्वपूर्ण पात्र है। संस्कृत नाटकों में 
                            इसकी गंभीर उपस्थिति उत्तेजक रंग-अनुभवों से हमारा 
                            साक्षात्कार करवाती है। यह कभी केंद्रीय चरित्र के रूप 
                            में तो कभी केंद्रीय चरित्र के सहयोगी के रूप में 
                            संस्कृत नाटक के कथ्य और शिल्प विधान, दोनों को 
                            प्रभावित करता है। इन नाटकों में विदूषक की भाषा और 
                            संवाद-संरचना का रोचकता और संप्रेषणीयता की दृष्टि से 
                            विशेष महत्व है। विदूषक के लिए जिन रंग युक्तियों का 
                            प्रयोग इन नाटकों में हुआ है, वह इन्हें संसार की किसी 
                            भी भाषा के नाटकों के समकक्ष खड़ा करती है। जिन नाटकों 
                            में नायक राजा है, तो राजा के नर्म सचिव के रूप में 
                            विदूषक उपस्थित। कभी वसंतक, तो कभी नंदन नाम से 
                            संबोधित किया जाने वाला यह चरित्र जब मृच्छकटिक में 
                            मैत्रेय के नाम से एक सामान्य नागरिक चारुदत्त के 
                            मित्र के रूप में आता है, तब अपनी परंपरा के श्रेष्ठतम 
                            चरित्र के रूप में रेखांकित होता है। राजा के साला 
                            शकार पर क्रोध करते हुए वह अपनी सीमा का भी अतिक्रमण 
                            करता है। अपनी चारित्रिक दृढ़ता, संवेदनशीलता और 
                            व्यंग्य की आक्रात्मकता के बल पर विदूषक मैत्रेय 
                            राजसत्ता समर्थित शिकार के विरोध में कई स्थलों पर 
                            अकेले संघर्ष करता है। उसका यह संघर्ष नायक को 
                            समाजोन्मुख तो करता ही है,  एक कलात्मक ऊँचाई भी देता 
                            है। संघर्ष की यह अद्भुत क्षमता ही विदूषक का सामर्थ्य 
                            है, जिसके बल पर समाज से सीधे जुड़ने का गौरव रंगमंच 
                            को मिलता है। 
                            संस्कृत की भाण-परंपरा के अंश आज भी पारंपारिक नाट्य 
                            शैलियों में उपलब्ध हैं। भाण-रूपकों ने संस्कृत का 
                            आलेख एवं प्रस्तुति दोनों स्तरों पर समृद्ध किया। 
                            संस्कृत के चतुर्भाषी संग्रह में विदूषकों की समृद्ध 
                            परंपरा के बीच तलाश आज भी की जा सकती है। संस्कृत भाण 
                            मूलतः एक पात्र द्वारा प्रस्तुत गद्य प्रधान नाट्य 
                            विधा थी। इसका पात्र नेपथ्य की ओर उन्मुख होकर
                            विभिन्न कल्पित पात्रों से संवाद करता था। भाण 
                            के अलावा रासकों में भी विनोद की प्रधानता आवश्यक थी। 
                            एक अंक और पाँच पात्रों वाले रासकों की प्रस्तुति के 
                            नायक के रूप में उच्च कुल के मूर्ख व्यक्ति का चरित्र 
                            निरूपित किया जाता था। यह मूर्ख नायक मूर्खता भरे 
                            कार्यव्यापार से तत्कालीन अभिजन-परंपराओं की रूढ़ियों 
                            को उद्घाटित करता था। एक अंक और दो पात्रों वाले बीथी 
                            रूपकों में व्यंग्य-परिहास और श्लेष की प्रचुरता 
                            विदूषक की उपस्थिति की ओर संकेत करती है। ये बीथी रूपक 
                            आंध्र के 'बीथिनाटकम' से अलग थे। संस्कृत के भाषा 
                            रूपकों की छाया की 'भाँड़जश्न' या 'भाँड़पअथर' शैली पर 
                            भी मिलती है। हालाँकि यह बहुआयामी नाट्य शैली है। 
                            जिसमें संगीत और नृत्य की प्रधानता है। अवधि की भाँड़ 
                            शैली पर भी संस्कृति भाण-परंपरा की विनोदशीलता के 
                            प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। दोनों में कलाकारों के 
                            प्रत्युत्पन्नमतित्व को समान रूप से रेखांकित किया जा 
                            सकता है। 
                            दसवीं शताब्दी में कुलशेखर बर्मन ने संस्कृत नाटकों को 
                            सामान्य जनता से जोड़ने के लिए स्थानीय भाषा में 
                            नाटकों के छायानुवाद की प्रस्तुति के लिए कुट्याट्टम 
                            की प्रथा आरंभ की। केरल की सामान्य जनता के बीच उस समय 
                            मटियेट्टु, तीयाट्टु, यात्रकलि और पराट्टु आदि 
                            लोकशैलियों में प्रदर्शन की परंपरा थी। इन लोकशैलियों 
                            का मुख्य आधार तत्कालीन समाज की विसंगतियों पर विदूषक 
                            का व्यंग्य था। इन शैलियों को नंबूदरी ब्राह्मणों ने 
                            विकसित किया था। इसके साथ-साथ चंपू औऱ भाण शैली में 
                            मंदिरों में अभिनय करने वाले चाक्यार नटों का एक 
                            पात्रीय कुत्तू अभिनय भी बेहद लोकप्रिय था। चाक्यार 
                            नटों ने विदूषकों की परंपरा के विकास में महत्वपूर्ण 
                            भूमिका का निर्वाह किया। संस्कृत और लोकपरंपरा के 
                            संधि-बिंदु पर सृजनरत कुलशेखर वर्मन ने भाषा संगीतकों 
                            के विकास की प्रक्रिया में स्थानीय बोलियों में 
                            सामाजिक परिहास और कुरीतियों पर कटाक्ष की नवीन परंपरा 
                            का आरंभ किया। चाक्यार से संस्कृत नाटकों में विदूषक 
                            बनता और स्थानीय बोलियों में टिप्पणी करता। संस्कृत 
                            रंगमंच से स्थानीय बोलियों से रंगमंच की मिलन (फ्यूजन) 
                            की इस परंपरा के प्रस्थान बिंदु पर विदूषक की उपस्थिति 
                            गौर करने योग्य है। भविष्य की रंग युक्तियों के 
                            निर्माण की दिशा की ओर यह एक महत्वपूर्ण संकेत भी है। 
                            केरल में होने वाले कुटियाट्टम के प्रदर्शनों में हम 
                            आज भी इसकी जडें तलाश कर सकते हैं। इस चाक्यार
                            विदूषक की क्षमता चकित करती है। इसके पास इतनी 
                            प्रतिभा और अभिनय क्षमता होती है कि अपने बहुआयामी 
                            अभिनय के बल पर वह अकेले पूर्वरंग की तीन-तीन रातों तक 
                            दर्शकों को बाँधे रखता है। संस्कृत नाटकों के विदूषकों 
                            की तरह कुटियाट्टम का यह विदूषक भी भोजन प्रेमी 
                            ब्राह्मण होता है। नायक द्वारा संस्कृत में बोले गए 
                            संवादों का वह धाराप्रवाह मलयालम अनुवाद सामान्य 
                            दर्शकों लिए प्रस्तुत करता है। इस अनुवाद में मूल से 
                            अलग कटाक्ष और वक्रोक्ति से भरी अर्थ छवियाँ  होती 
                            हैं। सत्ता की कुरीतियों, राजनीति के कुटिल षड़यंत्रों 
                            और ब्राह्मणवाद के चित्रण के साथ-साथ जनता और 
                            राजसत्ता-धर्मसत्ता के संबंधों पर व्यंग्य करना इस 
                            विदूषक का अधिकार होता है। नासिका स्वर में बोलने वाला 
                            यह विदूषक अपने कान में पान का बीड़ा लगाकर मंच पर आता 
                            है। पान का बीड़ा इस बात का प्रतीक होता है कि वह 
                            राजदंड तक से मुक्त है। वह प्रेक्षागृह में बैठा किसी 
                            भी दर्शक पर चाहे वह राजा या राजकुल का ही क्यों न हो, 
                            व्यंग्य कर सकता है। कोई व्यक्ति उसकी आलोचना नहीं कर 
                            सकता। शब्दों के चतुर शिल्पी इस विदूषक की 
                            आलोचना-शक्ति एवं वाग्मिता बहुत प्रभावशाली होती है। 
                            यज्ञोपवीत, शिखा और अपने अंगवस्त्रं का उपयोग वह अभिनय 
                            के उपकरण के रूप में करता है। राजतंत्र के युग में 
                            विकसित पारंपारिक नाट्य शैली कुटियाट्टम का यह चाक्यार 
                            विदूषक मंच पर जनता का प्रतिनिधि होता है। 
                            मिथिला और नेपाल में क्रमशः कीर्तनिया और कातिक नाच के 
                            नाम से प्रचलित लोक शैलियों का विकास चौदहवीं शताब्दी 
                            के आरंभ में राजा हरिसिंह देव के संरक्षण में विकसित 
                            भाषा-संगीतकों से माना जाता है। उमापति उपाध्याय का 
                            'पारिजातहरण' और ज्योतिरीश्वर ठाकुर का 
                            'भाषार्धूतसमागम' इस काल की युगांतकारी रचना है। 
                            भाषार्धूत समागम का प्रहसन होना विदूषकों की परंपरा की 
                            समृद्धि को प्रकट करता है। संस्कृत रंगमंच के 
                            भाँणों-प्रहसनों में निहित रंग-तत्वों का भरपूर उपयोग 
                            लोकपरंपरा ने किया। आलोचनामूलक सामाजिक प्रश्नों को 
                            आधार बनाकर विविध लोकशैलियों के कथानक रचे गए। कहीं 
                            कथानकों के प्रभाव में विदूषक के चरित्र का निर्माण 
                            हुआ, तो कहीं विदूषक की युक्तियों को आधार बनाकर कथानक 
                            को रचा गया। इस तरह संस्कृत और लोकपरंपरा में विदूषक 
                            एक रूढ़ पात्र के रूप में स्थापित हुआ। किसी 
                            शैली विशेष की सभी प्रस्तुतियों में विदूषक को एक ही 
                            नाम से पुकारे जाने की प्रथा भी पाई जाती है। कर्नाटक 
                            के दोड़ट्टा नाट्य में विदूषक ही सूत्रधार होता है और 
                            इसे एक ही नाम अडासोगु से पुकारा जाता है। मालवा की 
                            माच शैली के विदूषक का नाम शेरमार खाँ होता है। 
                            संस्कृत नाटकों के विदूषक की तरह ही शेरमार खाँ भी 
                            नायक का मित्र होता है। नायक चाहे किसी भी काल और 
                            परिवेश का पात्र हो उसके विदूषक के साथी शेरमार खाँ 
                            नाम से ही संबोधित किया जाता है। माच का यह विदूषक 
                            समर्थ अभिनेता होने के साथ-साथ प्रस्तुति में एक 
                            महत्वपूर्ण पात्र होता है। यह स्थानापन्न नायक भी होता 
                            है। नायक की भूमिका कर रहे अभिनेता के विश्राम काल में 
                            यही नायक होता है। नायक प्रतीक स्वरूप अपनी तलवार 
                            विदूषक को सौंप देता है। और वह तलवार पकड़ते ही नायक 
                            में रूपांतरित हो जाता है। मेलात्तूर के भागवत मेल 
                            शैली के विदूषक का नाम कोनंगी होता है। कोनंगी यानी 
                            वक्र, ललाट पर वैष्णव तिलक, बढ़ी हुई दाढ़ी, मूछें, 
                            नीला अंगवस्त्र एक हाथ में माला और दूसरे हाथ में धवल 
                            वस्त्र वाले कोनंगी के सिर पर होती है तिरछी टोपी। धवल 
                            वस्त्र कुदृष्टि से बचाव का प्रतीक है। वैष्णव भक्तों 
                            की वेषभूषा के अतिरंजना के साथ धारण करने वाला कोनंगी 
                            विदूषक शासक की तरह मंच और प्रेक्षागृह का संचालन करता 
                            है। वह दर्शकों को शांत रहने का भी आदेश देता रहता है।
                             
                            रासलीला के विदूषक का नाम मनसुखा होता है। यह मूर्खता 
                            की हद तक भोलाभाला होता है। यह निरंतर गोपियों के 
                            छेड़छाड़ का केंद्र बना रहता है। मिथिला की लोकनाट्य 
                            शैली कीर्तनिया अब समाप्त हो चुकी है। इसके और नेपाल 
                            के कातिक नाच के अवशेष के रूप में विदूषक और सूत्रधार 
                            बिदापत नाच में कुछ वर्षों पहले उपस्थित थे। यहाँ 
                            विदूषक को विपटा और सूत्रधार को मूलगाइन नाम से जाना 
                            जाता है। मूलगाइन के बाद विपटा प्रस्तुति का 
                            महत्वपूर्ण चरित्र होता है। मूलगाइन संगीत प्रमुख के 
                            साथ-साथ प्रस्तुति का नियंत्रक अवश्य होता है परंतु 
                            विपटा के अभिनेता और चरित्र के रूप में प्रस्तुति की 
                            संरचना के केंद्र में होता है। जमीनिका यानी पूर्व रंग 
                            के बाद विपटा ही नाटक आरंभ करता है। उसे कथा में कहीं 
                            भी हस्तक्षेप की अनुमति रहती है। वह प्रस्तुति में 
                            आरंभ से अंत तक उपस्थित रहता है। हिमाचल के लोकनाट्य 
                            'करियाला' का विदूषक भी एख महत्त्वपूर्ण चरित्र होता 
                            है।  
                            बिहार की लोकनाट्य शैली बिदेसिया का विदूषक अपनी अभिनय 
                            प्रतिभा और सामाजिक कुरीतियों-विषमताओं को विश्लेषित 
                            करने वाली सार्थक दृष्टि के कारण आधुनिक रंगमंच को नई 
                            रंग उत्तेजना देता है। इसे 'लबार' नाम से पुकारा जाता 
                            है भिखारी ठाकुर के नाटकों में यह विनोदपूर्ण भाषा में 
                            सामाजिक समस्याओं पर निरंतर आक्रमण करता है। कई बार यह 
                            अपना स्वभाव बरकरार रखते हुए दूसरे चरित्रों की भूमिका 
                            भी निभाता है। इसे भी यह छूट हासिल है कि वह कथा में 
                            अपने प्रश्नों टिप्पणियों के साथ बिना किसी पूर्व 
                            सूचना के प्रवेश करे और भय तथा दुख देने वाली 
                            स्थितियों की तरफ़ संकेत करते हुए मंच से गायब हो जाए। 
                            अभिनय की अकूत क्षमता से भरे लबार नामक इस विदूषक के 
                            कई उपनाम भी हैं। हर बार अपनी उपस्थिति से प्रस्तुति 
                            की संरचना को तोड़कर नई संरचना की भूमि सौंपने के कारण 
                            इसे गड़बड़िया, विचित्र वेशभूषा के कारण कभी 'चितकबरा' 
                            तो कभी गर्ममिजाज होने के कारण 'धिकला' नाम से भी 
                            संबोधित किया जाता है। खरी बातें करने के कारण 
                            बिदेसिया इस सजग और चपल विदूषक की नियति है- पिटते 
                            रहना। 
                            संस्कृत रंगमंच से लेकर लोकनाट्यधर्मी रंगपरंपरा के 
                            व्यापक विस्तार में हर जगह उपस्थित है- विदूषक। मध्य 
                            काल में जब संस्कृतिकर्म विरूप हो रहा था और सत्ता का 
                            शिकंजा कसता जा रहा था, रंगमंच पर विपक्ष का प्रतिनिध 
                            विदूषक ही था। जो अपनी धार के साथ जूझ रहा था। बीसवीं 
                            शताब्दी में यह दबाव गहराता गया और हमारा विदूषक भी इस 
                            दबाव से पूरी तरह बच नहीं सका। हिंदी रंगमंच पर यह 
                            उपस्थित तो है पर संकट में है। वर्तमान दौर में 
                            सत्ताधारियों ने उसकी चिंता और दृष्टि को दरकिनार कर 
                            उसकी भाषा और हरकतें चुरा ली हैं। सत्ता पाने की आशा 
                            में जोड़तोड़ कर रहे विपक्षियों का भी यही हाल है। ऐसी 
                            स्थिति में आधुनिक रंगमंच को अपनी विदूषक को फिर 
                            गढ़ना-खोजना होगा। अपनी जातीय परंपराओं के सहारे हिंदी 
                            रंगमंच अपने लिए रंगयुक्तियों की तलाश की प्रक्रिया से 
                            गुजर रहा है। हमारे रंगमंच का विदूषक भी इसी प्रक्रिया 
                            से उपजेगा। अमानवीय और यातनादायक जीवन से मुक्ति का 
                            प्रयास किसी भी दौर में नहीं रुकता। विदूषक इस मुक्ति 
                            प्रयास में सहयोगी उपकरण रहा है। वह हमेशा शुभ मूल्यों 
                            के पक्ष में अशुभ मूल्यों की धज्जियाँ उड़ाता रहा है। 
                            आधुनिक हिंदी रंगमंच के लिए नए विदूषक की खोज में सबसे 
                            सार्थक प्रयास वंशी कौल की प्रस्तुतियों में देखा जा 
                            सकता है। इस संदर्भ में उनका रंग-चिंतन संभावनाओं के 
                            नए द्वार खोलता है। वर्षों पहले एक साक्षात्कार में 
                            वंशी कौल ने कहा था कि आने वाले कल का विदूषक विचारक 
                            होगा। 
                            १८ 
                            जनवरी २०१० |