मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


पर्व परिचय                      

पोंगल- संक्रांति का महा उत्सव
रमेश चंद्र द्विज


पोंगल तमिल और दक्षिण भारत तथा श्रीलंका, मलेशिया, मॉरिशस, अमेरिका, कनाडा, सिंगापुर आदि अन्य कई स्थानों पर रहने वाले भारतीयों में व्यापक रूप से मनाया जानेवाला एक प्रमुख त्योहार है जो प्रति वर्ष संक्रांति के दिन १४ या १५ जनवरी को मनाया जाता है। यह फसल की कटाई का उत्सव है, जिसमें नवान्न का भी बहुत महत्त्व है। पोंगल का तमिल में अर्थ है उबालना। तीन दिन के इस पर्व में सूर्य की पूजा, पशु धन की पूजा और सामूहिक स्तर गीत-संगीत से भरपूर आनंद का ऐसा उबाल उमड़ता है कि इस पर्व का नाम सार्थक हो जाता है। इस पर्व का नाम पोंगल इसलिए भी है क्योंकि इस दिन सूर्य देव को जो प्रसाद अर्पित किया जाता है वह पोंगल कहलता है। पोंगल तमिल कैलेंडर का नववर्ष भी है और तमिलनाडु के प्रायः सभी सरकारी संस्थानों में इस दिन अवकाश रहता है।

सूर्य को पोंगल त्योहार का प्रमुख देवता माना जाता है। तमिल साहित्य में भी सूर्य का यशोगान उपलब्ध है। गोवर्धन व पोंगल में पशुधन व घर के हर जानवर को स्नान कराया जाता है। बैलों और गौमाता के सींग रंगे जाते हैं। उन्हें स्वादिष्ट भोजन पकाकर खिलाया जाता है। सांडों-बैलों के साथ भाग-दौड़ कर उन्हें नियंत्रित करने का जश्न भी होता है। यह खतरनाक खेल है और बहादुरी की माँग करता है। वर्षों पूर्व पोंगल कन्याओं द्वारा बहादुरी दिखाने वाले युवकों से विवाह करने का पर्व भी हुआ करता था लेकिन बदलते समय के साथ यह परंपरा आज देखने में नहीं आती है।

पोंगल पर्व का प्राचीनतम ऐतिहासिक उल्लेख 200 वर्ष ईसा पूर्व से 300 वर्ष ईसापूर्व ग्रंथों में प्राप्त होता है। लेकिन द्रविण शस्य उत्सव के रूप में इसका उल्लेख इससे बहुत पूर्व पुराणों में भी है। इतिहास विशेषज्ञों का मानना है कि तमिल साहित्य के स्वर्ण काल “संगम युग” (600 से 200 वर्ष ईसा पूर्व) में वर्णित थाई उन तथा थाई निरदल नामक पर्व पोंगल के ही प्राचीव स्वरूप हैं। पल्लवों के शासन काल में इस पर्व के विशाल आयोजन का वर्णन मिलता है। आण्डाल की तिरुप्पवाई तथा मणिकवचकर की तिरुवेम्बवाई में इसके विस्तृत और अलंकृत वर्णन मिलते हैं। तिरुवल्लूर के वीर राघव मंदिर में प्राप्त एक शिलालेख में कहा गया है कि चोल राजा किलुतुंगा पोंगल के अवसर पर प्रजा को भूमि और मंदिर दान करता था

पोंगल का उत्सव चार दिनों तक चलता है। हर दिन के पोंगल का अलग अलग नाम होता है। पहली पोंगल को भोगी पोंगल कहते हैं जो देवराज इन्द्र को समर्पित हैं। भोगी देवराज इंद्र का ही एक नाम है। इंद्र वर्षा के देवता हैं और इस दिन अच्छी फ़सल के लिए इंद्र से अच्छी वर्षा की प्रार्थना की जाती है। इस दिन संध्या समय अलाव जलाया जाता है तथा अग्नि के इर्द गिर्द युवा भोगी कोट्टम बजाते हुए रात भर खूब गाते नाचते हैं। भोगी कोट्टम भैंस के सींग से बना एक प्रकार का ढोल होता है।

दूसरी पोंगल को सूर्य पोंगल कहते हैं। यह भगवान सूर्य को निवेदित होता है। इस दिन पोंगल नामक एक विशेष प्रकार की खीर बनाई जाती है जो मिट्टी के बर्तन में नये धान से तैयार चावल मूंग की दाल और गुड से बनती है। पोंगल तैयार होनेके बाद सूर्य देव की विशेष पूजा की जाती है और उन्हें प्रसाद रूप में यह पोंगल व गन्ना अर्पित किया जाता है और फ़सल अच्छी हो इसका वरदान माँगा जाता है।

तीसरे पोंगल को मट्टू पोगल कहा जाता है। तमिल मान्यताओं के अनुसार मट्टू भगवान शंकर का बैल है जिसे एक भूल के कारण भगवान शंकर ने पृथ्वी पर रहकर मानव के लिए अन्न पैदा करने के लिए कहा और तब से पृथ्वी पर रहकर कृषि कार्य में मानव की सहायता कर रहा है। इस दिन किसान अपने बैलों को स्नान कराते हैं उनके सींगों में तेल लगाते हैं एवं नाना प्रकार से उन्हें सजाते है। बैलों को सजाने के बाद उनकी पूजा की जाती है। बैल के साथ ही इस दिन गाय और बछड़ों की भी पूजा की जाती है। कही कहीं लोग इसे केनू पोंगल के नाम से भी जानते हैं जिसमें बहनें अपने भाईयों की खुशहाली के लिए पूजा करती है और भाई अपनी बहनों को उपहार देते हैं।

चार दिनों के इस त्यौहार के अंतिम दिन कन्या पोंगल मनाया जाता है जिसे तिरूवल्लूर के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन घर को सजाया जाता है। आम के पलल्व और नारियल के पत्ते से दरवाजे पर तोरण बनाया जाता है। महिलाएँ इस दिन घर के मुख्य द्वारा पर कोलम यानी रंगोली बनाती हैं। इस दिन पोंगल बहुत ही धूम धाम के साथ मनाया जाता है लोग नये वस्त्र पहनते है और दूसरे के यहां पोंगल और मिठाई उपहार के रूप में भेजते हैं। इस पोंगल के दिन ही बैलों की लड़ाई होती है जो काफी प्रसिद्ध है। रात्रि के समय लोगसामुदिक भो का आयोजन करते हैं और एक दूसरे को मंगलमय वर्ष की शुभकामना देते हैं।

केरल के राजधानी नगर तिरुवनंतपुरम से तीन किमी की दूरी पर स्थित अट्टूकल के विख्यात काली माता मंदिर का भव्य, शानदार और अनूठा पोंगल महोत्सव दुनियाभर में मशहूर है। इस महोत्सव की खास बात यह है कि इसमें केवल स्त्रियां ही भाग लेती हैं। इस पवित्र अवसर पर स्त्रियां नैवेद्य तैयार कर मातृस्वरूपिणी काली माता को चढ़ाती हैं। गिनीज बुक ने प्रमाणित किया कि २३ फरवरी १९९७ के पोंगल महोत्सव में १५ लाख महिलाओं ने हिस्सा लिया था। यह अवलोकन किया गया कि दुनियाभर में स्त्रियों के किसी धार्मिक पर्व में इतनी महिलाएं अन्यत्र कभी इकट्ठा नहीं हुईं। इसे २००६ में गिनीज बुक में दर्ज किया गया था।

पोंगल महोत्सव के साथ मदुरै की कण्णकी और उनके पति कोवलन की कथा जुड़ी हुई है। कहा जाता है कि गरीबी के कारण कोवलन नामक एक युवक अपनी पत्नी कण्णकी का एक नूपुर बेचने के लिए सुनार के पास गया। सुनार ने इसकी सूचना राजा को दी क्यों कि वह नूपुर पांड्यराजा की रानी के खोए हुए नूपुर मिलता जुलता था। कोवलन पर चोरी का आरोप लगा और उसे मृत्युदंड सुनाया गया। जब कण्णकी को यह समाचार मिला तो उसने शिवजी की कठिन तपस्या कर के अन्यायी पांड्यराजा के वध और उसकी राजधानी मदुरै नगर को अग्नि से नष्ट हो जाने का वरदान माँग लिया। पाड्यराजा और उसकी नगरी को बचाने के लिए अट्टुकल (किल्लियार नदी के किनारे) में राज्य की स्त्रियों ने देवी काली को मंगल गान के साथ पोंगल चढ़ाकर कण्णकी के रौद्रभाव को शांत करने और उसमें मातृत्व जगाने में सफलता प्राप्त की। ऐसी मान्यता है कि इससे प्रसन्न होकर देवी अपने सभी भक्तों को सुख, शांति, समृद्धि और ऐश्वर्य का आशीर्वाद देकर अट्टुकल में विराजने लगीं। आज भी यहाँ पोंगल के अवसर पर हज़ारों महिलाएँ चूल्हे जलाकर पोंगल पकाती हैं और सूर्य को अर्पित करती हैं।

९ फरवरी २०१०

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।