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पिछले सप्ताह गौरव
गाथा में जब मेहमान बैठ गये और मां पर से सबकी आंखें हट गयीं, तो मां धीरे से कुर्सी पर से उठीं, और सबसे नज़रें बचाती हुई अपनी कोठरी में चली गयीं। मगर कोठरी में बैठने की देर थी कि आंखों में छलछल आंसू बहने लगे। वह दुपट्टे से बारबार उन्हें पोंछतीं, पर वह बारबार उमड़ आते, जैसे बरसों का बांध तोड़कर उमड़ आये हों। मां ने बहुतेरा दिल को समझाया, हाथ जोड़े, भगवान का नाम लिया, बेटे के चिरायु होने की प्रार्थना की, बारबार आंखें बन्द कीं, मगर आंसू बरसात के पानी की तरह जैसे थमने में ही न आते थे।
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रसोई
घर में
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कहानियों
में खांसते
खांसते श्यामलाल को निद्रादेवी ने कब थपकियां देकर सुलाया उसे
पता ही नही चला और फिर उसने वही सपना देखा गौरी कच्चे आंगण
को लीप रही थी। सुबह की पहली किरण खिली हुई थी और ठन्डी ताजा
हवा जैसे तपे हुए जिस्म को सहला रही थी। दूर कहीं मंदिर की
घंटियों की आवाज वातावरण को संगीतमय बना रही थी। ° परिक्रमा
में ° यू के में हिन्दी °
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विज्ञान
वार्ता में
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फुलवारी में ° दिल्ली दरबार |
अभिनंदनपत्र।आज सिरहाने।आभार।उपहार।कहानियां।कला दीर्घा।कविताएं।गौरवगाथा।घरपरिवार |
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प्रकाशन : प्रवीन सक्सेना
परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन, कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन सहयोग : दीपिका जोशी
तकनीकी
सहयोग :प्रबुद्ध कालिया
साहित्य संयोजन :बृजेश कुमार
शुक्ला