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खाँसते खाँसते श्यामलाल को
निद्रादेवी ने कब थपकियाँ देकर सुलाया उसे पता ही नही चला और
फिर उसने वही सपना देखा— गौरी कच्चे आँगण को लीप रही थी। सुबह
की पहली किरण खिली हुई थी और ठन्डी ताजा हवा जैसे तपे हुए
जिस्म को सहला रही थी। दूर कहीं मंदिर की घंटियों की आवाज
वातावरण को संगीतमय बना रही थी। “आज जरा जल्दी आना... याद है
ना? आज अष्टमी का व्रत है। कोई उल्टी–सीधी चीज न खा लेना बाहर।
मैं इन्तजार करूँगी। उपवास इकटठे तोडेंगे। मुझे उम्मीद है माँ
शारिका हमारी पुकार जरूर सुनेंगी। मैंने तुला मुला में मन्नत
माँगी है। मैं अबकी बार माँ जरूर बनूँगी कोई मुझे भी माँ कहकर
बुलाएगा।”
कहते कहते गौरी की आँखों में आँसू छलक पडे। १५ साल हो गए थे
उनकी शादी को पर अभी तक कोई उनके सूने आँगन में खेलने वाला न
आया। श्यामलाल ने उसे एक दूर के रिश्तेदार का बच्चा गोद लेने
के लिये समझाया था पर गौरी न मानी थी उसे विश्वास था कि उसका
अपना बच्चा जरूर होगा। इसीलिए उसने सारे जतन किऐ थे। कोई पीर
फकीर कोई देव स्थान, कोई मंदिर या मसजिद नहीं छोड़ी जहाँ उसने
मन्नत ना माँगी हो। सच है माँगने वाले को धर्म की भिन्नता से
क्या मतलब, उसे तो अपनी इच्छा पूरी होने से मतलब।
फिर वह दिन भी आ गया जब गौरी के सब धर्मों के दाता उस पर
प्रसन्न हुऐ और वह गर्भवती हुई और ठीक समय पर उसने चाँद से
बेटे को जन्म दिया माँ बाप ने चाव से उसका नाम दुर्गाप्रसाद
रखा। |