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                       नैनोटेक्नॉलॉजी या फिर जादुई चिराग
 —डा गुरू 
						दयाल प्रदीप
 
 अगर मैं 
						कहूँ कि निकट भविष्य में उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण में 
						लगी मशीनों का आकार छोटा होते–होते इतना छोटा हो जाएगा कि 
						हजारों ऐसी मशीनें इस पन्ने के एक वाक्य में समा जाएँगी तो 
						आप कहीं आँखें फाड़ कर इस वाक्य को ही न घूरते रह जाइएगा। 
						विज्ञान की इस नई विधा को नैनोटेक्नॉलाजी का नाम दिया गया 
						है। आगे मैं आप को इसके बारे में और भी बहुत कुछ बताने 
						वाला हूँ, जो आँखों के साथ–साथ आप के दिल–दिमाग को भी चकरा 
						कर रख देगा। 
 अगले पचास सालों में ही हम इन नैनोमशीनों का उपयोग कर 
						अणुओं एवं परमाणुओं को एक–एक कर जोड़ सकेंगे और इसी स्तर पर 
						क्रिकेट की गेंद से लेकर टेलीफोन, कार, हवाई जहाज, कम्प्यूटर 
						सभी कुछ, मनचाहे पदार्थ द्वारा किसी भी आकार–प्रकार में 
						बना पाएँगे। साथ ही इनकी क्षमता भी हजारों गुना अधिक होगी। 
						क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि इस टेक्नॉलॉजी की मदद से हम 
						एमआइपीएस क्षमता वाले बैक्टीरिया के आकार के कंप्यूटर्स से 
						ले कर अरबों लैपटॉप्स की क्षमता से युक्त चीनी के क्यूब के 
						आकार के कंप्यूटर्स अथवा खरबों डेस्क टॉप की क्षमता युक्त 
						आजकल के पीसी के आकार के कंप्यूटरों का निर्माण कर 
						पाएँगे? या फिर ऐसे नैनोबॉट्स का निर्माण संभव होगा जो 
						हमारे शरीर के ऊतकों में घुस कर वाइरस और कैंसर कोशिकाओं 
						की आणविक संरचना को पुनर्गठित कर उन्हें निष्क्रिय कर दें? उपरोक्त उदाहरण तो बस नमूने के तौर पर हैं। भविष्य 
						में इस टेक्नॉलॉजी से जुड़ी संभावनाएँ अनंत हैं, वास्तविक 
						हैं, मात्र कोरी कल्पना नहीं।
 
						वैज्ञानिकों का तो यहाँ तक मानना है कि नैनो टेक्नॉलॉजी 
						द्वारा चिकित्सा, इलेक्ट्रॉनिक्स, यातायात, अंतरिक्ष 
						विज्ञान से लेकर छोटे–बड़े सभी प्रकार के उपभोक्ता वस्तुओं 
						के निर्माण तथा उपयोग के क्षेत्र में एक नई क्रांति आने 
						वाली है और तब हमें आजकल की बड़ी–बड़ी मशीनों एवं औद्योगिक 
						इकाइयों तथा कारखानों की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। आखिर, यह 
						नैनो टेक्नॉलॉजी है क्या चीज और कैसे इसकी मदद से सारी 
						दुनिया को बदलना संभव हो पाएगा–आइए, इसे समझने का प्रयास 
						किया जाए।  किसी भी 
						पदार्थ को परमाणविक पैमाने ह्यनैनो स्केलहृ पर नियंत्रित 
						ढंग से जोड़–तोड़ कर अपनी इच्छानुसार नए रूप में परिवर्तित 
						करने लेने की विधा का नाम नैनोटेक्नॉलॉजी है। 
						लगभग चालीस साल पहले रिचर्ड फिनमैन ने इस अवधारणा का सुझाव 
						दिया था और १९७४ में नॉरियो तानीगूची ने इसका नामकरण किया।
						 इस 
						ब्रह्माण्ड में पाई जाने वाली सभी वस्तुओं की संरचना के 
						मूल में परमाणु हैं या फिर थोड़े से जटिल रूप में इन 
						परमाणुओं से निर्मित अणु हैं। किसी भी वस्तु का गुण उसकी 
						संरचना में प्रयुक्त परमाणुओं एवं अणुओं के विन्यास पर 
						निर्भर करता है। किसी भी वस्तु के अणुओं एवं परमाणुओं को 
						पुनर्व्यवस्थित कर इसे दूसरी वस्तु में आसानी से बदला जा 
						सकता है। कोयले की संरचना में प्रयुक्त कार्बन के 
						परमाणुओं को पुनर्व्यवस्थित कर हीरे में बदला जा सकता है 
						या फिर बालू के परमाणुओं को पुनर्व्यवस्थित कर और उसमें 
						थोड़ी सी अशुद्धि मिला कर कंप्यूटर चिप्स में बदला जा सकता 
						है । इससे भी आगे बढ़ कर कीचड़, पानी और हवा में पाए जाने 
						वाले परमाणुओं को पुनर्व्यवस्थित कर घास से ले कर इंसान 
						तक सब कुछ सीधे–सीधे बनाकर ‘क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा, 
						पंच तत्व से बना शरीरा’ की कहावत को ही चरितार्थ किया जा 
						सकता है। या फिर हवा में चुटकी बजा कर महल भी बनाया जा 
						सकता है अथवा किसी भी वस्तु को आँखों के सामने से गायब भी 
						किया जा सकता है। हैं न ये करिश्माई ओर जादुई बातें? लेकिन 
						क्या वाकई यह सब संभव है? और यदि सब संभव है, तो अब तक हम 
						ऐसा क्यों नही कर पाए एवं भविष्य में हम ऐसा क्यों और कैसे 
						कर पाएँगे–अब आइए, हम इन सब बातों पर विचार करें। 
						 पाषाण 
						युग से वर्तमान युग तक के लंबे सफर में मानव सभ्यता ने समय 
						की गति के साथ, अपनी सुविधा एवं आवश्यकतानुसार, प्रकृतिक 
						संसाधनों द्वारा पत्थर से बने औजार एवं चाकू से ले कर 
						आधुनिक हथियार, कंप्यूटर, टीवी, मोटर, हवाई जहाज, मोबाइल 
						फोन, अंतरिक्ष यान आदि क्या नहीं बना डाला। नि:संदेह दिन 
						प्रतिदिन परिमार्जित होती जा रही तकनीकि के कारण इनकी 
						गुणवत्ता बढ़ती जा रही है साथ ही लागत में लगातार कमी आती 
						जा रही है, परंतु हमारी आधारभूत निर्माण तकनीकि में कोई 
						विशेष परिवर्तन नहीं आया है। कारखानों तथा औद्योगिक 
						ईकाइयों में छिनाई, घिसाई, कुटाई, पिसाई, ढलाई जैसी पुरानी 
						तकनीकि का उपयोग हम आज भी कर रहे हैं। चाहे एक पत्थर के 
						टुकड़े को घिस कर चाकू या भाले का रूप देने वाला आदि मानव 
						हो या फिर छेनी–हथौड़ी से पत्थर को विशेष आकार दे कर 
						बड़े–बड़े स्मारक बनाने वाला मध्य युगीन मानव अथवा पत्थर, 
						धातुओं आदि को कूट–पीस या गला कर मनचाहे आकार में ढाल कर 
						तरह–तरह के उपकरण तथा उपभोक्ता वस्तुएँ बनाने वाला आधुनिक 
						मानव, वह आधारभूत रूप से अब भी कच्चे माल के अणुओं एवं 
						परमाणुओं को पुनर्व्यवस्थित करने की प्रक्रिया में ही लगा 
						हुआ है।  
						ज्ञान–विज्ञान के क्षेत्र में इतनी प्रगति के बावजूद उसके 
						उपकरण तथा तकनीकि इतने अपरिष्कृत हैं कि किसी भी वस्तु के 
						निर्माण की प्रक्रिया में अब भी हजारों, लाखों अणु तथा 
						परमाणु एक बडे. समूह में अव्यवस्थित ढंग से प्रतिस्थापित 
						होते हैं। इस प्रकार इनका अपव्यय तो होता ही हैऌ साथ ही नई 
						वस्तु की संरचना में इनके अवांछित स्थान पर अनावश्यक 
						मात्रा मे जमाव के कारण उसका रूप भी पूर्ण रूपेण सटीक एवं 
						शुद्ध नहीं होता। फर्क सिर्फ इतना है कि आदिमानव तथा मध्य 
						युगीन मानव को पदार्थों की आणविक एवं परमाणुविक संरचना का 
						ज्ञान नहीं था, जब कि आधुनिक मानव को इसका ज्ञान है। इस 
						प्रक्रिया में आवश्यकता से कई गुना अधिक ऊर्जा भी खर्च 
						होती है।  काश, हम 
						ऐसी तकनीकि एवं उपकरणों का विकास कर पाते जो किसी भी 
						वांछित वस्तु के निर्माण में प्रयुक्त होने वाले सभी 
						प्रकार के अणुओं एवं परमाणुओं की सही पहचान कर, उन्हें 
						आस–पास की मिट्टी, हवा, पानी या किसी भी प्राकृतिक संसाधन 
						से उपयुक्त मात्रा में अलग कर सकें तथा उस वस्तु की संरचना 
						के अनुसार उन्हें सटीक रूप से।  
						पुनर्व्यवस्थित कर सीधे–सीधे वांछित वस्तु का निर्माण कर 
						सकें। आखिर हमें कोयला पाने के लिए खदानों में जा कर इतनी 
						मेहनत क्यों करनी चाहिए जब कि इसकी संरचना में प्रयुक्त 
						कार्बन के परमाणु हमारे आस–पास की मिट्टी, हवा, पेड़–पौधों 
						आदि में विभिन्न यौगिकों के रूप में प्रचुर मात्रा में 
						उपलब्ध हैं। या फिर इन्हीं कार्बन के परमाणुओं से बने हीरे 
						को खदानों से निकाल कर उसे तराशने में अपनी ऊर्जा एवं समय 
						की बरबादी क्यों करनी चाहिए।  उपरोक्त 
						तकनॉलॉजी के विकास के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता ऐसे उपकरणों 
						की है जो वांछित वस्तु की संरचना में प्रयुक्त होने वाले 
						अणुओं एवं परमाणुओं को आस–पास के उपलब्ध प्राकृतिक 
						संसाधनों से पहचान कर सही मात्रा में अलग कर उन्हें नए ढंग 
						से व्यवस्थित कर सकें। जब बात परमाणविक स्तर पर असेंब्ली 
						की हो रही है तो जाहिर है कि ऐसे असेंब्लर्स भी उसी स्तर 
						के होने चाहिए एवं उनमें इतनी क्षमता तथा ऊर्जा होनी चाहिए 
						कि वे वांछित अणुओं या परमाणुओं को उपलब्ध यौगिकों से 
						आसानी से अलग कर सकें। ध्यान रहे, ये अणु–परमाणु किसी भी 
						यौगिक में मजबूत रसायनिक बांड से बँधे रहते है जिन्हें 
						तोड़ कर इन अणुओं–परमाणुओं को अलग करने वाले उपकरणों के पास 
						पर्याप्त ऊर्जा होनी चाहिए। 
 आखिर कैसे और कहाँ से हम ऐसे सूक्ष्म उपकरणों एवं तकनॉलॉजी 
						को विकासित करने का सपना देख रहे हैं, जो आणविक–परमाणविक 
						पैमाने पर उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण में सहायक हो? तो 
						उत्तर है– नैनोअसेंब्लर्स एवं नैनोटेक्नॉलॉजी।
 इसे 
						अच्छी तरह समझने के लिए सबसे पहले परमाणविक पैमाने 
						‘नैनोमीटर’ को जानना होगा। एक मीटर के अरबवें हिस्से को 
						नैनोमीटर कहते हैं। यह कितना छोटा है इसका अनुमान इसी बात 
						से लगाया जा सकता है कि हमारे एक बाल की मोटाई लगभग चालीस 
						हजार नैनोमीटर होती है या फिर एक नैनोमीटर में ३–५ परमाणु 
						समा सकते हैं।  उल्लिखित 
						नैनोअसेंब्लर्स का आकार भी कुछ ही नैनोमीटर्स का होना 
						चाहिए, तभी वे इतने सूक्ष्म स्तर पर कार्य कर सकते हैं।
						 ऐसे 
						अतिसूक्ष्म नैनोअसेंब्लर्स के निर्माण एवं नैनोटेक्नॉलॉजी 
						के विकास की प्रेरणा वैज्ञानिकों को संभवत: प्रकृति से ही 
						मिली है। एक जैविक कोशिका के निर्माण, वृद्धि तथा कार्यकी 
						में मूल रूप से डीएनए एवं आरएनए जैसे प्राकृतिक 
						नैनोअसेंब्लर्स की ही मुख्य भूमिका है। इनका आकार कुछ ही 
						नैनोमीटर होता है परंतु ये कोशिका की संरचना तथा विभिन्न 
						जैवरसायनिक प्रक्रियाओं को संचालित करने वाले जटिल से जटिल 
						प्रोटीन का निर्माण कोशिका के साइटोप्लाज्म में मौजूद 
						एमीनो एसिड्स द्वारा करने की क्षमता रखते हैं। इस पूरी 
						प्रक्रिया में डीएनए की मुख्य भूमिका होती है। डीएनए की 
						विशेषता यह है कि न केवल ये अपनी प्रतिकृति स्वयं बना सकते 
						हैं बल्कि प्रोटीन निर्माण में असेंब्लर्स एवं 
						असेंब्ली–साइट का कार्य करने वाले राइबोसोमल, ट्रांसफर तथा 
						मेसेंजर आरएनए का निर्माण भी करने की क्षमता रखते हैं। 
						साइटोप्लाज्म से तरह–तरह के एमीनो एसिड्स की पहचान कर 
						उन्हें पकड़ कर असेंब्ली साइट राइबोसोम तक लाने का कार्य 
						ट्रांसफर आरएनए करते हैं। यहाँ इन एमीनो एसिड्स को मेसेंजर 
						आरएनए में निहित कोड के अनुसार एक निश्चित क्रम में 
						व्यस्थित कर प्रोटीन–विशेष का निर्माण कर लिया जाता है।
						
 नैनोटेक्नॉलॉजिस्ट कुछ–कुछ ऐसा ही करना चाहते हैं। वे भी 
						ऐसे नैनोअसेंब्लर्स का निर्माण करना चाहते हैं जो न केवल 
						विभिन्न प्रकार के परमाणुओं की पहचान कर सकें वरंच उन्हें 
						पकड़ कर किसी भी पदार्थ से अलग कर वांछित स्थान पर ला कर 
						पुनव्र्यस्थित सकें। यह सब कोरी कल्पना नहीं है। १९९० में 
						आइबीएम के अनुसंधानकर्ता एटॉमिक फोर्स माइक्रोस्कोपी 
						यंत्र द्वारा ज़ेनॉन तत्व के ३५ परमाणुओं को निकेल के 
						क्रिस्टल पर एक–एक कर व्यस्थित कर, आइबीएम शब्द लिखने में 
						सफल हुए। इनका यह प्रयास इस बात का द्योतक है कि हम एक 
						अकेले परमाणु को भी अपनी इच्छानुसर नियंत्रित एवं परिचालित 
						कर नए ढंग से व्यवस्थित कर सकते हैं।
 नासा के 
						वैज्ञानिकों ने १९९७ में सुपर कंप्यूटर द्वारा बेंज़ीन के 
						अणुओं को कार्बन के परमाणुओं से बने किसी सामान्य अणु के 
						आकार के अति सूक्ष्म नैनोट्यूब्स के बाहरी सतह पर जोड़ कर 
						आणविक– आकार के यंत्र निर्माण के मिथ्याभासी अनुरूपण 
						(simulation) में सफलता का दावा किया था। ये यंत्र 
						लेज़र द्वारा संचालित किए जा सकते हैं। भविष्य में इनका 
						उपयोग ‘मैटर कंपाइलर’ जैसे अतिसूक्ष्म यंत्र के निर्माण 
						में हो सकता है। इन मशीनों को कंप्यूटर द्वारा प्रोग्राम 
						कर प्राकृतिक गैस जैसे कच्चे माल के परमाणुओं को एक–एक कर 
						फिर से व्यवस्थित कर किसी बड़ी मशीन अथवा उसके किसी हिस्से 
						को निर्मित किया जा सकता है। किसी भी 
						उपभोक्ता वस्तु के भारी मात्रा में उत्पादन के लिए ऐसे 
						किसी एक नैनोमशीन या नैनोअसेंब्लर से काम नहीं चलने वाला। 
						अणुओं या परमाणुओं को एक–एक कर पुनर्व्यवस्थित कर नई वस्तु 
						के निर्माण में तो ऐसा एक असेंब्लर हजारों साल लगा देगा। 
						तुरंत किसी सामान को बनाने के लिए हमें अरबों एवं खरबों 
						नैनोअसेंब्लर्स की आवश्यकता पड़ेगी। इस कार्य के किए या तो 
						हमें दूसरे प्रकार के नैनोमशीन –‘नैनोरेप्लिकेटर्स’ की 
						आवश्कयता पड़ेगी, जो पलक झपकते ही वांछित प्रकार के 
						नैनोअसेंब्लर्स की अरबों–खरबों प्रतिकृतियाँ बना दें या 
						फिर इन नैनोअसेंब्लर्स को ही हम इस प्रकार प्रोग्राम कर 
						दें कि डीएनए की तरह ये भी आवश्यकतानुसार अपनी 
						प्रतिकृतियाँ स्वयं बना लें। इनका आकार इतना छोटा होगा 
						कि एक घन मिलीमीटर के क्षेत्र में ऐसे अरबों–खरबों 
						रेप्लीकेटर्स तथा असेंब्लर्स समा जाएँगे।  ये 
						असेंब्लर्स तथा रेप्लिकेटर्स दिए गए प्रोग्राम के अनुसार 
						एक साथ स्वत: काम करेंगे और वांछित वस्तु की भारी मात्रा 
						के उत्पादन में सहायक होंगे। जिस दिन ऐसा हुआ, उस दिन 
						उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन की परंपरागत विधियों की 
						आवश्यकता ही नहीं रहेगी और हम पहले से कहीं बहुत ही सस्ती, 
						मजबूत, टिकाऊ एवं बेहतर कार्य क्षमता वाली उपभोक्ता 
						वस्तुओं का निर्माण बहुतायत में कर पाएँगे। इस टेक्नॉलॉजी 
						से लाभ की संभावनाएँ इतनी वास्तविक एवं आकर्षक हैं कि वर्ष 
						२००१ में अमेरिका ने लगभग ५० करोड़ डॉलर 
						का बजट इस दिशा में अनुसंधान हेतु प्रदान किया। आइए, देखते 
						हैं कुछ रंगीन सपने अपने सुनहरे भविष्य के।  संभवत: 
						इन नैनो मशीन्स की सहायता से हम और भी मजबूत फाइबर्स बना 
						सकते हैं और बाद में तो हीरे से ले कर पानी या खाना कुछ भी 
						बन सकते हैं। वह भी बड़े सस्ते में औैर आज की तुलना में 
						बहुत ही थोड़े से कच्चे माल द्वारा। इन नव निर्मित सामानों 
						की मजबूती तथा हल्केपन की तो फिलहाल कल्पना भी नहीं की जा 
						सकती। उदाहरण के लिए इस तकनीक से बना हीरा वांछित आकार के 
						साथ–साथ उतने ही मजबूत स्टील की तुलना में कम से कम पचास 
						गुना हल्का होगा तथा इसे तोड़ना एक प्रकार से असंभव होगा। 
						जरा सोचिए, यदि आज की कार या हवाई जहाज अथवा अंतरिक्ष यान 
						की बॉडी और उनके कल–पुर्जों का निर्माण इन फाइबर रूपी 
						हीरों से किया जाय तो वे कितने मजबूत, हल्के, टिकाऊ तथा 
						सस्ते होंगे? आज के बोइंग७४७ का वजन पचास गुना कम हो 
						जाएगा। जाहिर है, सामान्य यातायात खर्च में अप्रत्याशित 
						कमी आएगी। सूदूर ग्रहोंकी अंतरिक्ष यात्रा भी बहुत ही 
						सस्ती हो जाएगी। कंप्यूटर 
						की दुनिया में तो क्रांति ही आ जाएगी। कंप्यूटर हार्डवेयर 
						के क्षेत्र में हो रही प्रगति की रफ्तार को बनाए रखने या 
						फिर उससे भी आगे जाने के लिए वर्तमान समय की लीथोग्राफिक 
						तकनीकि से बनाए जाने वाले सिल्किॉन चिप्स की क्षमता अपनी 
						पराकाष्ठा पर पहुँचने वाली है। नैनो टेक्नॉलॉजी की मदद से 
						भविष्य में हम थोड़े से ही परमाणुओं का उपयोग कर, नए प्रकार 
						के परमाणविक लॉजिक एलीमेंट तथा गेट बना सकेंगे। इन 
						परमाणविक गेट्स की मदद से ऐसे कंप्यूटर– उपकरण बना सकेंगे, 
						जिनका आकार चीनी के क्यूब जैसा होगा परंतु स्टोरेज क्षमता 
						करोड़ों बाइट्स होगी तथा ये कंप्यूटर्स प्रति मिनट करोड़ों 
						कमांड दे सकेंगे। चिकित्सा 
						के क्षेत्र में नैनोटेक्नॉलॉजी का सर्वाधिक असर होगा। 
						कैंसर कोशिकाओं या वाइरस जनित असाध्य रोगों को ठीक करने के 
						लिए रोगी को बस नैनोबॉट्स युक्त पेय की कुछ बूँदें लेनी 
						होंगी। नैनोबॉट्स कैंसर कोशिकाओं एवं वाइरस पर आक्रमण कर 
						उनकी आणविक संरचना को बदल कर, उन्हें निष्प्रभावी कर 
						देंगे। एक अन्य प्रकार के नैनोबॉट्स हमारे शरीर के वृद्ध 
						होने की प्रक्रिया को रोक सकते हैं या उससे भी आगे बढ़ कर 
						विपरीत दिशा में मोड़ कर हमें फिर से युवा बना सकते हैं। 
						इनसे भी अलग एक दूसरे प्रकार के नैनोबॉट्स अर्थात् 
						‘नैनोसर्जन’ कठिन से कठिन एवं खतरनाक ऑपरेशन आज के 
						उपकारणों की तुलना में हजार गुना अधिक सफाई तथा 
						कुशलतापूर्वक कर सकते हैं और वह भी शरीर पर बिना किसी 
						दाग–धब्बे के। यही नहीं, कोशिकाओं के वर्तमान आणविक संरचना 
						को बदल कर आँख, नाक, कान ... .. .या फिर पूरे शरीर के 
						कायापलट के लिए भी इन्हें प्रोगा्रम किया जा सकता है।
						 दूसरे 
						ढंग से प्रोग्राम कर इन नैनोबॉट्स की मदद से हम मिट्टी, 
						पानी तथा हवा में प्रदूषण फैलाने वाले पदार्थों को मिनटों 
						में नष्ट कर सकते हैं या फिर दिनों–दिन पतली एवं कमजोर 
						पड़ती जा रही ओज़ोन की परत को फिर से निर्मित कर सकते हैं। 
						भविष्य में नॉन–रिन्युवेबल रिर्सोसेज की आवश्यकता ही नही 
						रहेगी। न पेड़ काटने की जरूरत होगी, न ही खदानों से कोयला 
						निकालना पड़ेगा और न ही जमीन में ड्रिल कर खनिज तेल निकालने 
						के झंझट में पड़ना होगा। ये सारी वस्तुएँ हमें नैनोबॉट्स 
						स्वत: बना कर देंगे।  आप 
						पढ़ते–पढ़ते थक जाइएगा और मैं बताते बताते, फिर भी 
						नैनोटेक्नॉलॉजी द्वारा भविष्य में संभावित एवं क्रातिकारी 
						परिवर्तनों की सूची समाप्त नहीं होगी। चलते–चलाते अब आइए 
						जरा एक नज़र इस दिशा में आज–कल किए जा रहे प्रयासों पर डाल 
						लें।  वैसे तो 
						इस क्षेत्र में काफी काम हो रहा है एवं वैज्ञानिकों को 
						छोटी–बड़ी सफलताएँ मिलती ही जा रही हैं, परंतु अब तक इनका 
						ध्यान कंप्यूटर, इलेक्ट्रॉनिक्स, संचार आदि से संबंधित 
						विषयों पर अनुसंधान की तरफ ज्यादा था। हाल ही में इनका 
						ध्यान चिकित्सा से संबंधित विषयों पर भी गया है। इस दिशा 
						में युनिवर्सिटी ऑफ रॉचेस्टर के टॉड क्रास एवं बेंजामिन 
						मिलर द्वारा किया गया कार्य उल्लेखनीय है। इन लोगों ने एक 
						ऐसे डीएनए चिप्स के विकास में सफलता पाई है जिसकी सहायता 
						से भविष्य में किसी भी रोग उत्पन्न करने वाले या जैविक 
						हथियार की तरह इस्तेमाल होने वाले जीवाणु को तुरंत एवं 
						सटीक रूप से पहचाना जा सकता है, जो इसके प्रभावी प्रतिकार 
						में काफी सहायक सिद्ध होगा। फिलहाल, इस चिप्स की मदद से 
						केवल एंटीबायोटिक्स प्रतिरोधी ‘स्टाल्फ बैक्टिरिया को ही 
						पहचाना जा सकता है। इस बैक्टिरिया के डीएनए की उपस्थिति 
						में इस चिप्स का रंग हरे से पीले में बदल जाता है,जिसे 
						लेज़र की मदद से देखा जा सकता है।ये लोग भविष्य में ऐसे 
						चिप्स के विकास में लगे हुए हैं जिनकी सहायता से किसी भी 
						जीवाणु को आसानी से तथा तुरंत पहचाना जा सके। ऐसे 
						अनुसंधान नैनोटेक्नॉलॉजी की दिशा में प्रगति की ओर बढ़ते 
						कदम अवश्य हैं, परंतु नैनो टेक्नॉलाजिस्ट्स को अपने सपनों 
						को वास्तविक रूप में साकार करने के लिए अभी बहुत लंबा 
						रास्ता तय करना होगा। तब तक आइए हम भी ऐसे सपने देंखें। 
						सपने देखना भी जरूरी है। जो सपने देखता है वही अपनी दृढ़ 
						इच्छा के बल पर उन्हें साकार करने की कोशिश में सफल भी 
						होता है। अट्ठारवीं तथा उन्नीसवीं सदी के मानव ने क्या कभी 
						टीवी, मोबाइल या फिर कंप्यूटर तथा इंटरनेट की वास्तविकता 
						के बारे में सोचा था? नहीं न? आज ये सभी वास्तविकताएँ है। 
						हमारे उपरोक्त सपने भी कल निश्चय ही सच होंगे। 
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