समकालीन कहानियों में इस माह
प्रस्तुत है
शार्दूला नोगजा की कहानी
दूध जलेबी
"क्या?
हे भगवान कब हुआ? भईया अब अस्पताल में हैं? भाभी आप चिंता मत
करो! मैं आ रही हूँ! ..." वसुधा ने फोन रखा तो उसके माथे पर
पसीने की बूँदें उभर आई थीं और हाथ काँप रहे थे। संजय ने उसे
इतना विचलित बहुत कम देख था।
"क्या हुआ वसु?”, संजय ने घबरा के पूछा।
“भाईया को हार्ट अटैक आया है,” वसुधा ने लड़खड़ाती हुई जबान से
कहा।
“मुझे जाना होगा, कल ही!”, वसुधा बोलते-बोलते कमरे में पैकिंग
करने चल दी।
“अभी! अर्जेंट में तो टिकट बहुत महँगे होंगे!”, संजय ने वसुधा
के उड़े हुए रंग को देखकर धीरे से बोला।
“तुमसे टिकट के लिए नहीं कह रही, जाना है, यह बता रही हूँ!”,
वसुधा ने अपने स्वभाव के विपरीत, कड़ककर कहा।
इस घर में अक्सर वही होता था जो संजय चाहता था। वसुधा मूर्ख या
प्रताड़ित नहीं थी, पर एक दुखती सी रग में जाने कौन सा क्षोभ
भरा रहता था। उस पर हाथ रखने से संजय भी डरता था!
आगे...
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डॉ. शिव शर्मा का व्यंग्य
स्व. भोलागुरु
रसासिक्त साहित्य मंडल
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डॉ. प्रणव भारती का संस्मरण
जलेबी बनाम रसभरी
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पूर्णिमा वर्मन
का आलेख
हमारी
संस्कृति की पहचान जलेबी
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वृंदावनलाल वर्मा का
रोचक प्रसंग-
रसीद
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