रसीद
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वृंदावनलाल वर्मा
कुछ समय हुआ एक दिन काशी से रायकृष्ण दास और
चिरगाँव से मैथिलीशरण गुप्त साथ-साथ झाँसी आए। उनको देवगढ़ की
मूर्ति कला देखनी थी - और मुझको दिखलानी थी। देवगढ़ पहुँचने के
लिए झाँसी-बंबई लाइन पर जालौन स्टेशन मिलता है। वहाँ से देवगढ़
सात मील है। बैलगाड़ी से जाना पड़ता है,
जंगली और पहाड़ी मार्ग है।
मैं इससे पहले दो बार देवगढ़ हो आया था। सरकार
देवगढ़ को अपनी देखरेख में लेना चाहती थी। जैन संप्रदाय देना
नहीं चाहता था,
क्योंकि देवगढ़ के किले में प्राचीन जैन मंदिर थे,
जिनके प्रबंध की ओर उपेक्षा अधिक थी और
व्यवस्था कम। परंतु मैं जैन समिति का वकील था। मंदिर की अवस्था
और व्यवस्था देखने के लिए जाना पड़ता था।
हम तीनों जाखलौन स्टेशन पर सवेरे पहुँच गए।
मैंने आने की सूचना पहले ही भेज दी थी। स्टेशन पर उतरते ही कुछ
हँसते-मुसकराते चेहरे नजर आए। एकाध चिंतित भी। चिंता का कारण
मैंने मित्रों को सुनाया। पहली बार जब गया था,
समिति के मुनीम ने मेरे भोजन की व्यवस्था के
संबंध में पूछा।
मैंने कहा,
'दूध
पी लूँगा।'
मुनीमजी ने पूछा, 'कितना
ले आऊँ?'
मैंने उत्तर दिया, 'जितना
मिल जाय।'
'सेर
भर?'
'खैर!
ज्यादा न मिले तो सेर भर ही सही।'
'दो
सेर ले आऊँ?'
'कहा
न,
जितना मिल
जाय।'
'यानी
तीन-चार सेर?'
'क्या
कहूँ,
पाँच-छह
सेर भी मिल जाय,
तो भी हर्ज
नहीं।'
'पाँच-छह
सेर!'
मुनीम ने आश्र्चर्य प्रकट किया। सिर खुजलाया और
मुसकुराकर व्यंग्य करते हुए बोला -
'उसके
साथ कुछ और भी?'
मुझे हँसी आ गई। मैंने कहा,
'यह
तुम्हारी श्रद्धा के ऊपर निर्भर है।'
मुनीम सिर नीचा करके चला गया। थोड़ी देर में एक
छोटे घड़े में पाँच सेर दूध और थोड़ी जलेबी लेकर लौट आया। उसके
सामने ही मैंने सब समाप्त कर दिया। जब देवगढ़ वापस हुआ और
झाँसी जाने को हुआ,
मुनीम मेरे सामने सिकुड़ता-सकुचाता हुआ आया।
बोला,
'वर्माजी,
बुरा न मानें तो अर्ज करूँ - एक रसीद दे दीजिए।'
मैंने अपनी स्मृति को टटोला-किस बात की रसीद
माँगता है,
फीस तो मैंने अभी ली नहीं है।
मैंने पूछा,
'किस
बात की रसीद?'
मुनीम ने नीचा सिर किए हुए ही कहा,
'पाँच
सेर दूध और पाव भर जलेबी की रसीद। समितिवाले यकीन नहीं करेंगे
की वकील साहब पक्का सवा पाँच सेर डाल गए। शक करेंगे कि मुनीम
पचा गया।'
मुझे हँसी आई। मैंने रसीद दे दी।
उस स्टेशन वाले की चिंता का कारण सुनाते ही
रायकृष्ण दास और मैथिलीशरण गुप्त कहकहे लगाने लगे। चिंतित
चेहरे पर शरारत की भी हल्की-पतली लहर थी। उस पर भी हँसी आ गई। मैंने कहा,
'अब
की बार वह सबकुछ नहीं है,
मुनीमजी।'
हम लोग बैलगाड़ी से देवगढ़ पहुँचे। छकड़े के
धक्कों और दचकों को हम लोगों ने अपनी बातों और हँसी में दबा
लिया। |