विगत
२५ जनवरी २०१९ को कृष्णा सोबती हमारे बीच नहीं रहीं।
यह संस्मरण उनका लिखा यह संस्मरण, संस्मरण शिल्प का एक
अनुपम उदाहरण है। उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित
करते हुए प्रस्तुत है उनकी यह रचना फोन बजता रहा जो
उन्होंने डॉ. जयदेव के विषय में लिखी है। डॉ जयदेव (२६
मार्च १९४९ – २९ दिसंबर २०००) हिमाचल
विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी विभाग के प्रोफेसर एवं
अध्यक्ष थे। उन्होंने द कल्चर ऑफ़ पास्टीश हिंदी
कथा–साहित्य का एक विचारोत्तेजक अध्ययन, साहित्य, समाज
चेतना और सांस्कृतिक दिशा के संबंध में अंग्रेज़ी में
तीन पुस्तकों का संपादन किया है। भीष्म साहनी के
उपन्यास वासंती के अंग्रेज़ी अनुवाद के अलावा उनका किया
हुआ कृष्णा सोबती और महाश्वेता देवी की रचनाओं का
अंग्रेज़ी अनुवाद और मूल्याँकन बहुत चर्चित रहा। आप
शिमला, इंग्लैंड और कनाडा के अध्ययन संस्थानों में
फैलो भी रहे। (१ फरवरी २०१९)
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जयदेव, तुम्हें फ़ोन किया था। देर तक बजता रहा। किसी ने
उठाया नहीं। क्या शहर में नहीं हो? शायद चाय के बाद
टहलने निकल गए हो, हो सकता है कि किसी को रिसीव करने
या छोड़ने स्टेशन तक गए हो। तुम्हारे यहाँ मेहमान भी तो
आए दिन... वहीं चलती हूँ। सैर हो जाएगी और तुम से
मुलाकात भी। इस बरसाती मौसम में स्टेशन पर होना अच्छा
लगेगा। मालूम है जय, मैं बचपन से लेकर आज तक समरहिल
स्टेशन की छब पर मुग्ध रही हूँ।
यह क्या, प्लेटफॉर्म पर कोई नज़र नहीं आ रहा? न कोई
मुसाफ़िर और न तुम ही। इस गीले मौसम में प्लेटफॉर्म
अजीब वीरान–सा लग रहा है। प्लेटफॉर्म पर मुसाफ़िर और
असबाब नहीं तो स्टेशन कैसा मनहूस, वीरान और सुनसान
लगता है। मालूम होता है कहीं धरती और आकाश के बीच लटके
हुए हैं। बरखा की टपकन के अलावा सभी कुछ स्तब्ध सुनसान
है। स्टेशन की छत धुंधयाली–सी हुई पड़ी है। रंग मद्धम।
केबिन में बत्ती चमक रही है। उस के पीछे के ऊँचे पेड़
धुँधली पर्त–तले गहरा गए हैं। बिना आकार के अँधेरों के
चेहरे पहरुओं की तरह पूरे स्टेशन पर छा गए हैं!
तुम मिल जाते तो हम इस भीगे मौसम का मज़ा लेते। चाय का
स्टॉल तो स्टेशन पर है नहीं। रेल अथॉरिटी को इसका
सुझाव दिया जा सकता था। जय, मुझे हँसी आ रही है यह सोच
कर कि तुम्हारे यहाँ भी स्टॉल की तरह ही चाय बना करती
है और तुम्हीं प्यालों में अपनापन मिला कर सर्व करते
हो।
लगता है, गाड़ी जतोग से चल चुकी है। सिग्नल डाउन हो गया
है। इस प्लेटफ़ॉर्म पर मेरे सिवाए और कोई नज़र नहीं आ
रहा। इंजन की भेदती रोशनी धुंध को चीरती हुई ट्रैक पर
फैल गई। यह क्या? तुम! हाँ तुम्हीं हो। गाड़ी से उतरे
और बिना किसी ओर देखे प्लेटफ़ॉर्म पार कर खुले में पड़े
बेंच पर जा बैठे। क्या अपनी कॉटेज की छत पर बने
घोंसलों को पहचानने की कोशिश कर रहे हो? तुम्हीं ने
बताया था कि छोटे–छोटे परिंदों की मेहनत से बने
घोंसलों को कव्वे चोंच मार–मार तहस–नहस कर जाते हैं और
तुम सीढ़ी पर चढ़ तिनकों को दुबारा चुन आते हो! वह
छोटी–छोटी कटोरियाँ दीख गई हैं जिन में तुम उनके लिए
चुग्गा भर दिया करते थे। वह छोटी–सी गौरैया जिसके
ज़ख्मी पाँव का तुम इलाज करवा रहे थे मुझे याद आ गई
हैं। इतने रहम–दया तुम ने कहाँ से समेट लिए थे! उन
नन्हें–मुन्ने परिंदों के लिए तुम कहाँ से वक्त निकाल
लिया करते थे!
बौछार तेज़ हो गई है और गरज के साथ बिजली चमकने लगी है।
ऐसे में जाने क्या–से–क्या देखने लगी हूँ।
स्टेशन को फलांग तुम अँधेरे के साथ–साथ कहीं उतरने लगे
हो। पीली घाटी की ओर कदम बढ़ा रहे हो। जयदेव रुको! वहाँ
अकेले क्या करोगे? किधर बढ़े जा रहे हो? तुम्हारे पैरों
तले अब ज़मीन नहीं। वहाँ कुछ नहीं, वहाँ न दीवारें हैं,
न दरवाज़े और न खिड़कियाँ। कहीं वह सुनसान सन्नाटे वाला
घर तुम ने अपने लिए पसंद तो नहीं कर लिया। किसी के
सुझाव पर मैं गई थी उसे देखने। एशिया–डान की बगल में
एक उदास मनहूस–सी उतराई खड्ड़ की ओर गिरती–सी दिखती थी।
उसे देख कर मुझे हौल–सा पड़ा था। तुमने उधर रुख़ कैसे कर
लिया। तुम ने तो बरस–दर–बरस धूप में चमकती घाटी को
देखते–देखते गुज़ारे हैं। जय, पीली घाटी रहने की जगह
नहीं। न ही दिन–रात कंप्यूटर पर काम करने की।
क्या तुमने कभी दंडकारण्य के पीले प्रभात को देखा है।
किनारे पर खड़े हो कर उस भयावह कातिल पीत उफानों को
जिन्हें देखते–देखते निगाह खिसकने लगती है नीचे की ओर।
पीला निस्तेज पनीला हाहाकार करता– चक्रवात बुनता फॉल
उसे पाताल की ओर धकेलता है। इसका रंग तो देखो – न रक्त
की ललाई, न हाड़मांस की जुड़ाई और न धरती की लुनाई।
गिर–गिर कर पटक रहा है लगातार अपने हत्यारे प्रपंच को।
जयदेव, मालूम नहीं यह पत्र तुम्हें पहले क्यों नहीं
लिखा! तुम पढ़ सकते तो फ़ोन पर अपनी विनम्र खरी आवाज़ में
कहते– मुझे आप का पत्र मिल गया है। पिछले दिनों व्यस्त
रहा। विदेश से लौट कर ही इसका जवाब दूंगा।
जयदेव, तुम कहाँ जवाब दोगे? नहीं दोगे। मेरा पत्र तो
एकतरफ़ा संवाद है। मैं ही कहती रहूँगी। तुम्हारी ओर का
मौन तुम्हारी उपस्थिति होगी। हो सकता है कोई ऐसा
इंटरनेट हो जिस पर इस पार और उस पार के संदेशे
एक–दूसरे को भेजे जा सकते हों।
तीन बरस क्या कम होते हैं – नहीं, काफ़ी नहीं होते, एक
दूसरे को जानने–बूझने के लिए। तुम्हारी हँसी दीख रही
है। मैत्री के उतार–चढ़ाव और मनमुटाव में ख़ास वक्त लग
जाता है।
हाँ, ठीक कह रहे हो। तुम्हारे पास तो वक्त की ही कमी
थी फिर भी बहुत कुछ कर लिया करते थे। शहर में मित्रों
के आगमन, उनके प्रस्थान। बहुत से लोगों के लिए समरहिल
का एक नाम 'जयदेव' भी तो रहा है।
मैं आँखों में बरसात का वह दिन उतार लाई हूँ जब मैं
शिमला पहुँची थी। जतोग पर अपने को सुव्यवस्थित किया।
सामान पर नज़र मारी और खिड़की से अगले मोड़ पर इंतज़ार
करने लगी। वहीं स्थित है समरहिल – मेरे बचपन का मनपसंद
स्टेशन। एक लंबी सुरंग और, और आप पहुँच जाएँगे शिमला।
उस दिन बादलों का चंदोवा तना था और वह जम कर बरस रहे
थे। प्लेटफ़ॉर्म सुनसान था। एकाएक एक रेनकोट कहीं से
प्रकट हुआ और कंपार्टमेंट की ओर बढ़ा आया। हैंडल घुमाया
दरवाज़े का और अंदर दाख़िल।
मैं जयदेव हूँ –
जयदेव पाँव छूने को नीचे झुके – मैं परेशानी में
हड़बड़ाई।
हैलो जयदेव, ऐसे नहीं, हम बराबरी से क्यों न मिलें!
आप मुझसे बड़ी हैं –
जयदेव तुम्हें निराशा होगी। मुझे बड़ा होना नहीं आता।
यह मुझ पर छोड़िए। मैं निभा लूँगा। हाँ सामान सब साथ है
न?
साथ ही है, मगर आपने इस मौसम में तकलीफ़ क्यों की?
आप को लेने आया हूँ। बरसात तो होती ही रहती है।
समरहिल की सुरंग से बाहर निकल गाड़ी शिमला के
प्लेटफ़ॉर्म पर सरक रही है।
सामान में कितने नग हैं?
मैं गिनने लगी।
मुझ पर छोड़ दीजिए, आप उतरिए।
प्लेटफ़ॉर्म से बाहर होते ही जयदेव छतरी खोल मेरे हाथ
में पकड़ा देते हैं। धन्यवाद जयदेव।
राष्ट्रपति निवास, पब्लिक एंट्री। सीढ़ियाँ। सामान कमरे
में लगवा जयदेव ने अपने बैग में से इलेक्ट्रिक कैटल
निकाल तिपाई पर रख दी।
वाह! मैं उत्साहित हुई। ऐसे मौसम में चाय का प्याला।
धन्यवाद जयदेव।
केतली में पानी डाला था। दो प्यालों में टी बैग्ज़,
चीनी। यह सभी कुछ निकला है जयदेव के बैग में से।
बिस्कुट का पैकेट मेज़ पर रखते हुए कहा – चेंज करना
चाहें तो कर लें – चाय तैयार हुई ही समझिए।
मैं उत्साहित हुई। दूसरे सब काम पीछे – चाय पहले।
जयदेव, उस दुपहर हमारी दोस्ती की वह पहली चाय थी।
कितने सुंदर मग तुमने उपहार में दिए थे। तुम्हारी
केतली लगातार मेरी किचन को गरमाती रही। शिमला के उन
तीन बरसों में तुम्हारी ही केतली मेरे घर में आतिथ्य
की लाइफ़–लाइन थी। तुम्हारे पास वक्त की इतनी कमी थी
जयदेव, कि कुछ गिनी–चुनी शामें ही तुम्हारे साथ
गुज़रीं। जब कभी तुम घर पर आए भी तो चाय तुम्हीं ने
बनाई। मुझे तुम भाते थे, क्योंकि तुम चाय को चाय की
तरह चाहते थे।
जय, तुम्हें देख रही हूँ फुरतीली चाल में कदम भरते।
पोस्टमास्टर फ्लैट से तुम दाईं ओर उतरे हो। मोड़ से
बाईं ओर फिर इस्क्वायर हॉल की ओर जाती सीधी सड़क पर।
तुम्हारे कंधे पर झोला लटक रहा है। यह पूरा पिटारा है।
किताबें, पेपर, फ्लॉपी और सरोज के हाथों के बने पकवान।
तुमने अभी–अभी वह चेन फलांगी है जो इस सड़क के मोड़ पर
लटकी रहती है।
हम लोग कितने प्यार और सत्कार से समझाते – जय, इतने
तरद्दुद की बिलकुल ज़रूरत नहीं। और तुम – ढीठ सयानों ती
तरह चुप–चुपती हँसी हँसते और नटखट भाव से कहते – बस
एकदम बस। मैं ताज़ी चाय ला रहा हूँ।
जयदेव मूड में होते तो सुथरा और सुलझा हुआ कहते। लेकिन
तर्क और बहस की विरोधी तनातनी में अपने को ख़ामोशी में
सोख लेते। मौन हो जाते। नुक्ताचीनी शिकवा–शिकायत का
सामना न के बराबर। ऐसे में बहुत बार लगता कि तुम अपने
को परेशान रखने में माहिर हो। बोलने पर अंकुश लगाने
वाली इतनी चुप्पी भी क्यों भला?
मैं इससे परेशान होती। कभी–कभी खीजती और अपनी ओर इशारा
करके कहती – मुझसे सीखो, मैं कूड़ा–कचरा, धूल–मिट्टी सब
कुछ बुहार देती हूँ। अंदरवाला आत्मा का घर बिलकुल साफ़
रखती हूँ। जयदेव व्यंग्य से मुस्कुराते। कभी–कभी रौ
में आते तो कुछ ऐसा ज्यों दरांती के माफ़िक काट करते
हों। पुरअसर कुछ ऐसा कहते कि सुननेवाला चित न हो मगर
तिलमिला जाए। ज़ाहिर तौर पर बौद्धिक खरोंचों को पचा भी
जाए तो भी अंदर तक घायल हो जाए। दुबले–पतले
अनुशासनप्रिय जयदेव अपने विनम्र परिश्रमी स्वभाव की
तमाम असंगतियों को उद्यमशीलता से कुछ ऐसा ढाल लेते कि
हुनरमंदों को हतप्रभ कर देते।
(२)
पिछले दो दिनों से लगातार पानी बरसता रहा था।
संपादक की अंतिम मोहलत कानूनी तारीख़ की तरह मेरे सिर
पर लटकी थी। यह मौसम का मोहक जाल और लिखने का जंजाल एक
साथ। वक्त पर बुन लिया गया तो सुर्ख़रू होने का गहरा
एहसास।
पूछने पर मालूम हुआ फैक्स पर नहीं जा सकेगा। बिजली
नहीं है।
लिखित पर पराई नज़र मारी। इतने पन्ने दुबारा कैसे लिखे
जाएँगे?
हाथ से एक साफ़ ड्राफ्ट तो और भी किया जा सकता है न?
नहीं। अब हिम्मत नहीं।
बाउलूगंज से पूछती हूँ। फ़ोन।
नहीं। यहाँ भी बिजली नहीं।
जयदेव को फ़ोन किया। अपनी परेशानी बताईं।
उत्साह से बोले – मुझे पहुँचा दें तो कल सुबह तक निकाल
दूंगा।
घंटे भर में आप तक पहुँच जाएगा।
पन्ने पिन किए। कवर में रखे और मैस में फ़ोन कर कहा –
शाम की सब्ज़ी–दूध ख़रीद करने को केसर बाउलूगंज जाए तो –
साहिब वह आधा घंटा पहले निकल गया है।
हूँ। अब।
खुद ही अपने कान में कहा – मादाम अब तुम्हें खुद ही
जाना होगा।
चाय।
जूते बदले। बरसाती और छाता निकाले। पन्नों को हिफ़ाज़त
से पोलीथीन में रखा और बाहर निकल गई।
समरहिल की ओर जाती झुरमुरी घने एकांत की यह सड़क। नीचे
से रेल जा रही है। इस छबीली राह की अपनी ही नज़ाक़त।
बारिश में नहाती विद्या की खूबसूरत लंबी–लंबी हरियाली
पत्तियाँ। गुच्छा बनाने को तोड़ने लगती हूँ।
जयदेव के यहाँ फूलों और पत्तियों की कमी नहीं फिर भी
ले जाना चाहती हूँ।
एक गुलदान के लिए काफ़ी है –
अब और न तोड़िए। हाँ यह बताइए कि इस मौसम में आप बाहर
क्यों?
जयदेव आप भी इस बारिश में क्यों? मुझे तो काग़ज़
पहुँचाने थे न?
मैस में मैंने फ़ोन किया तो जाना कि आपको कोई लड़का
मिलने वाला नहीं। सो सोचा, मैं ही ले आता हूँ।
जय, यह तुम्हारी अपने साथ और मेरे साथ ज़्यादती है।
मुझे फ़ाइल दीजिए और घर को लौटिए।
चाय पी लें तो कैसा?
जयदेव कुछ असमंजस में पड़े।
आपको लौटने में दिक्कत होगी। नीचे से आज टैक्सी नहीं
मिल सकेगी।
हँस कर कहा, हम यहीं चाय पीएँगे।
यहाँ?
हाँ जयदेव, मेरे पास थरमस में चाय है।
वाह!
थरमस खुली और चाय की चुसकियों पर हम दोनों हँसते रहे।
मज़ा आ गया।
पर आपने यह सोचा कैसे?
तेज़ बारिश में बाहर निकलना हो तो चाय से भरी थरमस कंधे
पर। जब भी तलब हो निकाल लो।
चाय की दुकान तक पहुँचने का धीरज आप में नहीं है?
है भी और नहीं भी। मान लो यहीं खड़े हो कर कुछ ग़र्म
पीना चाहूँ तो – समरहिल का ढाबा तो दूर है न?
वाह! जवाब नहीं।
ख़ास बात नहीं, जय, मौसम की ख़ातिरदारी में अपने लिए यह
छोटा–सा उपहार!
जयदेव, काग़ज़ मैं सुबह मँगवा लूँगी। तुम तकलीफ़ नहीं
करोगे। चलो अब मैं तुम्हें तिब्बत–बॉर्डर रोड गेस्ट
हाउस तक छोड़ कर आती हूँ।
नहीं–नहीं बिलकुल नहीं। आप वहाँ तक नहीं जाएँगी।
जयदेव, तुम मुझे वहाँ लेने आते हो और छोड़ने भी। मैंने
भी शर्त बांध रखी है। मैं यही करने जा रही हूँ।
मैंने गेस्ट हाउस की सीढ़ियों से तुम्हें उतराई उतरते
देखा। तुमने मुड़ कर हाथ मिलाया– बाइ!... जयदेव, उस
अचरज भरी शाम का कुछ भी धुंधलाया नहीं। इरेज़ नहीं हुआ।
वह सुरक्षित है। धूप निकली थी।
सेमिनार रूम की ओर बढ़ते–बढ़ते मैं लॉन में जा बैठती
हूँ। हरी घास पर बिछी है धूप की गरमाहट और क्यारियों
को झुलाती–लहराती हवाएँ।
देखा, सामने कैफ़े की ओर से जयदेव चले आ रहे हैं। मैं
हाथ हिला कर हैलो करती हूँ।
जय पास आ कर विस्मय से पूछते हैं– आप बाहर क्यों?
धूप सेंकने को? चाय के बाद अंदर जाने का इरादा है। आप
चलें –
जय सेमीनार रूम की ओर बढ़ गए। मैं पीछे से जयदेव की चाल
में अजीब तरह की बेहिम्मती देखती हूँ। सेमीनार
प्रस्तुतियों की हलचलों में ही इन्हें चीन्हा जा सकता
है।
लॉन में मेज़ लग चुकी है। चाय–कॉफी–बिस्कुट और गुलदानों
में फूल। जॉन हाथ में सफ़ेद दस्ताने पहने प्यालों को
तरतीब दे रहे हैं।
धूप में चमकने लगी हैं रंगीन शॉल और जर्सियाँ। चाय का
प्याला हाथ में ले मैं जयदेव की ओर मुड़ती हूँ।
जयदेव कैसे हो?
कलवाले पेपर के लिए मुझे दुख है –
दुख क्यों जय, उस पर ख़ासी बहस हुई।
जयदेव ने फीके मगर तीखे कंठ से कहा, जानता हूँ, वक्त
की कमी के कारण इस पर उतना काम नहीं कर सका जितना
ज़रूरी था। फिर रही–सही कसर आपने पूरी कर दी।
ऐसा कहना मेरे साथ ज़्यादती होगी, जय।
जय व्यंग्य से हँसे।
आप दूसरों के साथ ज़्यादती करने में माहिर हैं। आख़िर
आपने जो खुलासा किया, वह कमाल था।
इसे ऐसे क्यों देख रहे हो? आलेख जल्दी में लिखा गया
था, इतना तो मानोगे। जो सवाल उठे और पूछे गए उन्हें
स्पष्ट करना मेरे लेखकीय कर्तव्य और अधिकार दोनों ही
थे। अध्यक्ष हरीश त्रिवेदी की ओर से मुझे इजाज़त थी और
सुझाव भी। ऐसे में सोचा, कुछ हर्ज़ नहीं। जय सिर्फ़
मुस्कुराए।
इस बात को यहीं ख़त्म करते हैं।
नहीं जयदेव। आप वह पाठक नहीं जो किसी भी पाठ के साथ
मनमानी करता है। आप किसी भी पाठ वृत्तांत की परतों तक
पहुँचने वाले हैं। इसीलिए मुझे 'हशमत' की संरचना को
सुस्पष्ट करना ज़रूरी था।
पर जिस ढंग से आपने उसे प्रस्तुत किया– यह सिर्फ़ मैं
नहीं कह रहा। दूसरे लोगों की बात भी आप तक पहुँची
होगी।
अगर सचमुच उचित नहीं था तो माफ़ी माँग लेती हूँ।
जयदेव तुम व्यंग्य से हँसते रहे थे।
तुम जानते थे यह औपचारिक था।
मेरी मुद्रा ज़रूर कुछ और कह रही होगी।
दोनों ओर के स्नायु–तंत्र विपरीत की ओर खिंच रहे थे।
उम्र से जिस बड़प्पन की उम्मीद मुझ से की जाती है वह
ऐसे मौकों पर अकसर झटका खा जाती है।
मैं कई हफ़्ते, गाहे–बगाहे हशमत की सोहबत में अपना अंतर
टटोलती रही। कहीं अतिरिक्त आग्रह, पक्षधरता या अपने को
बढ़ा–चढ़ा कर पेश करने की भंगिमा क्या मेरी ओर से कोई
संकेत दे रही थी? जाने क्यों ऐसे मौकों पर अपना
तौर–तरीका कुछ ऐसे उघड़ता है कि दूसरों की शिकायत वाजिब
लगने लगती है।
कई हफ्ते दोनों ओर फ़ोन पर के संवाद कुछ सर्द और सपाट
हुए रहे! फिर भी भले–मानस मैत्री–फ़ोन जारी रहे।
(३)
चौकन्ना होना ज़रूरी था।
एक दिन हँसते–हँसते जय ने कहा, कहीं आप की ख़ूबियों का
बखान हो रहा था! आपने अपने साथियों को ख़ासा आतंकित कर
रखा है।
ओह!
दोनों ओर से एक लंबी हँसी।
न नाम पूछा जाएगा और न ही आतंक की व्याख्या की जाएगी।
दोनों ओर से एक–दूसरे के लिए इतना लिहाज़ तो था ही।
पत्रिका के लिए एक लंबा आलेख समाप्त हुआ। दिल–दिमाग़
में एक नई चुस्ती और स्फूर्ति। लिफ़ाफ़ा बंद किया। पता
लिखा। ख़ाली लिफ़ाफ़ों के पैकेट में कुछ भारी–सा महसूस
किया। पैकेट खोला। वाह! हरे सुहावने नोट! कभी अपने से
छिपा कर रखे होंगे।
खिड़की से बाहर देखा। बादल बरसने को थे! तुरंत अपने लिए
शाम का प्रोग्राम तय कर लिया। चौड़ा मैदान पोस्ट ऑफ़िस
से स्पीडपोस्ट भिजवाया जा सकता है और इन रुपयों का
भुगतान सिसल होटल में।
अपने को ख़बरदार किया। यह पाँच सितारा प्रोग्राम छोड़
दो। उसका यह ख़याल बहुत महँगा पड़ेगा। सिसल की चकाचौंधी
दुनिया। हमारे मध्यवर्ग की नियति से कुछ–कुछ दूर
कुछ–कुछ पास, कुछ सच्चे–झूठे मुलायम सिंथैटिक मुग़ालतों
की दौड़ ऐसी कि आज खुश हूँ तो वहीं जाऊँगी। अपने को
ख़बरदार किया, छोड़ो!
चलेगा। यह रुपए तो पड़े पाए। फिर जो मैं वहाँ से ढूंढ़
लूँगी – अपनी एक पुरानी छवि जिसे वहाँ ले जाने के लिए
नया फ्रॉक और नए जूते दिलवाए गए थे। मैं सिसल की
पुरानी लॉज में अपने को खड़ी देख रही हूँ। ढेर से
विदेशी चेहरे और उनके परिधानों से फैलती सुगंध। हम मिल
रहे थे अपने संबंधियों से जो लंदन से आए थे और सिसल
में ठहरे थे।
बाहर देखा – पनीली टपकन धार में बदल चुकी थी। छोड़ो।
सीधे माल की ओर निकल जाओ। नहीं, नहीं – इरादा बदलने का
कोई कारण नहीं।
पीटर–ऑफ़ को लगभग फलांगते हुए ऑडिट अकाउंट के सामने
वाली सड़क से पोस्ट ऑफ़िस। लिफ़ाफ़े पर टिकट लगा
स्पीडपोस्ट रजिस्ट्री करवाई और सामने आँखें गड़ाई। वह
रहा सिसल होटल।
हाँ वही।
जंगल में खोंच कर छाता फैला रखा है भुट्टे वाले ने और
ऊपर तरपाल। नीचे अंगीठी लहक रही है। भुट्टे भूने जा
रहे हैं। सामने बाबा साहिब आंबेडकर की प्रतिमा पथरीली
पुख्तगी से जमी है। होटल के बाहर की कार पार्किंग में
बड़ा जमावड़ा। लाल बत्ती वाली गाड़ियाँ भी कम नहीं।
हिमाचली नौकरशाही। बाबा साहिब की मौजूदगी मेरे साधारण
नागरिक को आगाह करती है और कदम खुद–ब–खुद निर्णय लेते
हैं। सिसल जो भी हो – अगर आत्मविश्वास और जेब ग़र्म हो
तो क्या परेशानी है, आत्मविश्वास जेब की गरमी से ही
प्रवाहित होता है।
सामने की ओर बढ़ते–बढ़ते सोचा, 'यह हमारी जगह नहीं। रुपए
का ठीक इस्तेमाल करो। मैं इत्मीनान से एक रूखी नज़र
पाँच–सितारा पर डालती हूँ और अपनी आत्मछलना से बच कर
अचानक मिल गए रुपए बचा लेती हूँ।
बेकरी–केमिस्ट–हलवाई। दशकों–दशकों पहले यह सजीली सड़क
रिक्शा खींचने वालों की ग़र्म वर्दियों से चमचमाती थी,
आज इस किनारे सजे है समोसे, जलेबी, गुलाब जामुन।
अंगीठियाँ लहक रही हैं भक्ख–भक्ख, कढ़ाइयाँ चढ़ी हैं और
तली जा रही हैं जलेबियाँ।
पूरा हिमाचल हर दिन कितने टन जलेबी हज़म करता होगा,
आँकड़े ज़रूरी हैं। इस पर भी रिसर्च की जा सकती है। चाय
ऐसे मौसम में क्यों नहीं? छाता बंद कर अंदर जाने को
हूँ कि सामने से आते दिखे जयदेव।
ग़र्मजोशी में, आप इस मौसम में यहाँ!
और आप इस बरसात में कहाँ से लौट रहे हैं?
माल से लौट रहा हूँ।
मैं माल जाने की तैयारी में हूँ। क्यों न एक–एक चाय हो
जाए?
आप और यहाँ। आपको अटपटा लगेगा।
भला ऐसे क्यों कह रह हो जयदेव?
इसलिए कि बाउलूगंज में आपको कभी चाय पीते नहीं देखा।
जलेबी–समोसे से आपको इतना परहेज़ क्यों है?
शिमला में भीगती शामों का मेवा ही यही है।
हम आमने–सामने संकरे बेंचों पर विराजमान हो गए। कहाँ
यह मिष्टी महक वाली हलवाई की हट्टी और कहाँ वह
फाइवस्टार सिसल और सरकारी रुतबा घर पीटर–ऑफ़! हमें उनकी
परवाह नहीं। हम लोग जी भर–भरके तो हँसे उस शाम और मज़ा
ले–ले कर खाते रहे ग़र्म जलेबी और देसी गाढ़े शीरेवाले
बंगाली रसगुल्लों के हमजुल्फ़ गुलाब जामुन। बंगाली
रसगुल्लों के हमजुल्फ़।
अब नमकीन हो जाए। दो प्लेट समोसों का ऑर्डर। खाते–खाते
चिंता की मिरची लहर उठी और चेहरे पर फैल गई।
जयदेव ने बड़े सलीके से पूछा, कहीं कुछ भूल आई हैं
क्या?
नहीं, समोसे के साथ कुछ याद आ गया है।
क्या पूछ सकता हूँ?
हाँ। इसे ख़त्म करके बताऊँगी।
गर्म–गर्म चाय का दूसरा गिलास। खूब मीठी चुस्कियाँ!
सिर्फ़ इस मौसम में ऐसी पहाड़ी दुकानों पर ही ली जा सकती
हैं।
हम उठे और कैमिस्ट शॉप पर जा खड़े हुए। समोसों का इलाज।
दवा का पत्ता का उठा कर पर्स में रखा।
जय, अब मैं अपनी सेहत के लिए बेफ़िक्र हूँ।
बरसात कुछ थम गई थी। हम मज़े–मज़े चलते हुए इंस्टीट्यूट
के फाटक पर पहुँच गए। हल्की–सी चढ़ाई पर भी इस पुरानी
मशीन को सांस चढ़ने लगा था। जयदेव बोले, कुछ देर रुक
सकते हैं?
राष्ट्रपति इस्टेट की यह गहराती शाम, पेड़ ढलते सूरज को
चुनौती दे रहे हैं और वह सयाना बच्चों को परचाने के
लिए हल्की चमकीली रोशनी फैला रहा है। अपने–अपने वृत्त
में बने रहो बच्चो, कल मिलेंगे। तब तक आराम करो।
झींगुर बोलने लगे थे।
आपका माल रोड़ जाना तो रह गया।
कोई ग़म नहीं।
अचानक ही सोचा कि सिसल में चाय पीऊँगी, पोस्ट ऑफ़िस तक
जाना ही था।
जयदेव तुनके।
याद होगा, मैंने आप से कहा था कि कुछ भी पोस्ट करना हो
तो मुझे बताया करें। मेरे घर के पास ही तो पोस्ट ऑफ़िस
है। ऐसी बरसात में आपको यह काम करना पड़े, यह ठीक नहीं।
ऐसा कोई भी काम हो – एक फ़ोन काफ़ी है।
जयदेव, यह तो ठीक हुआ। इत्तफ़ाक था कि इसी बहाने हम लोग
मिल गए।
काम कैसा चल रहा है?
ठीक–सा, हाँ, आप क्या कर रहे हैं इन दिनों?
'हशमत' को फिर से देख रहा हूँ। आपको बताना चाहता हूँ
कि जब दुबारा पढ़ा तो इस बात को लेकर परेशान हुआ कि उस
दिन ठीक से क्यों नहीं कर पाया। मुझे वह आलेख प्रस्तुत
नहीं करना चाहिए था।
जय, लगता है हम दोनों अपने–अपने ढंग से उस शाम पर
ठिठके हुए हैं। मैं उस शाम की संभावनाओं को शायद ऐसे
कोण से देख रही थी जहाँ 'हशमद' के पाठ से ज़्यादा अहम
हो गया था 'हशमत' का लेखक। उस दिन के लिए माफ़ी
माँग
रही हूँ, जयदेव।
आगे कुछ और नहीं कहेंगी आप। क्योंकि माफ़ी तो मुझे
माँगनी है।
इस्क्वायर हॉल वाली सड़क पर हम ने एक–दूसरे को बाइ–बाइ
की, जय नीचे उतर गए और मैं ऊपर चढ़ाई चढ़ने लगी।
मैं हल्का महसूस कर रही थी और खुश थी। जय जैसे ख़ालिस
खरे दोस्त को कौन खोना चाहेगा?
हम उसे ही खो देते हैं जिसे ज़्यादा चाहते हैं।
जयदेव की ग्रे जर्सी और उसमें से ऊपर की ओर निकला शर्ट
का कॉलर, उत्तर प्रदेशी लुनाई में कुछ ज़्यादा ही चमका
करता।
इस पर बात हुई तो जयदेव संकोच से हँसे। शाबाशी देने के
अंदाज़ में कहा, आपकी कल्पना और उसकी नाटकीयता दोनों
का.बिले–तारीफ़ हैं।
'हशमत' को ले कर जयदेव फ़ोन पर थे। हल्के मूड़ में।
कोशिश कर रहा हूँ यह समझने की कि इन टुकड़ों में कौन–से
हिस्से स्त्री–पाठ में आते हैं और कौन–से पुरुष–पाठ
में?
नटखट हो कर कहा, कहीं अपने आलोचकीय विमर्श में यह न कह
दें कि यह स्त्री का पाठ है। इसे सिर्फ़ स्त्री पढ़े। यह
पुरुष का पाठ है, इसे केवल पुरुष पढ़ें।
मानवीय पाठ कौन प्रस्तुत करेगा? क्या सिर्फ़ पुरुष ही?
त्रस्त और त्रासदी स्त्री है।
चिंतन और विवेक पुरुष है।
जयदेव की बेरुख़ी संकोच में ऊपर आई। क्या कुछ ऐसा कहना
चाह रही है कि यह पुरुष के पुरुष होने के भुजबल से
जुड़ा है।
नहीं, मैं ऐसा नहीं कह रही। आप अपने मापदंडों से पाठ
की जांच करें। मैं क्या कहती हूँ इसे भूल जाइए।
नहीं। मैं स्त्री राजनीति पर नहीं हूँ। मैं इसे
साहित्यिक पाठ की तरह देखना चाहता हूँ।
स्त्री–पुरुष की अलग–अलग सीमाओं–संस्कारों का अतिक्रमण
हो रहा है, किया जा रहा है। ऐसे में स्त्री–पुरुष
दोनों के अपनत्व और सामूहिक पहचान में भावात्मक
ताल–मेल बिठाने को एक नई भाषा ईजाद करनी होगी जो
मानवीय संबंधों की फिर से पड़ताल करेगी।
लगता है, भाषण सुन रहा हूँ।
हम दोनों हँसे।
जयदेव, हम लेखकों के पास, अपने–अपने हक में कुछ
छोटी–बड़ी जानकारियाँ होती हैं जिन्हें हम रचनात्मक
सच्चाइयाँ बना लेते हैं। आप अपने आलोचकीय सिद्धांतों
से कुरेदिए। फिर हमें समझाइए कि देखो भाई
लिखाड़ी–खिलाड़ी ऐसे बना जाता है।
जय अच्छे मूड में थे – इन दोनों के फ़र्क पर रोशनी
डालिए।
जैसे कोई कहे, हिमाचली हैं सुंदर–सौम्य भले और समझदार।
मैदानी पंजाबी भाइयों की तरह फ़ितूरी और तंदूरी नहीं।
इन दोनों की देह–भाषा में फ़र्क लगे तो नया दर्शन बनाना
होगा। समझ लें कि सिद्धांत बन गया।
अब मालूम हुआ, आप शब्दों को कैसे मिलाती–जुटाती है।
बुरा मत मानना जय, यह इतना सहज और सहल नहीं। राज़ की
बात इतनी ही कि ये दोनों शब्द 'हिंदी दिवस' की देन
हैं। ऑडिट ऐंड अकाउंटस के हिंदी समारोह में एक प्रहसन
प्रस्तुत किया गया था। पंजाबियों पर इतना सटीक कि वहाँ
बैठे–बैठे तंदूरी और फ़तूरी का जोटा मेरी डिक्शनरी में
दाखिल हो गया।
हम देर तक हँसते रहे थे। हशमतवाले पुराने सब तनाव धुल
गए। पतझरी हवा के हिलोरे से!
बाउलूगंज की छोटी–सी दुकान में मोज़ा लेने गई कि
छोटे–छोटे तावलों पर नज़र पड़ी। उनके साथ ही ख़याल में आ
गई अपनी छोटी–सी सहेली। कस्तूरी बरुआ। चंचल–चपल
चौकन्नी और
सुंदर मुखड़े के साथ नाम है कस्तूरी, फूलों की कढ़ाई
वाले दो हैंड तावल लिए और जैसे ही बाहर निकली एक साथ
दीखे जयदेव और कस्तूरी अपने माता–पिता के साथ। छोटी–सी
बचपनी आवाज़ ने नाम से पुकारा, कृष्णा, आप यहाँ क्या कर
रही हैं?
जयदेव बोले – सोबती जी!
मैं चकित हुई।
हैलो जयदेव!
आप पहले सबसे ताज़ी पीढ़ी से बात कीजिए।
वाह, आप दोनों मेरे आगे हैं और ताजे. हैं।
नहीं – इस समय मध्यस्थ हो आप दोनों को मिला रही है।
कस्तूरी बोलीं – आप किस को मिला रहा है? अंकल क्या कह
रहे हैं?
जयदेव ने कस्तूरी से हैलो की और प्यार से कहा – यह
मुझे आपसे मिला रही हैं।
मैं चकित हुई। जयदेव कुछ कह रहे हैं।
बरुआ युगल खड़े–खड़े मुस्कुराते रहे। मैंने लिफ़ाफ़ा आगे
किया – यह तुम्हारे लिए कस्तूरी।
थैंक्यू कृष्णा। मैं तुम्हारे लिए भी एक छोटी–सी भेंट
लाऊँगी।
मैंने झुक कर कस्तूरी के कान में कहा – मुझे तुम्हारी
ड्राइंग चाहिए। अपने घर में लगाने के लिए!
अच्छा।
फ्रेंच बाअलू भाइयों के नामवाला यह पहाड़ी बाज़ार काफ़ी
दिलचस्प।
अब किधर?
कल भीष्म और शीलाजी आ रहे हैं। आपको आना है। हाँ
जयदेव, मैंने आपकी बताई बेकरी में केक ऑर्डर किया था।
अब मैं उस पर भीष्म और शीलाजी का नाम लिखवाना चाहती
हूँ। उसका फ़ोन नंबर नहीं है।
जयदेव, मैं आज भी तुम्हारी वह निगाह नहीं भूली।
व्यंग्य, मैत्री, विस्मय और खीझ एक साथ। कुछ ऐसे जैसे
विश्वास न होता हो कि मैं ही यह कह रही हूँ, तुम्हारी
निगाह से कितनी दिखावटी है यह सोच।
मैंने अनदेखी कर कहा – आपके पास उसका फ़ोन नंबर होगा।
जयदेव ने मानो मेरा सरोकारी पाठ पढ़ लिया हो।
जो लिखवाना चाहती हैं, मुझे लिख कर दे दें। उस तक
पहुँचा दूंगा।
आपको परेशान कर रही हूँ।
जय ने तीखेपन से एक बार फिर से सरसरी नज़र से देखा जैसे
सोच रहे हों, यह कैसे वर्ग का सांचा हैं और हँस कर
कहा, अब उसकी चिंता न कीजिए। आपके मन मुताबिक ऑर्डर
किए केक की सारी बारीकियाँ देख ली जाएँगी।
मुझे अपने अतिथियों का नाम तो ज़रूर चाहिए।
लगा जय मन ही मन हँस रहे हैं। यह सोच–सोच कर कि इस
वर्ग की असलियत आख़िर है तो क्या?
याद रखिएगा, जय, आप और सरोज कल शाम आ रहे हैं।
इसके लिए आप से अभी माफ़ी माँग लेता हूँ। कल सुबह
दिल्ली से मेहमान आ रहे हैं।
उन्हें साथ ले आइए, जयदेव। आपका आना ज़रूरी है।
जयदेव के चेहरे पर गंगा–जमुनी धज उभरी और अंदर ज़्यादा
बाहर कम। इंतज़ार न करें। मौका लगा तो पहुँच जाऊँगा
नहीं तो...
सरोज पास खड़े–खड़े मुस्काती रहीं।
भीष्म और शीला के साथ शाम अच्छी रही। चाहनेवालों से
घिरे दोनों खुश थे। मगर भीष्म के क़रीब होने पर भी
जयदेव–सरोज शामिल न हो सके। वसंती पर चर्चा होती रही।
जय ने अंग्रेज़ी में इसका अनुवाद किया था।
शिव 'डार से बिछुड़ी' के अनुवाद पर थे। जयदेव के
सुझावों पर ग़ौर कर रहे थे।
बेशक जयदेव के पास वक्त की कमी थी पर दूसरों के लिए
कंजूसी नहीं। मदद के लिए हमेशा तत्पर।
महीनों बाद एक दिन माल पर घूमते–घूमते जय से मुलाक़ात
हो गई। जाने क्यों वह मुझे बहुत अकेले लगे। कारण लंबी
छुट्टी भी हो सकता है। चेहरे पर भाव ऐसा कि कुछ भी
कुरेदना या टटोलना ख़तरनाक हो सकता है।
आशियाने में लंच के लिए निमंत्रण दिया तो व्यस्त हो कर
कहा – मैं जल्दी में हूँ। इस वक्त नहीं। हाँ आप इस
इतवार घर पर ज़रूर आएँ। सरोज ने आपको फ़ोन किया था।
लौटने में आपको दिक्कत नहीं होगी।
आपके यहाँ आना तो सदा ही अच्छा लगता है। मैं शनिचर शाम
फ़ोन करूँगी। इस वक्त तो हम कुछ ले लें। कहीं भी जहाँ
आपका मन हो।
नहीं–नहीं, मुझे कहीं पहुँचना हैं। वक्त दे रखा है।
चलता हूँ।
जयदेव जल्दी–जल्दी लिफ़्ट की ओर बढ़ चले।
यह शिक्षक–विद्वान कितने मसरूफ़, और हम जैसी मौज़मार
लेखक बिरादरी हमेशा फुर्सत–ही–फुर्सत में, कभी तो
दूसरों को शक होने लगता है हमें देख कर कि कहीं हमने
लिखने का काम किसी दूसरे को ठेके पर तो नहीं सौंप रखा।
एक हम हैं जाने कब लिखते पढ़ते हैं। एक यह है कि हमेशा
व्यस्त। अशिक्षित उपन्यासकारों और शिक्षित आलोचकों के
दरमियान का फ़र्क।
कैसे समझाएँ उनको कि हमारे निकट अध्ययन का अकेला और
इकहरापन उस एकांत को रूपांतरित नहीं करता जिससे रचना
जन्म लेती हैं। उसके लिए पहले अपने को उन्मुक्त छोड़ना
होता है और फिर संयम से अनुशासन से जोड़ना होता है। यह
शब्द के प्रति दोहरी ज़िम्मेदारी है। लेखक बिचारे
वक्त की गिरफ्त में हैं मगर आज़ाद लगते हैं।
सीमाओं–हदों से बाहर होते हैं क्योंकि संयम की नोक से
जुड़े रहते हैं।
जय से मुलाकात का प्रभाव कुछ ऐसा हुआ कि इस 'न्यूट्रल
ज़ोन में' मैंने आशियाना लंच मिस किया। शायद अच्छा ही
किया। ताज़े टमाटर का सूप लिया। पलट कर पान की दुकान से
'डनहिल' सिगरेट का एक पैकेट जयदेव के लिए ख़रीद लिया।
उन्हें दिया तो संकोच और रुख़ाई से कहा – मैं तो आपके
सामने बची सिगरेट नहीं जलाता। फिर यह महँगा ब्रांड
मेरा नहीं। आप मेरी आदत बिगाड़ देंगी।
इसका अंदेशा न रखो जयदेव। मैं एक ऐसी लीक हूँ जो न
किसी को बिगाड़ सकती है और न ही संवार सकती है। इसे मुझ
जैसे बंदे की पसंद समझो जो कभी–कभार तनावों को कम करने
के लिए इस ब्रांड को जलाता–बुझाता रहा है। तुम्हें
मालूम हो जयदेव, मैं अपने मेहनत के पैसों की बहुत
इज़्ज़त करती हूँ। तुम्हें ग़लतफ़हमी न होनी चाहिए। मैं न
पैसा फूंकती हूँ, न झोंकती हूँ। तमीज़ से ख़र्च करती
हूँ। हिसाब सुनो। लंच नहीं लिया– साफ़ दो सौ बचे। जो
टिप देना था उसका सूप पिया। सिगरेट के लिए एक पत्ता
दिया बाकी चेंज लिया। अब बताओ कैसा रहा यह करतब?
मुझे माफ़ करें। मुझे नहीं कहना चाहिए था।
क्यों नहीं, व्यक्तिगत नहीं तो अपनी कार्यकारी चिंताओं
को तो बांट सकते हैं। लिखने–पढ़ने के दबाव में कभी तो
मादक गंध भी चाहिए होती है। चाहें तो...
जयदेव की आँखों में शिक्षक का अनुशासन उतर आया।
गंभीरता से कहा, चाय–सिगरेट की लत ही काफ़ी है। इसके
आगे मेरी कोई दिलचस्पी नहीं।
मैं मन–ही–मन इस समझदारी पर हँसी।
आपके दोस्त इतने हैं कि एक–एक शाम एक को मिलें तो
साल–भर की शामें व्यस्त।
नहीं, मेरे परिचित ज़्यादा हैं, दोस्त कम। दोस्तों से
परिचित कहीं अच्छे। न वह दोस्तों की तरह आपके समय को
ले कर मनमानियाँ कर सकते हैं, न आप उन पर बोझ डाल सकते
हैं।
जयदेव व्यंग्य से हँसे। अच्छा है, आपने यह खुराफ़ातें
नहीं पाल रखीं। हाँ, हम जैसे किस श्रेणी में हैं।
परिचित?
नहीं। सब दूरियों के बावजूद आप एक अच्छे दोस्त हैं।
मैं अब सब दोस्तियों को मैला नहीं करता।
कोई एतराज़ तो नहीं, जय?
जय चौकन्ने हो गए। कहा – हम न जाने ऐसी बातें क्यों कर
रहे हैं?
कहना चाहती रही कि तुम्हें उकसा नहीं रही जयदेव,
तुम्हारे तनाव तुम्हारे अंदर घर कर रहे हैं। उनके लिए
बाहर का रास्ता बनाओ।
न कहीं झुंझलाहट का कारण है, न छटपटाहट का– फिर जयदेव
को कौन–सी अनदीखती चिंताएँ घेरे रहती हैं। मानो कहीं
जल्दी–जल्दी पहुँचना हो और वक्त की कमी हो। |