स्व. भोलागुरु रससिक्त साहित्य मंडल
- डॉ. शिव
शर्मा
जलेबी में जो स्थान रस का
होता है, साहित्य में भी रसों का वही महत्व होता है। इन
दिनों जीवन की हर वस्तु से रस गायब हो रहा है- क्या जलेबी,
क्या साहित्य और क्या जीवन, लेकिन सदा से ऐसा नहीं था।
स्व. भोला गुरु का जलेबी भंडार, रियासती राज से ही रससिक्त
जलेबियों के लिये प्रसिद्ध था। साहित्य में भी नौ रसों का
उल्लेख प्राचीन काल से हो रहा है। भोला गुरु अपने जीवन काल
से ही काव्य प्रेमी थे, वह भी जलेबियों की तरह रसदार काव्य
के। उनके निधन के बाद साहित्य में रसों का अभाव हो गया।
लोगों ने महसूस किया कि रससिक्त साहित्य लुप्त हो गया है।
कविताएँ और गद्य साहित्य में लट्ठ एवं जूतों का चलन अधिक
हो गया है। प्राचीन रसदार साहित्य दर्शन ही दुर्लभ हैं।
पुस्तकें भी योग एवं भोग पर छपने लगी हैं। कवि सम्मेलन में
फूहड़ हास्य कवि अपने तुक्कड़ बेच रहे हैं। एकाध लंदन
न्यूयार्क की गली में गुजराती या पंजाबी समाज में कविता
क्या पढ़ आए, अपने को अंतरराष्ट्रीय कवि मानने लगे हैं।
चैनलों पर ग्रेट कामेडीशो में गंदे से गंदे जोक्स सुनाने
वालों पर हँसी तो क्या रोना आता है। इन पर जजों के
रेकार्डेड ठहाकों से सीन लेना पड़ता है। हास्य व्यंग्य का
पुरस्कार वीर रस के कवियों को दिया जा रहा है। कुल मिलाकर
साहित्य से जलेबी वाला रस पूरी तरह से गायब है। न
साहित्य में रस रहा न जलेबियों में। जलेबियों का रस गया तो
जीवन भी रसहीन होने लगा। अन्य कवि और जलेबी विक्रेता भी इस
बात को गहराई से महसूस कर रहे थे। मेरे कस्बे के रससिक्त
कवियों ने इस कमी को पूरा करने के लिये रससिक्त साहित्य
मंडल स्थापित कर डाला।
स्व. भोला गुरु की सर्राफा
बाजार में प्रसिद्ध जलेबी की दुकान थी, जहाँ प्रति सप्ताह
गोष्ठी का आयोजन किया जाता था। जीवन भर भोला गुरु कवियों
को बुलवाकर जलेबी का रसपान करवाते रहे और स्वयं उनकी
रससिक्त कविताओं का रसपान करते रहे। साथ में महाकाल भाँग
घोट हाउस की युद्ध गोली भी छनवाते। उनके पुत्र अभी भी इस
दुकान को चला रहे थे। यों तो वे दिन रात अखाड़े में
मल्ल-दंगल करने के प्रेमी थे किंतु स्व. पिता की स्मृति को
सँजोए रखने के लिये इस मंडल की स्थापना हेतु आगे आ गए।
अपने पिता का असर तो होना ही था। अब कवियों की संगत मे वे
भी सुरम्य एवं सुरीली कविताई करने लगे। लोकल कवियों ने
इतना उकसाया कि वे, हाल ही में स्थापित रससिक्त साहित्य
मंडल की कविताएँ सुनने-सुनाने के लिये, अपने भोला गुरु
जलेबी भंडार के बाहर स्व. भोला गुरु रससिक्त साहित्य मंडल
का साइन बोर्ड लगाकर ही माने। जलेबी एवं साहित्य को जोड़ने
की इस प्रक्रिया में जलेबियाँ, साहित्य और कविगण सभी चल
निकले।
इतना ही नहीं वे सभी शाश्वत साहित्य लिखकर अमर होने के
सपने देखने लगे। शाश्वत साहित्य की रचनाओं में अमर होने के
लिये लोग क्या-क्या पापड़ नहीं बेलते। एक कवि मित्र तो
अपने स्वर्गीय पिता की स्मृति को शाश्वत बनाने के लिये
अपनी जेब से एक दर्जन पुरस्कार बाँटने लगे। शर्त यही थी कि
सभी कवित्त उनके पिताश्री को समर्पित हों। भोला गुरु के
सुपुत्र ने साहित्य मंडल की प्रथम गोष्ठी का उद्घाटन किया।
जिले के खाद्य अधिकारी ने साहित्य प्रेमियों को आमंत्रित
किया। इसमें आबकारी निरीक्षक, नायब तहसीलदार एवं नगर
कोतवाल भी सम्मिलित हुए। हुआ यह था कि कई कविगण इसी
प्रत्याशा में गोष्ठी में सम्मिलित हुए थे कि उनकी प्रेरणा
को जागृत करने के लिये आबकारी विभाग वाले अवश्य सस्ती दरों
पर सोमरस की व्यवस्था कर देंगे। इन सब महत्वपूर्ण लोगों की
उपस्थिति इस बात की गारंटी देती थी कि साहित्य गोष्ठी के
लिये चंदे की चिंता अब कवियों को नहीं करनी पड़ेगी।
स्व. भोला गुरु के चित्र पर माल्यार्पण के साथ गोष्ठी का
शुभारंभ हुआ। गड़बड़ी यह हो गई कि आयोजकों ने नगर के सभी
काव्य गुरुओं को एक साथ आमंत्रित कर लिया। फलस्वरूप
प्रतिस्पर्धी कवि गुटों में फौजदारी होते-होते बची। कस्बे
में कवियों के दो गुट हुआ करते थे। एक के नेता हास्य कवि
मुँहफट जी थे और दूसरे के नेता चातकजी, जो जाहिर है कि
शृंगार के कवि थे। निगम के मेले में कवि-सम्मेलन का ठेका
हास्य कवि को मिल गया था। मुँहफट जी काफी लोकप्रिय हो चुके
थे। वे बहरूपिये की तरह चोटी रखते और जब लोग उनकी कविताओं
पर नहीं हँसते, तो वे अपनी उसी चोटी और अपने अंगों के
विचित्र संचालन से श्रोताओं को हँसाने में सफल हो जाते।
इसीलिये वे लंदन, न्यूयार्क तक काव्य पाठ कर आए थे।
शीतयुद्ध का कारण यह भी था कि उदीयमान कवयित्री शीतलजी को
कौन पहले मंच पर स्थापित करे? शीतल जी दोनो को अपना गुरु
मानती थीं और दोनो का झंडा बुलंद करती रहती थीं।
स्व. भोला गुरु मंडल की इस काव्य गोष्ठी में शीतल जी
शृंगार रस के कवि गुरु चातक जी के साथ चली गई थीं। इस पर
हास्य कवि गुरु का पारा चढ़ गया था। अच्छा यह हुआ कि बात
जूतों चप्पलों तक नहीं पहुँची और रससिक्त जलेबियों के
आदान-प्रदान से ही विवाद का पटाक्षेप हो गया। गोष्ठी
इसलिये भी सफल रही कि सभी कवियों के वस्त्र रससिक्त हो गए
थे, कविताओं से नहीं तो क्या हुआ भोलागुरु की रससिक्त
जलेबियों ने तो अपना कमाल कर ही दिखाया। |