अंतरा करवड़े की
लघुकथा-
शाश्वत
*
अजयेन्द्रनाथ त्रिवेदी का
ललित निबंध-
कदंब कहाँ है
*
रचना प्रसंग में कुमार रवींद्र का आलेख
कविता की मिथकीय भंगिमा
*
पुनर्पाठ में गुरमीत बेदी के साथ
पर्यटन- चंबा की घाटी में
*
समकालीन कहानियों में भारत से
सुशांत सुप्रिय
की कहानी-
तितलियाँ
बाईसवीं
सदी में एक दिन देश में ग़ज़ब हो गया। सुबह लोग सो कर उठे तो
देखा कि चारों ओर तितलियाँ ही तितलियाँ हैं। गाँवों, क़स्बों,
शहरों, महानगरों में जिधर देखो उधर तितलियाँ ही तितलियाँ थीं।
घरों में तितलियाँ थीं। बाजारों में तितलियाँ थीं। खेतों में
तितलियाँ थीं। आँगनों में तितलियाँ थीं। गलियों-मोहल्लों में,
सड़कों-चौराहों पर करोड़ों-अरबों की संख्या में तितलियाँ ही
तितलियाँ थीं। दफ़्तरों में तितलियाँ थीं। मंत्रालयों में
तितलियाँ थीं। अदालतों में तितलियाँ थीं। अस्पतालों में
तितलियाँ थीं। तितलियाँ इतनी तादाद में थीं कि लोग कम हो गए,
तितलियाँ ज़्यादा हो गईं। सामान्य जन-जीवन पूरी तरह
अस्त-व्यस्त हो गया। लगता था जैसे तितलियों ने देश पर हमला बोल
दिया हो।
दिल्ली में संसद का सत्र चल रहा था। तितलियाँ भारी संख्या में
लोकसभा और राज्यसभा में घुस आईं। दर्शक-दीर्घा में तितलियाँ ही
तितलियाँ मँडराने लगीं। अध्यक्ष और सभापति के आसनों के चारों
ओर तितलियाँ ही तितलियाँ फड़फड़ाने लगीं। आख़िर दोनों सदनों की
कार्रवाई दिन भर के लिए स्थगित करनी पड़ी।
आगे...
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