खूब
प्यासी आँखें लेकर सुरेखा ने देहरी के अंदर पाँव रखा था।
भगवे वस्त्रों की महिमा से परे, रुद्राक्ष, चन्दन टीके से
कोसों दूर आज वह पिता की 'रानू' बनकर जीने आई थी। गोबर से
लीपे जाने वाले फर्श पर अब पत्थर मढ़े हुए थे। दीवारें,
आँगन और हवाएँ भी लंबे समय के साथ अजनबी हो चली थीं।
लेकिन सुरेखा का मन अब भी किशोर था।
ब्याह की लाल चुनरी ओढ़ाने को तत्पर परिवार के सामने उसने
त्याग, तपस्या, भौतिकता की निस्सारता का दर्शन रख दिया था।
अब गुरु का आश्रम ही उसका शाश्वत धाम था। परिवार ने
पसीजकर, असंतुष्ट होकर और मन पर पत्थर रखकर ही उसे अनुमति
दी थी।
इस बीच आश्रम की जीवनचर्या को पूरी तरह से आत्मसात कर लिया
था उसने। वर्षों की साधना, तपस्या, तीर्थयात्रा और संयमी
जीवन के बीच, कई बार मन में घर की बेर निंबौलियाँ विद्रोह
कर जातीं। तब पिता के आखरी बार कहे शब्द वह मन ही मन
दोहराती। "रानू बेटी, कभी भी लगे, कि ये निर्णय गलत हो गया
है, तब बिना सोचे समझे घर आ जाना। मैं हमेशा ही तुम्हारी
राह देखा करूँगा।" इस अबूझ सी विदाई पर कोई भी पिता क्या
कह सकता है भला।
और सुरेखा के मन में घर की चौखट पर हमेशा ही कल्पना के फूल
बिछे रहते। पिता की आँखों को जैसे उसकी ही प्रतीक्षा है,
घर भर उसके आने से रौनक पा गया है। इन्ही, वर्षों तक साँस
देती कल्पनाओं की पोटली थामे वह आज साक्षात पिता के सामने
थी।
पिता के जर्जर काँधे, पहले तो "वापसी" की अनहोनी सोचकर
काँप उठे, फिर जब 'सिर्फ मिलने' वाला अर्थ मिला, तब सहज हो
पाए। झुकी कमर, थकी देह, बेटे की उपेक्षा से असहाय हो उठे
ये वाले पिता, सुरेखा के लिये अजनबी थे। सन्यास की मर्यादा
उसे 'रानू' बन जाने से रोके रही लेकिन कोई बंधन न होने के
बावजूद पिता ने कोई पहल नहीं की। उसकी दिनचर्या, अपनी
बीमारी, खेती किसानी और परिवार की बातों के बीच के धागे
में जाने कितनी गाँठे आती गईं। समय बहुत कुछ खा गया था।
बुझे मन से सुरेखा चल दी, एक बार फिर, यह जानते हुए भी कि
अब कोई रोकने वाला नहीं है,
गिरते हुए मन के काँच के बर्तन को खूब सम्हालना चाहा,
लेकिन भुलावे के हाथों में न आकर वह 'छन्न' हो ही गया। उसे
वास्तविक आत्मज्ञान अब हुआ था। कुछ भी तो शाश्वत नहीं है।
१ जून २०१९ |