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ललित निबंध

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कदंब कहाँ है
- अजयेन्द्रनाथ त्रिवेदी


देश के मौसम विभाग ने पिछले महीने भविष्यवाणी की थी कि इस बार मानसून दो दिन पहले ही केरल के दरवाजे पर दस्तक दे देगा। कोलकाता महानगर की उमस भरी गरमी में जीनेवालों के लिए यह भविष्यवाणी कम मोहक न थी। पर जैसा कि आमतौर पर सुनहरे सपनों के साथ होता रहा है, इस बार भी वैसा ही हुआ। उसी मौसम विभाग ने फिर जल्दी ही कहा कि नहीं, मानसून समय से पीछे चल रहा है तथा यह देर से आएगा और पूरी तरह बरसेगा भी नहीं। गरमी का आतंक अभी और रहनेवाला है, यह जानकर सभी उदास हुए। अखबारों ने समाचार बनाए, मानसून के आने में देरी से होनेवाले नुकसानों को लेकर संपादकीय लिखे गए। हमारे महानगर में अभी इन चर्चाओं का ज्वार उतरा भी नहीं था कि सुदूर पूर्वोत्तर भारत में बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाने का समाचार आ गया। गजब तेरी लीला है ऐ करतार! एक ही देश में कहीं लोग मानसून की आस में बैठे बेहाल हो रहे हैं तो कहीं मानसून कहर बनकर बरस रहा है—न जाने संसारः किममृतमयः विषमयः।

महानगरों की पसंद-नापसंद अपनी तरह की होती है, जिसके कारण ज्यादातर बेहद व्यक्तिगत होते हैं। वातानुकूलित परिवेश में रहनेवाले को गरमी से उतनी शिकायत नहीं होती, जितनी पंखे में सोनेवाले को होती है। जिसके पास बिजली के पंखे नहीं हैं, महानगर में उस आदमी की अपनी आवाज ही नहीं होती। ऐसे में वह क्या सुनाए और किसे सुनाए? जाड़े से महानगरों के समर्थ लोगों को कोई शिकायत होती ही नहीं। हालाँकि पर्याप्त गरम कपड़ों में लिपटे हुए धनी लोगों को शीत के प्रकोप पर बहस करते हुए अक्सर देखा गया है—बादल बरसें तो गरमी से थोड़ी निजात मिले। पर दूर देहात में बादल की बाट जोहते किसानों की आँखों में झाँकें तो वहाँ एक दूसरी ही चाहत नजर आती है। यह धरती को परितृप्त देखने की चाहत है। धरती की परितृप्ति वर्षा से ही संभव है। वर्षा संभावना है तथा धरती संभवा। ‘आकाशात् पतितं तोयं सागरं प्रति गच्छति’ ऐसा कहकर भक्तिमार्गियों ने तथा द्यावापृथिवी की कल्पना प्रस्तुत करके वैदिक ऋषियों ने आकाश तथा पृथ्वी के जिस संयोग को अभिव्यक्ति दी है, वर्षा ऋतु में ही वह संयोग संभव होता है। कवि जयदेव ने ‘गीतगोविन्दम्’ का आरंभ वर्षा की चर्चा से ‘मेघैर्मेदुरमंबरम् वनभुवः’ कहकर अकारण ही नहीं किया है। कालिदास जब मेघ को संबोधित करते हुए त्वय्यायत्तं कृषिफलमिति ऐसा कहते हैं तो वर्षा से भीगी धरती की उर्वरा की ओर ही संकेत कर रहे होते हैं।

वर्षा से यादों का घनिष्ठ संबंध है। यादें चाहे मधुर हों, तिक्त हों या काषाय, वर्षा में अनवरत बरसती हैं तथा मन को सरस करती चलती हैं। वर्षा ऋतु में कहीं तो बूँदों से होड़ लेती हुई आँखें बरसती हैं तो कहीं बादलों के गर्जन में भावुक मन काँप उठता है। बरसात में किसी का तरसता मन यदि परितृप्ति का फल चखता है तो कहीं किसी की विरहाग्नि वर्षा की फुहारों से धधक उठती है। मानवीय भावनाओं पर चाहे जो गुजरे, बरसात में धरती तो हरी-भरी हो ही जाती है। वर्षा का सुकुमार वृक्ष है—कदंब। पंडित विद्यानिवास मिश्र ने कहीं लिखा है—दूसरी ऋतुओं में इसकी (कदंब की) पहचान नहीं होती। बस पावस में इसकी पहचान होती है। और सच पूछिए तो पावस में ही हिंदुस्तान की भी पहचान होती है। वर्षा से जुड़ी अनेक आरंभिक स्मृतियाँ आज जाग रही हैं। यादों के इस झरोखे से छितनार कदंब के पत्रों से टपकती बूँदों का सौंदर्य झिलमिला रहा है। धारासार वर्षा के बूँद-बाणों से बचने हम अक्सर अपनी गली के मोड़ पर खड़े कदंब की शरण में चले आते थे। कदंब बूँद-बाणों से हमारी कितनी रक्षा करता था। यह तो याद नहीं, पर बूँदों के आघात से टूटकर गिरते पके कदम्बों का स्वाद अभी भी जीभ पर है।

कदंब के पेड़ का यह बड़भाग है कि इसे श्रीकृष्ण का सायुज्य मिला है। शास्त्रों में उल्लेख है कि यमुना-तट के कदंब श्रीकृष्ण को बहुत प्रिय रहे हैं। रसखान कहते हैं कि यदि मुझे पक्षी योनि मिले तो मैं ब्रज के कदंब वृक्षों पर बसना चाहूँगा, जो खग हों तो बसेरौ करौ नित कालिंदी कूल कदंब की डारन। आखिर कहें भी क्यों नहीं? विद्यापति की पदावली इस बात की गवाही देती है कि इसी कदंब के नीचे खड़े नंद के नंदन बाँसुरी की टेर लगाकर श्रीराधा का आह्वान करते हैं—

नंदक नंदन कदंबक तरुतर धीरे-धीरे मुरली बजाउ।
समय संकेत-निकेतन बइसल बेरि-बेरि बोलि पठाउ॥

विश्व के विश्राम श्रीकृष्ण में कदंब के तले शरण ले रहे हैं। विरह की इस वेला में उनको श्रीराधा का स्मरण हो रहा है और वे मुरली पर फूँक देकर श्रीराधा को पुकार रहे हैं। आखिर इस वृक्ष में कुछ तो बात होगी ही। कदंब के पेड़ की सघन छाया शरीर का ताप हर लेती है। पर यह काम तो कई वृक्ष करते हैं। इसमें कैसा गौरव! पर गौरव है भाई, है—इसकी छाया में कुछ खास गौरव है। कदंब की छाया वैशाख-ज्येष्ठ में तपते सूरज की बेचैन कर देनेवाली किरणों से शरीर को बचाती है, इसमें सचमुच इसका कोई गौरव नहीं है। इसका गौरव है पावस की उन्मन कर देनेवाले प्रभाव से तन तथा मन को आश्रय देने में। भारतीय परंपरा में कदंब का शाश्वत समादर न तो इसके फलों की मधुरता के लिए है और न ही इसकी किसी औषधीय विशेषता के लिए ही। इसका समादर श्रीकृष्ण-सायुज्य के लिए है। यह सायुज्य यमुना के पुलिनों का आधार पाकर अलौकिक हो उठता है। यही कारण है कि परम विराग की अवस्था में भी श्रीमधुसूदन सरस्वती का मन भी यमुना के किनारे बार-बार दौड़ता है। ‘कालिंदी पुलिनेषु यत् किमपि तन्नीलं मनो धावति।’ वे कह उठते हैं।

परंतु मेरी स्थिति कुछ और ही है। विगत कुछ दिनों से मेरा मन अपने शहर की भीड़-भाड़ में तब्दील हो गया, उस स्थान पर दौड़-दौड़कर चला जा रहा है, जहाँ कभी एक जलाशय के किनारे कदंब का पेड़ हुआ करता था। वह स्थान अब कदंब चौक कहलाने लगा है। हमारे उच्च विद्यालय को यों तो अनेक रास्ते जाते थे, पर बरसात के समय सिर्फ एक ही रास्ता बचता था। वह रास्ता हमारे शहर का बाई-पास था। तब आज की तरह भारी ट्रैफिक तो था नहीं, सो शहर के बीच से ही बसें तथा भारी यान निकल जाया करते थे। इस सड़क के दोनों ओर पुष्पवंत वृक्ष लगे थे। नागफनी के घेरे में लगाए गए ये पेड़ आवारा जानवरों का आहार होने से बच गए थे। इन पेड़ों में थे—अमलतास, गुलमुहर, कचनार तथा कनेर। गरमियों में इनसे सुवसित फूल झरते तथा सघन छाया बरसती। बरसात आती तो ये पेड़ हरे पत्तों के छत्र बन जाते। इसी सड़क के किनारे, जहाँ से हम अपने घर को मुड़ते थे, एक जलाशय हुआ करता था। जलाशय के किनारे शहर के पुराने पावरहाउस के भग्नावशेष से लगा ही खड़ा था वह कदंब।

शारदीय नवरात्र में जब बादल निःशेष हो जाते थे, जलाशयों के स्वच्छ जल में आकाश की नीलिमा उतर आती थी। इस कदंब के नीचे हनुमानजी की मूर्ति रखी जाती थी। इस मूर्ति में पर्वताकार हनुमानजी राम-लक्ष्मण को अपने कंधों पर लेकर जाते हुए दिखाए जाते थे। केले के खंभों से मंडप सजाया जाता था तथा रंगीन कागज की तिलंगियों का वंदनवार बनता था। लाउडस्पीकर इस अवसर का एक आवश्यक शृंगार था। यह वह समय था, जब आई.टी. क्रांति का आभास भी हमें नहीं हुआ था तथा संगीत की सुरलहरियों के लिए हम ग्रामोफोन रिकॉर्ड के भरोसे थे। इन रिकॉर्डों को हम तवा कहते थे। बैटरीचलित ग्रामोफोन पर तवे को घूमते हुए देखने और इससे निकल रहे गीतों को पेड़ पर लगे लाउडस्पीकर से सुनने के लिए बाल-गोपाल की टोली सुबह से कदंब के नीचे जुट जाती। शारदीय नवरात्र के दौरान शाम को हनुमानजी की आरती होती तथा ढोलक-झाल पर पारंपरिक गीत गाए जाते। नवरात्र की समाप्ति के बाद हनुमानजी की मूर्ति का विसर्जन हो जाता और कदंब की छाया में फिर से प्रतिवेशी समाज की बैठक जमने लगती। कदंब तले हनुमान-पूजा की ख्याति बढ़ती गई। कुछ ही वर्षों के बाद यहाँ नाटक मंडली भी आने लगी, बिजली की सजावट होने लगी और इसी के साथ इस पूजा का पारंपरिक माहात्म्य भी लुप्त होता गया। हम भी बड़े हुए, रोजगार पाकर रोजी-रोटी की व्यवस्था में अपने शहर से दूर रहने लगे। पर बचपन का परिवेश स्मृति से कभी ओझल नहीं हुआ। आज भी शारदीय नवरात्रि निकट आते ही मन में कदंब तले की हनुमान-पूजा की याद हो जाती है।

पिछली यात्रा में छोटे भाई की बड़ी बेटी ने पूछ लिया था—बड़े पापा, इस कदंब चौक में कदंब कहाँ है? उसकी भोली जिज्ञासा ने मेरे मन को मथकर रख दिया। विगत ३५-४० वर्षों में हमारे शहर का भूगोल बिल्कुल ही बदल गया है। पुराना बाई-पास अब नाकाफी हो चला है। उसके किनारे खड़े पेड़ों का नामोनिशां नहीं बचा है। हमारे शहर का वह बाई-पास अब देर रात तक ट्रैफिक के शोरगुल में मदहोश रहता है तथा सुबह जल्दी ही जग जाता है। तेज गति से विशालकाय वाहन इस बाई-पास के सीने को चीरते हुए जब निकलते हैं तो धूल भी आकाश की ओर चल पड़ती है। इस धूल से नहाए पेड़ प्रेताविष्ट शरीर की तरह जल्दी ही सूख जाते हैं। कदम के पास के उस शांत जलाशय के चारों ओर इमारतें खड़ी हो गई हैं तथा वह जलाशय इमारतों से लगातार निकलनेवाले कचरे का भंडार बनता जा रहा है। इस कोलाहल में कोमल तन तथा भावुक मन कदंब सूखकर काँटा बन गया और किसी प्रत्यक्षदर्शी ने बताया, उसने उसी जलाशय में समाधि ले ली, जिसकी स्वच्छ जलराशि में वह कदंब कभी दिनभर अपना सौंदर्य निहारा करता था।

मैंने बेटी को समझाया—आज यहाँ कदंब का पेड़ नहीं है, पर जब मैं तुम्हारी तरह छोटा था तो यहाँ एक कदंब हुआ करता था। वह पेड़ आज भले ही नहीं है पर उसकी याद हमारी सामूहिक स्मृति में अब भी बनी हुई है। बेटी को कदंब के विषय में जानने की इच्छा हुई। उनसे अब क्या बताता कि भारत के संबंध में कदंब एक वनस्पति मात्र नहीं है। यह एक सूत्र है—वर्तमान को हमारे अतीत से जोड़नेवाला। कदंब आम-जामुन की तरह फल के लिए नहीं जाना जाता और न ही यह शीशम-सखुए की तरह अपने उपयोगी काठ के लिए ही जाना जाता है। कदंब जाना जाता है अपने स्निग्ध अनुरागी चरित्र के लिए। दुबली-पतली सी काया पर ऊँचा उठने की चाह, सीधा खड़ा होने का आग्रह, कदंब के पेड़ को अपनी जमात के अन्य पेड़ों से अलग पहचान देता है। कदंब महत्त्वाकांक्षी नहीं, कृपाकांक्षी है। इसमें वक्रता नहीं, सरलता है। कदंब को अपने पुष्पन-फलन के लिए पावस की प्रतीक्षा रहती है। यह पेड़ पीपल, वट तथा पाकड़ के पेड़ की तरह साम्राज्यवादी भी नहीं है, जो अपनी शाखाएँ-प्रशाखाएँ फैलाकर एक विशाल भूखंड घेर ले। यह दरवाजे पर भी उग तथा बढ़ सकता है तथा पिछवाडे़ भी पनप सकता है। यह अरण्य का नहीं, जनपद का पेड़ है। इसे मानुष-गंध प्रिय है। इसकी छाँह में दुपहरी बिताना जितना सुखद है, रात को इसके पत्तों से छनकर आ रही चाँदनी में नहाना भी उतना ही मनोहर। पर सावन की फुहार में इसके घने पत्तों से रिसते जल की बूँदों का गिरना विलक्षण शोभा तथा सांगीतिक परिवेश का सर्जन करता है। कदंब की शोभा पावस में उत्कर्ष को प्राप्त होती है, जब इसके काषाय फलों में मधुरता भरने लगती है तथा उसका हरित वर्ण हिरण्य हो उठता है।

बालपन से जिस कदंब की स्मृति मानस में कहीं दबी पड़ी थी, आज जाग उठी है। इसी के साथ जाग उठा है मन में सुवासित वैष्णव भाव। एक लोकगीत की टेक, जिसे सुनकर मेरी माँ विभोर हो जाया करती थीं, अभी याद आ रही है—

झूला लगे कदंब की डार झूलें कृष्ण मुरारी ना
और रामा झूलें राधा प्यारी, गावें कृष्ण मुरारी ना...

पावस में कजरी गाने तथा झूला झूलने की परंपरा बहुत पुरानी है तथा यह हमारे लोकजीवन का अभिन्न अंग रही है। जनसंख्या वृद्धि तथा औद्योगीकरण के दबाव से झूले अब कम लगते हैं, पर कजरी गायन में झूले पड़ने तथा उनके साथ जुड़े विभिन्न क्रियाकलापों की सविस्तार चर्चा मिलती है। कजरी के पदों में महिलाओं का सखियों के साथ झूला झूलने के लिए निकलने, हँसी-ठिठोली करने, साज-शृंगार करने आदि के वर्णन मिलते हैं। इनमें अनेक पदों में कदंब का उल्लेख हुआ है। रसिकदास की एक कजरी याद आ रही है, जिसमें श्रीकृष्ण राधा को झूले का आमंत्रण दे रहे हैं। कदंब यहाँ भी उपस्थित हो गया है—

झूलन चलो हिंडोला ना वृषभानु नंदिनी।
झूला परौ है प्यारी सुंदर कदंब की डारी॥
सावन की तीज आई घटा घनघोर छाई।
पहिरौ परंग साड़ी मानो विनय हमारी॥
मुख चंद्र उजारी मृदु हास नंदिनी
झूलन चलो हिंडोला ना वृषभानु नंदिनी!

पावस ऋतु में कदंब की कमनीय डार (डाली) पर लटका झूला श्रीकृष्ण तथा श्रीराधा को झुला रहा है। पावस सार्वभौम तृप्ति का महोत्सव है। कदंब की छतनार डालें तथा उसपर लटके लाल-ललाम फल परितृप्त परिवेश के सूचक हैं। घनघोर वर्षा में कदंब के पुष्ट पत्रों से टपकती बूँदों को देखकर ऐसा लगता है कि कदंब धन-धान्य के पार्थिव यज्ञ में अपने पत्र रूपी स्रुवा (यज्ञाग्नि में घी डालने के लिए बना लकड़ी का बड़ा चम्मच सा उपकरण) से जलधार का उत्सर्ग कर रहा है। पृथ्वी की तृप्ति, पार्थिवों की तृप्ति इस ऋतु का संकल्प है। कदंब उस शिव-संकल्प में सहायक बना है। श्यामल मेघ इस ऋतु के सर्वस्व हैं। धारासार वृष्टि इस ऋतु का नर्तन है। महाकवि जयदेव कहते हैं कि इसी मेघ-मेदुर आकाश के नीचे तमाल-वन में राधाकृष्ण जगत् का कल्याण करने के लिए लीलावंत होते हैं। सारे चराचर जगत् को स्पंदनशील करनेवाली युगलमूर्ति को यह कदंब न जाने कब से स्पंदित कर रहा है। हमारे भक्त कवियों ने यह दिव्य लीला छककर गाई है। इसकी प्रतिध्वनि युगों-युगों से मानव-मन को उत्सवोन्मत्त करती आ रही है। मुझे लगता है, हर भावुक के मन रूपी वृंदावन में कदंब का एक वृक्ष अवश्य छिपा रहता है। कदंब के आश्रय में श्रीकृष्ण अपनी भुवन-मोहिनी वंशी पर फूँक मारते तथा हर साकांक्ष जन के मन में प्रेम का अंकुर उगाते हैं। यह प्रेम जितना पार्थिव लगता है, उससे कहीं ज्यादा दिव्यता है इसमें। क्योंकि यह प्रेम अबाध है, पात्र-निरपेक्ष भी। यह प्रेम लता-गुल्मों के लिए भी उतना ही सघन है, जितना मानव मात्र के लिए। इस प्रेम में यमुना भी नहाती है और पूतना भी। इस प्रेम की भाषा गौवें भी समझती हैं, पक्षी भी समझते हैं तथा गोप-गोपियों को भी यह समझ में आती है। यह प्रेम भाषा का नहीं, भाव का आश्रय ग्रहण करता है, तभी तो सभी इसे समझ पाते हैं।

कदंब हमारे परिवेश में श्रीकृष्ण की शाश्वत स्मृति का प्रतीक है। क्षीर सागर में यदि शेषनाग भगवान् विष्णु के अनंतशयन के आधार हैं तो मर्त्यलोक में कदंब श्रीकृष्ण की ललित लीलाओं का आश्रय है। हमारी लोककथा में विभिन्न रूपों में प्रतिष्ठित तथा लोकसाहित्य में अनेक प्रकार से वर्णित इस कदंब से हमारी पहचान बनी है। संस्कृति के संक्रमण की इस घड़ी में मेरे बचपन का कदंब भौतिक रूप में आज वहाँ नहीं है, जहाँ मेरी नन्हीं दीपिका उसे खोज रही है। पर कदंब-चौक अवश्य विद्यमान है। कदंब की यह अनुपस्थिति नन्हीं दीपिका की तरह अनेक-अनेक शिशुओं के मन में कदंब को पहचानने के लिए उकसा रही है। पहचान की यह उत्कंठा ही कदंब-भाव है। पहचान का यह आग्रह परंपरा से प्रसूत है, जिसमें विगत के अनुभव की संगति विद्यमान के यथार्थ के साथ बिठाने की चेष्टा की जाती है। संगति बिठाने का यह प्रयास ही हमारी संस्कृति को नव-नव कलेवर प्रदान करता जाता है। नन्हीं दीपिका जब यह पूछती है कि बड़े पापा, इस कदंब चौक में कदंब कहाँ है तो मुझे लगता है, हमारी संस्कृति एक बार फिर से नवकलेवर ग्रहण कर रही है।

१ जून २०१९

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