चम्बा की घाटी
गुरमीत बेदी
विख्यात
कलापारखी डॉ. बोगल ने चम्बा को यों ही "अचम्भा" नहीं कह डाला था
और सैलानी भी यों ही इस नगरी में नहीं खिंचे चले आते। चम्बा की
वादियों में कोई ऐसा सम्मोहन ज़रूर है जो सैलानियों को
मंत्रमुग्ध कर देता है और वे बार–बार यहाँ दस्तक देने को
लालायित रहते हैं। यहाँ मंदिरों से उठती धार्मिक गीतों की
स्वरलहरियों जहाँ परिवेश को आध्यात्मिक बना देती हैं, वहीं
रावी नदी की मस्त रवानगी और पहाड़ों की ओट से आते शीतल हवा के
झोंके सैलानी को ताज़गी का अहसास कराते हैं।
चम्बा में कदम रखते ही इतिहास के कई वर्क पंख फड़फड़ाने लगते हैं
और यहाँ की प्राचीन प्रतिमाएँ संवाद को आतुर प्रतीत हो उठती
हैं। चम्बा इतिहास, कला, धर्म और पर्यटन का मनोहारी मेल है और
चम्बा के लोग अलमस्त, फक्कड़ तबीयत के। चम्बा की खूबसूरत
वादियों को ज्यों–ज्यों हम पार करते जाते हैं, आश्चर्यों के कई
नये वर्क हमारे सामने खुलते चले जाते हैं और प्रकृति अपने
दिव्य सौंदर्य की झलक हमें दिखाती चलती है। चम्बा की किसी
दुर्गम वादी में अगर कोई पंगवाली युवती मुस्करा कर हमारा
अभिवादन करती है तो किसी वादी में कोई गद्दिन युवती अपनी
भेड़–बकरियों के रेवड़ के साथ गुज़रती हुई अपनी मासूमियत से हमारा
दिल जीत जाती है। चम्बा के सौंदर्य को बड़ी शिद्दत से आत्मसात
करने के बाद ही डॉ. बोगल ने इसे "अचंभा" कहा होगा।
चम्बा
को यह सौभाग्य प्राप्त रहा है कि इसे एक से बढ़कर एक कलाप्रिय,
धार्मिक व जनसेवक राजा मिले। इन राजाओं के काल में यहाँ की लोक
कलाएँ न केवल फली–फूलीं अपितु इनकी ख्याति चम्बा की सीमाओं को
पार कर पूरे भारत में फैली। इन कलाप्रिय नरेशों में राज श्री
सिंह (१८४४), राजा राम सिंह (१८७३) व राजा भूरि सिंह (१९०४) के नाम विषेश रूप से उल्लेखनीय हैं। वास्तुकला हो या
भित्तिचित्र कला, मूर्तिकला हो या काष्ठ कला, जितना प्रोत्साहन
इन्हें चम्बा में मिला, शायद ही ये कलाएँ देश में कहीं अन्यत्र
इतनी विकसित हुई हों। "चम्बा कलम" (विशेष कला शैली : चित्र
दाहिनी ओर) ने तो देश भर में एक अलग पहचान बनाई है। किसी घाटी
की ऊंचाई पर खड़े होकर देखें तो समूचा चम्बा शहर भी किसी अनूठी
कलाकृति की तरह ही लगता है। ढलानदार छत्तों वाले मकान, शिखर
शैली के मंदिर, हरा–भरा विशाल चौगान और इसकी पृष्ठभूमि में
यूरोपीय प्रभाव लिए महलों का वास्तुशिल्प सहसा ही मन मोह लेता
है। चम्बा में पहुंचते ही रजवाड़ाशाही के दिनों में लौटने की
कल्पना भी की जा सकती है और यहाँ के प्राचीन रंगमहल व अखंडचंडी
महल में घूमते हुए अतीत की पदचाप भी सुनी जा सकती है।
चम्बा के संस्थापक राजा साहिल वर्मा ने ९२० ई .में इस शहर का
नामकरण अपनी बेटी चंपा के नाम पर क्यों किया था, इस बारे में
एक बहुत ही रोचक किंवदंती प्रचलित है। कहा जाता है कि
राजकुमारी चंपावती बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति की थी और नित्य
स्वाध्याय के लिए एक साधू के पास जाया करती थी। एक दिन राजा को
किसी कारणवश अपनी बेटी पर संदेह हो गया। शाम को जब साधू के
आश्रम में बेटी जाने लगी तो राजा भी चुपके से उसके पीछे हो
लिया। बेटी के आश्रम में
प्रवेश करते ही जब राजा भी अंदर गया तो उसे वहाँ कोई दिखाई
नहीं दिया। लेकिन तभी आश्रम से एक आवाज़ गूँजी कि उसका संदेह
निराधार है और अपनी बेटी पर शक करने की सज़ा के रूप में उसकी
निष्कलंक बेटी छीन ली जाती है। साथ ही
राजा को इस स्थान पर एक मंदिर बनाने का आदेश भी प्राप्त हुआ।
चम्बा नगर के ऐतिहासिक चौगान (चित्र में) के पास स्थित इस
मंदिर को लोग चमेसनी देवी के नाम से पुकारते हैं। वास्तुकला की
दृष्टि से यह मंदिर अद्वितीय है। इस घटना के बाद राजा साहिल
वर्मा ने नगर का नामकरण राजकुमारी चंपा के नाम पर किया, जो बाद
में चम्बा कहलाने लगा।
चम्बा में मंदिरों की बहुतायत होने के कारण इसे "मंदिरों की
नगरी" भी कहा जाता है। चम्बा में लगभग ७५ मंदिर हैं और इनके
बारे में अलग–अलग किंवदंतियाँ हैं। इनमें से कई मंदिर शिखर
शैली के हैं और कई पर्वतीय शैली के। शिल्प व वास्तुकला की
दृष्टि से ये मंदिर अद्वितीय हैं।
लक्ष्मीनारायण मंदिर समूह तो चम्बा को सर्वप्रसिद्ध देवस्थल
है। इस मंदिर समूह में महाकाली, हनुमान, नंदीगण के मंदिरों के
साथ–साथ विष्णु व शिव के तीन–तीन मंदिर हैं। सिद्ध चर्पटनाथ की
समाधि भी यहीं है। मंदिर में अवस्थित लक्ष्मीनारायण की बैकुंठ
मूर्ति कश्मीरी व गुप्तकालीन निर्माण कला का अनूठा संगम है। इस
मूर्ति के चार मुख व चार हाथ हैं। मूर्ति की पृष्ठभूमि में
तोरण है, जिस पर १० अवतारों की लीला चित्रित है।
चम्बा
कलानगरी भी कहलाती है। यहाँ भूरिसिंह नाम का संग्रहालय है जहाँ
चम्बा घाटी की हर कला सुशोभित है। भारत के ५ प्राचीन प्रमुख संग्रहालयों
में से एक माने जाने वाला यह संग्रहालय शहर के ऐतिहासिक चौगान
में स्थित है और विश्व भर के पर्यटकों, शोधार्थियों व
कलाप्रेमियों के आकर्षण का केंद्र है। इस संग्रहालय में ५ हज़ार
से अधिक ऐसी दुर्लभ कलाकृतियाँ हैं जो इस तथ्य की साक्षी हैं
कि उस समय चम्बा की कला अपने स्वर्णिम युग में थी। इन
कलाकृतियों में भित्तिचित्र भी हैं और मूर्तियाँ भी,
पांडुलिपियाँ भी हैं और विभिन्न धातुओं से निर्मित वस्तुएँ भी।
यही नहीं, प्राचीन सिक्के और आभूषण भी बड़ी सँभाल के साथ यहाँ
रखे गए है। विश्व प्रसिद्ध "चम्बा रूमाल" भी यहाँ शीशे के
बक्सों में देखा जा सकता है। संग्रहालय में रखी गई मूर्तियाँ
उन्नत शिल्प कला का बेजोड़ उदाहरण हैं। इनमें से एक मूर्ति
भगवान वासुदेव की हैं (चित्र दायीं ओर)। यह मूर्ति इस
संग्रहालय की सुरक्षित प्रस्तर प्रतिभाओं में से सब से छोटी
है।
चम्बा की कलात्मक धरोहर में यहाँ की पनघट शिलाओं को भी शामिल
किया जा सकता है। ये शिलाएँ चम्बा जनपद के ग्रामीण आंचलों में
बनी बावड़ियों और नौणा जैसे प्राकृतिक जल स्त्रोतों के किनारे
आज भी प्रतिष्ठित देखी जा सकती हैं। घाटियों में घूमता कोई
घुमक्कड़ जब अपनी प्यास बुझाने इन जल स्त्रोतों के पास पहुंचता
है तो वहाँ रखी पनघट शिलाओं के कलात्मक शिल्प और इन पर खुदी
आकृतियों को देखकर दंग रह जाता है। ये शिलाएँ चम्बा की
गौरवपूर्ण संस्कृति व इतिहास का आइना भी हैं। खुले आकाश तले
प्रतिष्ठित होने के बाबजूद ये अपना मौलिक स्वरूप बरकरार रखे
हुए हैं। कुछ विशिष्ट शिलाएँ तो भूरिसिंह संग्रहालय में भी
प्रदर्शित की गई हैं।
चम्बा के अखंड चंडी महल और रंग महल भी देखने योग्य हैं। अखंड
चंडी महल तो एक ऐतिहासिक स्मारक होने के साथ–साथ अनूठे वास्तु
स्थापत्य और चित्रकला के लिए देशभर में मशहूर हैं। इस महल में
घूमते हुए सैलानी रजबाड़ाशाही के युग में लौट जाता है और चम्बा
के राजाओं की कलात्मक अभिरुचियाँ और राजसी ठाठ–बाठ उसके
निगाहों के आगे तैरने लगते हैं। चम्बा के ऐतिहासिक चौगान से
साफ़ दिखने वाला यह महल इतिहास के कई थपेड़ों का मूक साक्षी है।
रजवाड़ाशाही के दौर में राजा आते–जाते रहे और इस महल के निर्माण
व विस्तार का काम चलता रहा।
नगर
के उत्तरी भाग में किलानुमा दिखने वाला रंगमहल भी चम्बा की
कलात्मक व ऐतिहासिक धरोहर है। अखंड चंडी महल का निर्माण तो बाद
में हुआ, पहले रंग महल ही चम्बा के राजाओं का आवास हुआ करता
था। इस रंगमहल की नींव १७५५ में तत्कालीन चम्बा नरेश उमेद सिंह
ने रखी थी। उमेद सिंह ने १७४८ से १७६४ तक चम्बा राज्य पर शासन
किया। उसकी इच्छा थी कि यह भवन इतना विशाल व आलीशान बने कि
पड़ोसी रियासतों के राजा भी इसकी खूबसूरती से ईर्ष्या करें
लेकिन उमेद सिंह के जीवन काल में यह भवन पूरा नहीं हो पाया।
इसका बाकी निर्माण कार्य उसके पुत्र राजा राजसिंह ने पूरा करके
अपने पिता का स्वप्न साकार किया। यह महल अनूठी कलात्मक धरोहर
भी बने, इस उद्देश्य से इसके भीतर पहाड़ी शैली के अनूठे चित्र
बनाए गए।
चम्बा की सांस्कृतिक
धरोहर में यहाँ के मेलों को भी शामिल किया जा सकता है। वैसे तो
इस जनपद में बहुत से मेलों का आयोजन होता है लेकिन मिंजर मेला
और मणीमहेश मेला, दो ऐसे आयोजन हैं जिन्होंने देशव्यापी ख्याति
अर्जित की है। चम्बा
मिंजर मेला जहाँ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है वहीं
मणीमहेश मेला को राज्य स्तरीय दर्जा हासिल है। मिंजर मेला उन
दिनों लगता है जब सावन की हल्की–हल्की फुहारों से लोग भीग रहे
होते हैं। इसे सावन की फुहारों में लगने वाला मेला भी कहा जाता
है। इस मेले में आयोजित लोकनृत्यों में तो समूची चम्बा घाटी की
संस्कृति देखने को मिलती है। |