समकालीन कहानियों में भारत से
चंडीदत्त शुक्ल की कहानी-
तुम चुप रहो
गुलमुहर
एकांत
का धूसर रंग हो, चाहे मिलन की चटख रंगोली। खुशी मन में ही पैदा
होती है, वहीं खत्म भी हो जाती है। हर दिन को होली बनाने की
चाहत में फाल्गुनी ने वर्जित फल चख तो लिया, लेकिन वह भूल गई
थी कि हम अकेले भी अपने अंदर होते हैं और पूर्ण भी खुद से ही।
कोई तनहाई दूसरों के सहारे खत्म नहीं होती...आसमान के गाल लाल
थे। ऐन टमाटर की माफ़िक। होली का हफ्ता शुरू हो चुका था, सो
धरती से अंबर तक, हर तरफ रंगों की बारात सजी थी, लेकिन हैरत की
बात – सर्दी अब भी हवा की नसों में तैरती हुई। ठंड ने बादलों
को थप्पड़ मार-मारकर पूरे आसमान को सुर्ख कर दिया था। सारी रात
जागने के बाद चाँद कराह रहा था। दर्द के मारे उसके पैरों की
नसें नीली पड़ गई थीं। उसकी विनती पर ही सरपट भागते, सूरज के
रथ के आगे जुते घोड़े यकायक ठहर गए। उनके पैरों की नाल यों
झनकी कि फाल्गुनी की आँखों से पलकों ने कुट्टी कर दी। उसने
`आह' कह अंगड़ाई ली और करवट बदली। निगाहें लाल थीं। कम सोने और
ज्यादा जागने की वजह से। रात का लंबा वक्फा आँख की राह से
गुजरकर आगे बढ़ा था।
आगे...
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रंगभरी एकादशी
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रंग गई पग पग धन्य धरा
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