नवगीतों में मध्यम वर्ग का
संघर्ष
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सुभाष वसिष्ठ
नवगीतों सम्बन्धी आलेखों, संग्रहों, संकलनों की
भूमिकाओं तथा समीक्षात्मक अथवा विकास रेखांकित करने
वाली पुस्तकों में, कथ्य की दृष्टि से आधुनिक युगबोध,
यथार्थ परकता, वेदना, अंलिकता, लोक संवेदना, प्रीति
तत्व, प्रकृति, व्यंग्य, सामाजिक, राष्ट्रीय तथा
अनतरराष्ट्रीय सन्दर्भों आदि प्रवृत्यात्मक बिन्दुओं
का उल्लेख तो अवश्य मिलता है परन्तु, नवगीतों के नगरीय
मध्यवर्ग के संघर्ष का उल्लेख पृथक रूप से कहीं नहीं
मिलता। यदि है भी तो उसे नगण्य ही माना जाएगा।
कहने की आवश्यकता नहीं कि मध्यवर्ग का सम्बन्ध न तो
गाँव से है, न किसान से और न ही मजदूर वर्ग से। उसका
सम्बन्ध प्रमुखतः नगर के वेतनभोगी कर्मचारी से है, जो
नौकरपेशा है। सुविधानुसार इसे निम्न मध्यवर्ग, मध्य
वर्ग और उच्च मध्यवर्ग में विभाजित कर दिया जाता है।
तो भी मध्यवर्ग अपननी विशेषताओं के साथ मध्यवर्ग ही है
जो सदैव विभिन्न प्रकार के दबावों के अन्तर्गत
संघर्षरत जीवन जीने के लिये अभिशप्त रहा है और रहता
है।
वस्तुतः कई सारे नवगीतकारों ने मध्यवर्गीय संघर्ष के
विभिन्न स्तरीय बिन्दुओं को स्वाभाविक रूप में न्यस्त
किया है, शब्दांकित किया है, उकेरा है और रेखांकित
किया है। यहाँ हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि यह
मध्यवर्ग ही है जिसने सर्वाधिक रचनाकार नवगीत संसार को
दिये हैं। बल्कि मैं तो कहूँगा कि यह बात सम्पूर्ण
साहित्य जगत पर भी लागू की जा सकती है।
नगर में आकर मध्यवर्गीय व्यक्ति का जीव यान्त्रिक हो
गया है। उमाकांत मालवीय के शब्दों में-
भीड़ भाड़
भाग दौड़, सूत्र खो गये
माँ बेटी पति पत्नी
यंत्र हो गये - १
वही रोज मर्रा का रूटीन, यान्त्रिक। इसीलिये नगर में
आगमन हुआ था? मंथन और विवशता को आनंद वल्लभ शर्मा ने
मिथकीय चरित्रों का सदुपयोग करते हुए बड़े सार्थक ढँग
से व्यक्त किया है-
चले राम
संग चली साइकिल प्रिया
लंच बाक्स लक्ष्मण सा
साथ हो लिया
हमने वह औध क्यों तजी
किरणों की बाँसुरी बजी
लो दिन की आरती सजी - २
आपाधापी का जीवन व्यक्ति की विवशता है और संघर्ष का
हिस्सा भी... वीरेन्द्र मिश्र के शब्दों में
मुझमें आपाधापी हर पल संघर्षों की
एक जगह सिमट गयी चिल्लाहट वर्षों की - ३
विसंगति यह है कि शोर में सन्नाटा है वीरेन्द्र मिश्र
कहते हैं-
हम रहते हैं रेल किनारे
फिर भी सन्नाटा जीते हैं - ४
मध्यम वर्ग के व्यक्ति का जीवन जटिल हो गया है। वह दिन
रात एक अंधी दौड़ में शामिल रहता है। उसमें बहुत सीमा
तक दिशाहीनता भी है और निरुद्देश्यता भी। फिर भी जीवन
यापन के लिये वह गतिमान रहता है। राजेन्द्र गौतम के
शब्दों में-
दिशाहीन अंधी भीड़ों में
रहा खोज क्या निपट अकेला
लुटा राह में बनजारों सा
गया छूट पीछे का मेला - ५
बालस्वरूप राही महानगर के भीड़ तंत्र और तज्जन्य
परिवेश को ही नये गीत के जन्म लेने का कारक बना देते
हैं। उनके शब्दों में-
धुँधुआते शहरों की साँवली
दुपहरों के आसपास
गीत नया जन्मा
बच्चा है
भीड़ भरी सड़कों पर
रेंग रेंग चलता है
दुर्घटनाओं के साये में ही पलता है - ६
वे नगर का यथार्थ अंकन भी करते हैं तथा व्यक्ति की
जिजीविषा को भी रेखांकित करते हैं। नगर में वातावरण
तथा व्यवस्थाएँ जीने योग्य नहीं हैं। बहुत सीमा तक
अधिसंख्य क्षेत्र में नारकीय जैसी भी होती हैं। इन
सबके बीच भी व्यक्ति ऐसा नगर जीने को (((अऊश्त))) होता
है। शम्भु सिंह के शब्दों में-
तेज बदबू, सड़क और मैं हूँ
हर तरफ है घुटन और मैं हूँ
हड्डियों, पसलियों चीथड़ों का
सर्द वातावरण और मैं हूँ
यों अकेला नरक भोगता भी
मैं सभी के लिये जी रहा हूँ - ७
अंधी दौड़ की निरुद्देश्यता ने मध्यवर्ग को मात्र
हताशा ही सौंपी है। खोखलेपन ने भिन्न प्रकार के संघर्ष
को जन्म दिया है। सोम ठाकुर ने अस्थिर स्थितियों को
अपने शब्दों में व्यक्ति किया है-
तन हुए शहर के पर मन जंगल के हुए
शीश कटी देह लिये हम इस कोलाहल में
धूमते रहे लेकर विषघट छलके हुए - ८
मध्यवर्ग सपने देखता है, उन्हें पूरा करने के प्रयास
में स्थितियों से जूझता है, परन्तु बहुधा वह जो चाहता
नहीं मिलता। रामकुमार कृषक कहते हैं-
धुँधुआती आँख, आँख टोहती रही
आस बँधी प्यास, बाट जोहती रही
उग आया रेत का बगीचा - ९
वीरेन्द्र मिश्र के मन में हताशा भी है और क्षोभ भी-
क्या होगा जी जीकर इतनी लंबी उमर
मोती से आँसू पी-पीकर -१०
कारण स्पष्ट है कि प्रयासों के बावजूद दुख आते हैं और
जल्दी जल्दी आते हैं। वे कहते हैं-
फिर से तू आ गया ओ दुख के क्षण
इतनी क्या जल्दी थी
तेरी यह गिद्ध दृष्टि कैसी है
फैली जो छत पर दीवार और फर्श पर
कुर्सी पर टेबल पर पुस्तक पर
गीतों पर, जीने के निश्चित आदर्श पर - ११
वीरेन्द्र मिश्र का दुख की गिद्ध दृष्टि पर प्रश्न
करना जो कि व्यक्ति के अनेक सुनिश्चित आदर्शों को
प्रभावित करती है, असल में मध्यवर्गीय व्यक्ति की विवश
स्थितियों को रेखांकित करना है। तथ्यपूर्ण बिंदु तो यह
है कि व्यक्ति चाहने पर भी दुखों से मुकाबला नहीं कर
पाता। रमेश रंजक ने इस संदर्भ को इस प्रकार अभिव्यक्ति
प्रदान की है-
जिस दिन से आए उस दिन से
घर में यहीं पड़े हैं
नाम नहीं लेते जाने का
घर की लिपी पुती बैठक से
धक्के मार निकालूँ कैसे
ये मुझसे तगड़े हैं - १२
नगर के मध्यवर्गीय व्यक्ति की शोचनीय स्थिति यह है कि
वह दुखों से न लड़ पाने के बावजूद अपनी जीवन यात्रा को
गतिमान रखने का प्रयास करता है। यह बात अलग है कि फिर
भी उसे पराजय मिलती है। योगेन्द्रदत्त शर्मा के शब्दों
में-
जीवन की आपाधापी मे भाग-दौड़ में
पूरा जोर लगाया हमने
किंतु सदा ही रहे पिछड़ते
यह संग्राम स्वयं से भी था, औरों से भी
हार गए हम अपनी
प्रतिछवियों छायाओं से लड़ते -१३
उन्हें लगता है कि -
जिंदगी के नाम पर
पल पल मरण जीते रहे
स्वप्न आँखों में सजाए
प्यास होंठों पर लिये - १४
देवेन्द्र शर्मा इंद्र को इस तरह का जीवन यापन अर्थहीन
लगता है। वे कहते हैं-
जीने के नाम पर महज
साँसों पर ढोयी हैं मुर्दा तारीखें
सड़कों दूकानों पर कान रहे पीते
अर्थहीन चीखें - १५
हताशा असफलता और निरंतर दुख मिलने के कारण चिन्तनपरक
शहरी मध्यवर्गीय व्यक्ति को बहुधा आभास होता है कि
उसका कोई अस्तित्व नहीं है। शहर, विसंगति और अस्तित्व
की तलाश को ओम प्रभाकर इन शब्दों में अभिव्यक्ति
प्रदान करते हैं-
हम हैं लेकिन किस लिये हमें मालूम नहीं
मालूम नहीं? क्यों आखिर क्यों, मालूम नहीं?
यह एक सड़क, वह एक पेड़
यह गन्दे पानी का नाला
यह एक गली वह एक द्वार
यह लकवा मारे मुँह जैसा
लटका है खुला - बंद ताला
क्यों यह सब कुछ किसलिये हमें मालूम नहीं। -१६
अर्थहीन अस्तित्व हेतु अर्थ को जानने का आह्वान
नचिकेता करते हैं-
भीड़ भरी सड़कों पर रेंग रेंग
आओ कुछ अर्थ की तलाश करें -१७
रामकुमार कृषक कहते हैं-
रात दिन उठती हुई ऊँचाइयों में
आदमी अब और बौना
और बौना हो रहा है - १८
अस्तित्व की पहचान, आत्मोध हीनता जैसे जीवन-बिंदुओं ने
व्यक्ति को क्रमशः संवेदनहीन बना दिया है। ओम प्रभाकर
के शब्दों में-
अस्पन्दित... अस्पन्दित... अस्पन्दित...
यहाँ केवल रेत है जो कुछ नहीं देती
यहाँ केवल शून्य है जो प्राण लेता है - १९
वीरेन्द्र मिश्र शहर की संवेदनहीनता को इस तरह
अभिव्यक्त करते हैं
मैं हूँ पत्थर का शहर, लोग भी पत्थर के हैं
कुछ हैं बाहर के मेहमान तो कुछ घर के हैं - २०
कैसी विडम्बना है कि नगर का व्यक्ति, चाहे वह
स्थानान्तरित होकर आया हो या यहाँ का मूल निवासी हो,
संवेदनाशून्य हो जाता है। व्यक्ति केवल अपने तक सीमित
रह जाता है। अपने रूटीन तक सीमित। एक प्रकार के विभ्रम
की स्थिति में। वीरेन्द्र मिश्र ने वेतन भोगी व्यक्ति
और उसकी आन्तरिक अवस्था को बड़े ही अर्थवान शब्दों
व्यक्त किया है। वे कहते हैं-
बोलो मन इतने सारे भरम
चलते क्यों ओढ़ते हुए
तोड़ नहीं पाएँगे हम कलम पटरी पर दौड़ते हुए
आता है निमिष वधिक आता है
काटेगा सपनों के शीश को
एक दिन महीने में खुश होगा
अखरेगा बाकी उन्तीस को
बाहर से हम खुद को जोड़ेंगे
अंदर से तोड़ते हुए -२१
वस्तुतः अपने तक सीमित रहने वाली अंधी दौड़ ने व्यक्ति
को अजनबीपन की गिरफ्त में ले लिया है। परिणामतः
पारस्परिक सम्बन्धों पर उसका प्रभाव पड़ा है। कुमार
रवीन्द्र के शब्दों में-
अपनी आँखों पर पट्टी सब बाँधे रहते
कोई भी घर के बँटने का हाल न कहते -२२
सुभाष वसिष्ठ के अनुसार संवेदना, जो कि पारस्परिक नेह
सम्बन्धों का आधार होती, अब बस कहानियों की हो गयी है-
आ गयी संवेदना उस बिंदु पर चल के
बस, कथा के रह गये हैं पत्र पीपल के - २३
कुँअर बेचैन ने मध्यवर्ग के जीवन की दिनचर्या में
फँसने के परिणाम स्वरूप सम्बन्धों को बड़े ही प्रभावी
ढँग से अपने शब्दों में व्यक्त किया है।
जिन्दगी का अर्थ मरना हो गया है
और जीने के लिये हैं दिन बहुत सारे
इस समय की मेज पर रक्खी हुई
जिंदगी है पिनकुशन जैसी
दोस्ती का अर्थ चुभना हो गया है
और चुभने के लिये हैं पिन बहुत सारे - २४
मैत्री सम्बंधों पर देवेन्द्र शर्मा इंद्र कहते हैं-
मित्रों के नाम पर यहाँ चाटुकार लोग ही मिले
औरों के शीशमहल तोड़ते हुए - २५
पारिवारिक सम्बन्धों में आई दूरियों के बारे में वे
कहते हैं-
छोटी सी पगार ने
हमको तुमसे दूर किया
छोड़ तुम्हारा साया
हटने को मजबूर किया - २६
बुद्धिनाथ मिश्र को गाँव और उससे जुड़े हुए तन्तुओं के
छूटने की पीड़ा है। वे कहते हैं-
शहरी विज्ञापन ने हमसे
सबकुछ छीन लिया
मन में बौर सँजोकर बैठी
गठरी जैसी बहू नवेली
माँ की बड़ी बहन सी गायें
बैलों की सींगें चमकीली
यह कैसा विनिमय था
पगड़ी दे कौपीन लिया - २७
रामसनेहीलाल शर्मा यायावर को शहरी सम्बंध बड़े औपचारिक
व आदिम लगते हैं, जिनमें न ऊष्मा है न अपनापन-
सम्बोधन लिसलिसे लिजलिजा अपनापन
आदिमता की कीचड़ में डूबा डूबा हर सम्मोहन - २८
नचिकेता को लगता है कि पारस्परिक सम्बन्धों के क्षरण
का मूल कारण यांत्रिकता है
भीड़ भाड़ भाग-दौड़ मंत्र हो गए
सारे सम्बन्ध महायंत्र हो गए - २९
वस्तुतः व्यक्ति को अपने अस्तित्व के लिये निरन्तर
संघर्ष करना होता है। कार्यस्थल पर उसका संघर्ष और
अधिक पैना और उसे दबाव में डालने वाला होता है। रमेश
रंजक के शब्दों में
जेबों में सरकारी झिड़कियाँ लिये घूमते रहे
महँगी पोशाक के बगीचे में आहिस्ते
हम टूटी टहनी से झूमते रहे
कितनी कमजोर हीन भावना लिये
ठहरते हुए धीरे धीरे - ३०
कार्यस्थल में झिड़कियाँ खाकर भी व्यक्ति का प्रतिशोध
में कुछ भी न कह पाना, वस्तुतः उसकी विवशता को
रेखांकित करता है जिसके कारण प्रतिभाएँ अपना सदुपयोग
करने के लिये प्रतीक्षारत ही रह जाती हैं। सुभाष
वसिष्ठ के शब्द इस प्रसंग में दृष्टव्य हैं-
आफिस की फाइल में बंद हुए अंकुर
खुलने का इंतजार
डूबती शिराओं में उगता जब नीलापन
पतझर भर दर्पन में उभरे विद्रोह क्षण
पाते अपने मजार - ३१
विडम्बना यह है कि इतना सब झेलने के बाद जब पगार मिलती
है तो दर्द हँस जाते हैं। कृष्ण भारतीय के शब्दों में-
माह की पगार देखकर
हँस जाते दर्द अनायास
झोली भर रात को मिली
मुट्ठी भर चाँदनी उदास -३२
वेतन पर आधारित मध्यवर्ग के जीवन के सन्दर्भ में कुअँर
बेचैन की ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
एक मध्यम वर्ग के परिवार की
अल्पमासिक आय सी है जिंदगी
वेतनों का अर्थ चुकना हो गया है
और चुकने के लिये हैं ऋण बहुत सारे - ३३
इसके बावजूद कि बुद्धिनाथ मिश्र को लगता है कि
सड़कों पर शीशे की किरचें हैं
औ' नंगे पाँव हमें चलना है - ३४
अथवा राम सनेही लाल शर्मा यायावर को लगता है कि जीवन
इस तरह से बँधकर रह गया है कि-
टिफिनों में बंद प्याज मिर्च का अचार
दौड़ रही मेहनत को आँकता बजार
टी वी फ्रिज चाट रहे हरियालापन
अथवा योगेन्द्रदत्त शर्मा को लगता है कि
छत से लेकर दीवारों तक वही अकेलापन
पपड़ाए हैं ओंठ जीभ पर जमा कसैलापन - ३६
आदि आदि के बावजूद देवेन्द्र शर्मा इंद्र सकारात्मकता
पकड़े लोहा लेने को लिये तत्पर दिखते हैं।
एक अंकुर के बराबर भी नहीं व्यक्तित्व अपना
कल्पतरु बन जाएँ हम देखा कभी यह नहीं सपना
एक तिनके सा रहा अस्तित्व पर हमने न छोड़ा
आँधियों के सामने अड़ना
सुभाष वसिष्ठ अमावस्या में भी चाँदनी को जीना चाहते
हैं-
मौन रहें रहने दो पत्थरी अमाएँ
स्याही में चाँदी के गीत गुनगुनाएँ
गदरायी रात अगर दर्द से नहा जाए
घिरती हैं घिरने से विषमयी क्रियाएँ - ३८
रमेश रंजक रचनात्मकता के लिये स्वयं सँभलकर चलने के
लिये कहते हैं-
वक्त तलाशी लेगा वह भी चढ़े बुढ़ापे में
सँभलकर चल
कोई भी सामान न रखना जाना पहचाना
किसी शत्रु का किसी मित्र का
ढँग न अपनाना - ३९
राजेन्द्र गौतम नगर के भीड़ भाड़ और शोर शराबे के बीच
से ही आशा और रचनात्मकता के बिन्दु खोजते तथा बड़े
अर्थवान ढँग से उकेरते व रेखांकित करते हैं-
शोर को हम गीत में बदलें
इन निरर्थक शब्द ढूहों का
खुरदुरापन ही घटे कुछ दो
उमस के दम घोंटते ये दिन
सुखद लम्हे में बँटे कुछ तो
चुप्पियों का यह विषैलापन
लयों के नवनीत में बदलें - ४०
यह सही है कि मध्यवर्ग ने नगर की यांत्रिकता, आपाधापी,
भीड़भाड़, शोर शराबा, शोर का सन्नाटा, विसंगति,
निरुद्देश्यता, सपनों का टूटना, हताशा, पीड़ा, असफलता,
खीझ, कड़वापन, अजनबीपन, अहं का समर्पण, अस्तित्वहीनता,
सम्बंधों में ऊष्मा का क्षरण, गाँव से स्थानान्तरण
वेतन के लिये तयशुदा जीवनक्रम में रूटीन में फँस रहना
आदि तत्वों झेला और मध्यवर्ग के थोड़े परिवर्तित
स्वरूप के बावजूद, झेल रहा है, तो भी उसने जीवन से हार
नहीं मानी है। बहुत से नवगीतों में उपर्युक्त तत्वों
को भी उकेरा गया है। गीतों में विभिन्न आधारों पर
उल्लिखित अन्तश्चेतना ही है जिसके कारण मध्यवर्ग का
संघर्ष पहले भी गतिमान था औ आज भी अपने पृथक ढँग तथा
स्तर से जारी है। |