वह कई दिनों से कहानी की
तलाश में घूम रहा है। शहर का चप्पा-चप्पा, कोना-कोना उसने छान
मारा। पर उसे कहानी कहीं भी नहीं मिली। अंत में थक हार कर वह
गोल्डन ट्री वैली पार्क में एक बेंच पर आकर बैठ गया। गुनगुना
मौसम है और सामने से धूप आ रही है। उसने आँखों पर धूप का चश्मा
चढ़ाया और बेंच से अपनी पीठ सटा कर धूप का आनंद लेने लगा। यहाँ
के जीवन की भाग दौड़ में उसे कभी-कभार ही ऐसा मौका मिलता है।
तभी उसने देखा, अधेड़ उम्र के दो भारतीय अपनी-अपनी कुर्सी लेकर
वहाँ आए। उसकी बेंच से थोड़ी दूरी पर खाली जगह है, उन्होंने
वहीं अपनी कुर्सियाँ खोल कर रख दीं। फिर वे एक फ़ोल्डिंग मेज
ले आए, उसे खोला और उन कुर्सियों को मेज के दोनों तरफ रख दिया।
उसके बाद वे शतरंज ले आए और उसे मेज पर सजा दिया।
वह कनखियों से उन्हें देख रहा है...अंत में वे अपनी-अपनी थर्मस
और गिलास ले कर आए। उन्होंने अपनी थर्मसें एक दूसरे के
आमने-सामने टिका दीं और साथ ही फोम के गिलास भी, जिन्हें
प्रयोग के बाद फैंका जा सकता है।
थकान और धूप से उसका बदन अलसाने लगा और उसे नींद की खुमारी चढ़
रही है... बंद होती आँखों से उसने उन दोनों को अपनी-अपनी थर्मस
से कुछ उड़ेलते देखा और उसे झपकी आ गई। काफी देर चुपचाप वे
शतरंज खेलते रहे और चाय पीते रहे, ऐसा उसे आभास हो रहा है।
'मुझे खोजी और जिज्ञासु लोगों से चिढ़ है।' बहुत देर की
ख़ामोशी के बाद उसके कानों में ये शब्द पड़े। नींद उस पर तारी
है।
'हुँ...'
'खोजी और जिज्ञासु दोनों ऐसे प्राणी हैं, जिन्होंने दुनिया को
बेचैन किया हुआ है।'
'हुँ... '
'वैसे खोजी और जिज्ञासु कौन सी कौम के हैं?'
'कौम का तो मुझे पता नहीं, किसी कौमी लीडर से पूछना पड़ेगा,
इन्हें किस कैटेगरी में रखा गया है। सिर्फ इतना जानता हूँ,
जिज्ञासा पैदा होती है तो खोज की प्रेरणा मिलती है।' उसे एक और
स्वर सुनाई दिया।
'उस चीनी को किस बात की जिज्ञासा हुई होगी, जिसने बारूद और
बन्दूक को खोजा। सरल-सादा जीवन कम्प्लीकेटिड कर दिया।'
'जीवन सरल सादा कभी नहीं होता।' दार्शनिक लहजे में आवाज़ उभरी।
'तुम अब मंदिर के उस स्वामी सी बातें मत करो, जो कल हमने सुनी
थीं। कितना पेला था उसने। तीन घण्टे उसे सुनते रहे और जान पाए
बस इतना कि आत्मा परमात्मा से मिलती है। अरे यह तो बचपन से
सुनते आए हैं। हर मरने वाले की अंत्येष्टि पर कर्मकांडी पण्डित
यही कहते हैं। किसने देखी है आत्मा और किसने देखा है परमात्मा।
जबसे भगवान जी अस्तित्व में आए हैं, धर्म के नाम पर बहुत बड़ी
दुकानदारी चल रही है। भगवान जी की मार्किटिंग हर युग में रही
है। यह 'मार्किटिंग वर्ड' नया नहीं, इस युग की देन नहीं।'
'हुँ...'
'उठा ले इतिहास, खोल ले उसके पन्ने। भगवान जी के नाम पर ऐसी
कहानियाँ बनाई गई हैं, जिसमें भगवान जी का या तो डर है, या
दबाब।'
'हुँ...'
'यह भी एक तरह की मार्किटिंग है। डराकर उसके अस्तित्व को
मनाना। अब सीधा-सादा इंसान क्या करेगा? जब उसे कह दिया जाएगा
कि यह नहीं करोगे तो भगवान जी वह सज़ा देंगे, फलाँ नहीं करोगे
तो डमाँ सज़ा देंगे। बीवी-बच्चों को लेकर तो मनुष्य को चिंता
रहती है न। कौन उन्हें कष्ट में देखना चाहता है? बस यहीं से
उनकी दुकानदारी शुरू हो जाती है। साले भगवान् जी के दलाल,
उन्हें भी बेचने पर लगे हैं।'
'हुँ...'
'अच्छा किसी भी धर्म गुरु को कह कर देख लो, फ्री में प्रवचन
सुनाएँ। मजाल है मुफ़्त में प्रवचन कर दें। जब उस शक्ति से
उनका तालमेल हो चुका है तो फिर काहे की मोह ममता। लेकिन जनता
और भक्तों को कहेंगे कि मोह-ममता त्यागो। दिल खोल कर दान करो।
स्वयं देश-विदेशों में कभी खर्चे के नाम पर और कभी मठों के नाम
पर और कभी समाज सेवा के नाम पर खूब धन संपत्ति बटोरेंगे। जिसकी
जितनी अधिक मार्किटिंग है, उतना ही बड़ा वह दलाल है।'
'हुँ...'
'और अब बारूद और बंदूकों से डरा कर आतंकी, नए तरह के दलाल पैदा
हो गए हैं। आतंकवाद उनकी मार्किटिंग है, यह मार्किटिंग तो बहुत
ही ख़तरनाक है। हिटलर और मुसोलोनी से भी ज़्यादा...।'
'हुँ...'
ज्योंही यह बात कानों में पड़ी, कच्ची-पक्की नींद में उनकी
बातें सुनने की उसकी इच्छा जाग्रत हो गई...
'यार तुमने बताया नहीं, उस चीनी को किस बात की जिज्ञासा हुई
होगी, जो उसने बारूद और बंदूकों को खोजा।'
'हुँ...चल मिलकर सोचते हैं।'
'नहीं मिलकर नहीं... तुम सोचो, तुम बताओ, मैं सुनुँगा। तुमने
कहा था, जिज्ञासा पैदा होती है तो खोज की प्रेरणा मिलती है।'
'सोचने से पहले एक सवाल मैं तुमसे पूछता चाहता हूँ।'
'पूछो।'
'जब तुम इस देश में आए थे और तुमने एक खोज की थी, तुम्हें भी
तो जिज्ञासा हुई थी।'
'मैंने तो कई खोजें की हैं, तुम किस खोज की बात कर रहे हो।'
'तुम्हारे पास पैसे नहीं होते थे, और टेलीफ़ोन करना होता था।
बूथ पर क्वाटर डालकर ही फ़ोन किया जा सकता था। डालर की बात तो
दूर थी, तुम्हारे पास क्वाटर भी नहीं होता था... तब तुमने एक
खोज की थी।'
'हाँ खोज की थी, पर मैंने जो प्रश्न किया, उससे इसका कोई मतलब
नहीं।'
'तुम्हारी जिज्ञासा थी, कि मैं कैसे इसका हल निकालूँ। और तुमने
निकाला, खोज की। एक क्वाटर तुमने मुझसे उधार लिया था। उसमें एक
छोटा सा छेद करके तुमने उसमें लम्बा धागा बाँधा था। फ़ोन करने
से पहले चोगा उठाकर तुम उसे फ़ोन करने वाली मशीन में लटका देते
थे, मशीन को वह क्वाटर लगता था, वह ऑपरेटर को संदेश दे देती थी
और तुम फ़ोन करने में कामयाब हो जाते थे। फ़ोन करते ही तुम उसे
निकाल लेते थे। इस तरह तुम्हारे पैसे भी खर्च नहीं होते थे और
फ़ोन भी हो जाता था।'
दोनों खी...खी...कर हँसने लगे।
उनकी हँसी ने उसकी झपकियाँ
झपट लीं...उसकी नींद टूट गई. ये महारथी कौन हैं, जिन्होंने इस
देश में ऐसे महान् कार्य किए हैं! वह उठकर बैठ गया।
'और तुम्हारी इस खोज ने हम सबका भला कर दिया था। तकरीबन सभी
भारतीय विद्यार्थी इसी तरह फ़ोन करने लगे थे।' वह उसी तरह
हँसता हुआ बोल रहा था- 'और याद है हमने यह सिलसिला बंद कब किया
था?'
'हाँ, एक दिन अखबार में आ गया था। फ़ोन बूथों से जितने फ़ोन
होते हैं, उतने पैसे नहीं निकलते, इसलिए सब बूथों को चैक किया
जाएगा। यह खबर पढ़ते ही हम सबने उस तरह से फ़ोन करने बंद कर
दिए थे।'
'तब तक हम कमाने भी लगे थे।'
'हाँ तब तक हम काम करने लगे थे। पर मैं अपनी इस खोज को
जिज्ञासा की नहीं, मजबूरी की खोज कहूँगा। पैसा नहीं था इसलिए
दिमाग़ इस दिशा में चला। मरता क्या नहीं करता।'
'चलो यार, कुछ भी कह लो। उस चीनी पर भी उसकी सरकार का दबाब
होगा। उसकी भी मजबूरी होगी। चीनी तो पूरी दुनिया पर राज करना
चाहते हैं, कह दिया होगा उसे, निकाल कुछ ऐसा जिससे दुनिया जीती
जा सके। पर जीत कौन रहा है... साले गुण्डे, मवाली आतंकी।'
'अरे तुमने भी तो एक खोज की थी।'
'कौन सी?'
अब उसके कान खड़े हो गए। वह उनके अन्य कारनामें सुनना चाहता
है। जानना चाहता है, इन शातिर दिमाग़ों ने इस देश में और
क्या-क्या गुल खिलाए हैं।
'अरे वही, जब मंदिर वालों ने नियम बना दिया था कि मंदिर के
आस-पास, यहाँ तक कि पार्किंग लॉट में भी कोई शराब नहीं पी
सकता। यहाँ तक मंदिर के कम्युनिटी हॉल में पार्टी तो दे सकते
हैं पर शराब सर्व नहीं कर सकते। लो कर लो बात...अरे भाई पीने
वालों के बिना पार्टी जमेगी कैसे? फिर हमारे जैसे पियक्कड़
कहाँ जाएँ, जो ऐसी पार्टियों में फ्री की पीने जाते हैं।'
'अच्छा उसकी बात कर रहे हो। वह खोज नहीं विरोध था।'
'चल विरोध सही। पर ऐसा धाँसू आइडिया तो तुझे ही आया। तरह-तरह
के जूस की बोतलों में तरह-तरह की शराब भर कर तुम लाते थे और वे
कार की डिकी में पड़ी रहती थीं। तुमने अपनी बार बना ली थी।
सारे पीने वाले तुम्हारी कार के आस-पास इकट्ठे हो जाते थे।
पार्टी अलग चलती रहती थी। कोई शिकायत कर देता तो पकड़े जाने का
भी डर नहीं था। जूस की बोतलें ही नज़र आतीं।'
'पता नहीं मैनेजमेंट को सच कैसे पता चल गया! सारा मज़ा किरकिरा
हो गया था। मंदिर के पार्किंग लॉट में जूस की बोतलों में शराब
भर कर पी जाती है, भारतीय समुदाय में भी शोर मच गया था।'
उसे शक हो गया, ये चाय नहीं शराब पी रहे हैं... तभी भीतर का सच
बाहर आ रहा है.
'मैंने तब भी कहा था और अब भी कहता हूँ, सारा खेल तुम्हारे
प्यारे-प्यारे दोस्त संदीप शाह ने खेला था। वह तुम्हारे गट्स
से जलता था। दोगला है, अब तो तुम्हें पता चल चुका है। फिर कौन
सा हमारा नाम आया था और तुमने भी तो मैनेजमेंट से बदला ले लिया
था।'
'ज़रूरी था। पब्लिक मनी का फ्रॉड कर रहे थे।'
'पर मन्दिर को ताला लगवाना ज़रूरी नहीं था। तुम दूसरी तरह से
हैंडल कर सकते थे, आई आर ऐस ( इंटरनल रेवेन्यू सर्विस) को
रिपोर्ट करने की क्या ज़रुरत थी। मंदिर में चढ़ावा आता है, उस
पर टैक्स नहीं दिया तो क्या फ़र्क पड़ता है। देश में तो आम बात
है, मन्दिरों के धन की जानकारी कौन देता है? यहाँ के देसियों
ने भी वैसा ही सोचा और कोई हिसाब-किताब नहीं रखा। आई आर ऐस
वाले तो पूरी छानबीन करते हैं। एक-एक डालर चेक करते हैं।'
'भाई जब छानबीन की, हिसाब-किताब ठीक नहीं निकला तो कानूनन ताला
लगना था। इसमें मेरा क्या कसूर, असूल भी कुछ होते हैं। लोगों
की मेहनत की कमाई का कुछ तो ख़याल रखना चाहिए। आख़िर जनता
चुनकर भेजती है, लीडरों को। यह थोड़ा कि मनमर्ज़ी से जनता के
धन को ख़र्च कर लो। कोई हिसाब न रखो।'
'तेरी तो... बड़ा आया असूलों वाला। छज्ज तो बोले छलनी क्या
बोले, जिसमें नौ सौ छेद। पार्क में बैठा पी रहा है और बात कर
रहा है असूलों की। तेरे असूल तेरी तरह बदलते हैं, गिरगिट!
साल्या नरक में जाएगा। भगवान् जी का क्या कसूर था, जो उनका घर
बंद करवा दिया।'
'ही... ही... दोनों बेशर्मी से हँसने लगते हैं...दोनों साथ-साथ
नरक चलेंगे... दोनों सब काम भी तो साथ-साथ करते हैं...'
दोनों मेज़ पर ताल देकर बेसुरा गाने लगते हैं...
ये दोस्ती... हम नहीं छोड़ेंगे...
उसका शक सही था, ये महारथी
चाय नहीं, चाय की आड़ में शराब पी रहे हैं। उसे उनकी निडरता पर
ताज्जुब हो रहा है। पार्क का लिखित नियम है, वहाँ कोई शराब
नहीं पी सकता। और ये दोनों थर्मस में शराब भर कर फोम के
गिलासों में पी रहे हैं। पकड़े जाने का डर भी नहीं इन्हें। वह
जान गया है, ये पुराने पापी हैं, बचते आ रहे हैं अब तक।
वह अब समझा पार्क में बैठे ये बच कैसे रहे हैं! जब भी उनके पास
से कोई निकलता है, वे खुशबूदार मच्छर मार स्प्रे अपने चारों ओर
स्प्रे कर लेते हैं। मच्छर मार स्प्रे की खुशबू चहुँ ओर फैल
जाती है। शराब की गंध उस खुशबू में दब जाती है। जब वह झपकियाँ
ले रहा था तो यह स्मैल उसे कई बार आई। उसने सोचा पार्क में कोई
मच्छरों को मारने के लिए स्प्रे कर रहा है, उसकी खुशबू उसे आ
रही है। उसे उन पर गुस्सा आ रहा है। ऐसे भारतीय पूरे समुदाय का
सिर झुकाते हैं। वे सरेआम पार्क में बैठे, वहाँ के नियमों का
उल्लंघन कर उनकी धज्जियाँ उड़ा रहे हैं।
वह जानता है, जितनी 'मय' इनके अंदर जाएगी उतनी 'मैं' बाहर
निकलेगी।
'यार तुम अपनी 'खोजों' पर खुश होते हो। अभी कल ही खबर आई है,
न्यूयार्क में भारतीयों का जो ग्रुप पकड़ा गया है। वे आई आर ऐस
के बन्दे बनकर फ़ोन पर लोगों को पैसा देने को बाध्य करते।
उन्हें डराते। कहते कि, अगर उन्होंने उतना पैसा नहीं दिया तो
अरेस्ट वारंट लेकर पुलिस उनके दरवाज़े पर आ जाएगी। हरेक के
बारे में कितनी जानकारी इकट्ठी की उन्होंने। कभी लोगों को
कहते, बस पुलिस पहुँचने वाली है...कैसी-कैसी धमकियाँ दीं
उन्होंने और कई लोगों ने तो डर कर क्रेडिट कार्ड से उन्हें पे
भी कर दिया। पकड़े वे तब गए जब उन्होंने एक आई आर ऐस ऑफ़िसर को
चूना लगाने की कोशिश की। वरना उनकी 'खोज' बहुत अच्छी थी।
'ओये... यह 'खोज' नहीं 'फ्रॉड' है।'
'और तू जो क्वाटर डाल कर फ़ोन करता था, वह क्या फ्रॉड नहीं
था।'
'देख भाई, सरकार को थूक लगानी और लोगों को धोखा देने में बहुत
अंतर है। फिर वर्षों मैंने टैक्स भी तो सरकार को दिया।'
'कौन सा एहसान किया सरकार पर! कमाया भी तो इसी देश में है और
उस पर टैक्स दे दिया।'
'पर दिया तो, उन भारतीय डॉक्टरों से तो बेहतर हूँ, जिन्होंने
कभी टैक्स भी नहीं दिया और नशीली दवाइयों का धंधा कर कमाया भी
खूब है।'
'सुना है, सबके सब पकड़े गए हैं और सबके लाइसेंस रद्द हो गए।
'हाँ, सुना है, अब तो प्रैक्टिस भी नहीं कर सकते।'
'खैर यार, इस सुरा ने हमें बहुत सरूर दे दिया।'
यह सुन कर उसने अपना धूप का चश्मा उतारा। उसने उन्हें गौर से
देखा... वह उन्हें पहचानता नहीं था...फिर ये कौन थे?
'इस सरूर में तो तुम पता नहीं किस-किस की बीवी को पकड़ कर नाच
लेते थे।'
'सब लोग नशे में समझ कर माफ़ भी कर देते थे।'
'पर तू है बड़ा कमीना। नशे का बहाना करता था और घर से सोच कर
आता था कि किस की बीवी के साथ आज नाचना है।'
'मैं अकेला कमीना तो नहीं... मेरे जैसे और भी कमीने हैं...बदल
जाएँ, यह तो फ़ितरत ही नहीं। देखा कैसे विदेश को देश बना दिया।
अब दोनों पियक्क्ड़ों की बातें बर्दाश्त से बाहर हो गईं हैं।
वह झुँझला गया और सोचने लगा, 'ऐसे ही अपनों ने देश की व्यवस्था
को बिगाड़ा है और अब विदेश में भी अपनी फितरत दिखा रहे हैं।
हालाँकि ये युवा नहीं अधेड़ हैं, पता नहीं कब से कानून और
व्यवस्था से खिलवाड़ कर रहे होंगे पर अब इसका अंत होना चाहिए।
ये पकड़े नहीं गए, इसीलिए इनके हौसले और भी बुलंद हो चुके हैं।
पार्क रेंजर को इनकी शिकायत करनी चाहिए। जब तक ये पकड़े नहीं
जाएँगे, सुधरेगें नहीं। वह फ़ोन से पार्क रेंजर का नंबर
ढूँढ़ने लगा.
तभी बगल में उसे हलचल महसूस हुई। फ़ोन से ध्यान हटा कर उसने
घूमकर देखा, वे दोनों फुर्ती से अपना सामान
बाँधकर अपनी कार की
ओर तेज़ी से जा रहे हैं। तभी पार्क रेंजर ने अपनी सिक्यूरटी के
साथ उन्हें पकड़ लिया। ताज्जुब से उसकी आँखें और मुँह खुल गए।
वह तो पार्क रेंजर का अभी नंबर ढूँढ़ रहा है।
ओह! तो इन पियक्क्ड़ों ने पार्क रेंजर को आते देख लिया, इसलिए
तुरत-फुरत भाग रहे हैं।
पार्क रेंजर गुस्से से बोला- 'यू गायज़ थिंक वी आर स्टुपिड। यू
कैन ब्रेक द लॉ एंड गेट अवे...।'
वह कहानी की तलाश में यहाँ आया और उसकी एक ऐसे यथार्थ से
मुलाकात हुई, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी।
कहानी की तलाश में उसे पता नहीं अब और किन-किन सच्चाइयों से
भिड़ना पड़ेगा। |