प्रकृति
का बसंत आ गया था पर उसके जीवन का पतझड़ खत्म ही नहीं हो
रहा था। चारों ओर रंग बिरंगे फूलों से बगिया महक रही थी।
पर उसका मन तो बैरंग और उदास था।
आज वह दोराहे पर खड़ी निर्णय नहीं ले पा रही थी किस ओर जाए
एक रास्ता मायके को जाता था तो दूसरा ससुराल।
"कहाँ जाना है बहनजी ?" आटो वाले ने पूँछा।
"कहीं नहीं... उसने बुदबुदाते हुए कहा। "माँ ने पराया धन
समझा, दूसरे को सौंप दिया। सास ने पराई जाई कहकर प्यार और
अपनापन नहीं दिया।"
"आंटी जी ये फूल ले लीजिए घर के फूलदान में लगा देना।"
"मुझे नहीं खरीदना।... घर कैसा घर!! भाई ने कहा अब यह तेरा
घर नहीं, पति ने कहा यह घर मेरा है। मेरे पास तो कोई हुनर
भी नहीं। जब भी कुछ सीखना या करना चाहती माँ का जवाब होता
अपने घर (ससुराल) में करना। सासू माँ का ताना होता मायके
में क्या सीखा।" उसने मन ही मन कहा।
"हम सात जन्मों तक साथ रहने के लिए व्रत करते, पर वह एक
जन्म भी नहीं निभा पाता।" निढाल हो वहीं बैठ गयी। तभी
सामने लगे फ्लेक्स पर नजर पड़ी। दोनों पैर न होते हुए भी
एवरेस्ट पर चढ़ाई करने वाली अपने गले में पड़े मेडल को
चूमती हुई महिला। उसने बड़े गौर से उसे देखा फिर अपने आप पर
गौर किया। कुछ ही पल लगे उसे समझने में। एकाएक उठ खड़ी हुई।
ईमानदारी, दृढ़ता, आत्मविश्वास के साथ दोनों राहों को छोड़
निकल पड़ी अपनी राह खुद बनाने।
१ मार्च २०१९ |