इस पखवारे- |
अनुभूति-में-
गिरिमोहन गुरु, सुरेश उत्साही, सुदर्शन प्रियदर्शिनी, सुशील शर्मा और आशाराम
त्रिपाठी की रचनाएँ। |
- घर परिवार में |
रसोईघर में- इस पखवारे हमारी रसोई संपादक शुचि
प्रस्तुत कर रही हैं- पनीर से बना चटपटा व्यंजन-
पनीर ६५ |
स्वास्थ्य
में- मस्तिष्क को सदा स्वस्थ, सक्रिय और स्फूर्तिदायक बनाए रखने के २४
उपाय- ६- पहेलियाँ
बूझें। |
बागबानी-
के अंतर्गत घर की सुख स्वास्थ्य और समृद्धि के लिये शुभ पौधों की शृंखला में इस
पखवारे प्रस्तुत है-
६- ड्रैकीना जेनेट क्रेग |
भारत के
सर्वश्रेष्ठ गाँव-
जो हम सबके लिये प्रेरणादायक हैं-
६- कोकरे
बेल्लूर- पक्षी प्रेमियों का गाँव। |
- रचना व मनोरंजन में |
क्या
आप
जानते
हैं- इस माह (मार्च में)
कितने गौरवशाली भारतीय नागरिकों ने जन्म लिया? ...
विस्तार से
|
संग्रह और संकलन- में प्रस्तुत है-
जगदीश पंकज की कलम से संजय शुक्ल के संग्रह-
''फटे
पाँवों में महावर'' का परिचय। |
वर्ग पहेली- २८७
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और
रश्मि-आशीष के सहयोग से
|
हास परिहास
में पाठकों द्वारा भेजे गए चुटकुले |
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साहित्य एवं
संस्कृति में- |
समकालीन कहानियों में प्रस्तुत
है भारत से
वर्षा ठाकुर-की-कहानी-
रावत टी स्टाल
“भाईसाब
ये रावत टी स्टाल यहीं हुआ करता था न?”
“हाँ भइया यहीं था पर अब दूसरी जगह चला गया। रोड चौड़ा हुआ था
तो वो भी टूट गया"।
अरूप निराश सा था। बरसों पुरानी बद्रीनाथ यात्रा के वक्त की एक
ये भी तो याद थी जो संग रह आई थी, फिर किसी दिन ताजा हो आने के
लिये। क्या चाय थी वो! कहते थे कि रावत काका अपने हाथों से चाय
का मसाला बनाके रखते थे।
“अभी कहाँ बनी है?”
“बनी तो यहाँ से थोड़ी दूर है। सामने से बाएँ मुड़के पूछते हुए
चलते जाइयेगा। गाड़ी घुसने की जगह नहीं। पर..”
“पर क्या?”
“रावत काका अब नहीं रहे। छुटकू ही अब दुकान चलाता है, पर हाथ
में वही स्वाद है। काका भी बड़े नेक निकले, अपना कोई वारिस नहीं
था तो नौकर को सब कुछ थमा गये"।
पिया सोच रही थी, कितने फुरसतिये हैं पहाड़ी लोग। पता पूछो तो
साथ में इतिहास भी बता देते हैं।
और अरूप सोच रहा था, शायद ये किस्सा...आगे-
*
अंतरा करवड़े की लघुकथा
जवाब
*
अशोक उदयवाल से स्वास्थ्य चर्चा
स्वास्थ्य के लिये उपयोगी नींबू
*
रवीन्द्रनाथ उपाध्याय से
संस्कृति में
सोलह शृंगार
बत्तीस आभूषण
*
पुनर्पाठ में अतुल अरोरा के संस्मरण
''बड़ी
सड़क की तेज गली में'' का नवाँ भाग |
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कल्पना रामानी की लघुकथा
अलौकिक आनंद
*
अरविंद मिश्र का आलेख
कविता में होली के विविध रंग
*
श्याम विमल का संस्मरण
जब हम मुल्तान में होली मनाते थे
*
पुनर्पाठ में होली के अवसर पर
पुराने अंकों का संग्रह - होली विशेषांक समग्र
*
वरिष्ठ रचनाकारों की चर्चित
कहानियों के स्तंभ गौरवगाथा में प्रस्तुत है
प्रेमचंद-की-कहानी
विचित्र होली
होली का दिन था, मिस्टर ए.बी.
क्रास शिकार खेलने गये हुए थे। साईस, अर्दली, मेहतर, भिश्ती,
ग्वाला, धोबी सब होली मना रहे थे। सबों ने साहब के जाते ही खूब
गहरी भंग चढ़ायी थी और इस समय बगीचे में बैठे हुए होली, फाग गा
रहे थे। पर रह-रहकर बँगले के फाटक की तरफ झाँक लेते थे कि साहब
आ तो नहीं रहे हैं। इतने में शेख नूरअली आकर सामने खड़े हो गये।
साईस ने पूछा- कहो खानसामाजी, साहब कब आयेंगे?
नूरअली बोला- उसका जब जी चाहे आये, मेरा आज इस्तीफा है। अब
इसकी नौकरी न करूँगा।
अर्दली ने कहा- ऐसी नौकरी फिर न पाओगे। चार पैसे ऊपर की आमदनी
है। नाहक छोड़ते हो।
नूरअली- अजी, लानत भेजो! अब मुझसे गुलामी न होगी। यह हमें
जूतों से ठुकरायें और हम इनकी गुलामी करें! आज यहाँ से डेरा
कूच है। आओ, तुम लोगों की दावत करूँ। चले आओ कमरे में आराम से
मेज पर डट जाओ, वह बोतलें पिलाऊँ कि जिगर ठंडा हो जाय।...आगे- |
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