इस पखवारे- |
अनुभूति
में-1
राजेन्द्र प्रसाद सिंह, महावीर उत्तरांचली, हरीश सम्यक, सपना मांगलिक और डॉ.
धर्मेन्द्र पारे
की रचनाएँ। |
- घर परिवार में |
रसोईघर में- सर्दियों के स्वास्थ्यवर्धक व्यंजनों की
शृंखला में, हमारी रसोई-संपादक शुचि द्वारा प्रस्तुत है-
दाल हलवा।
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फेंगशुई
में-
२४ नियम जो घर में सुख समृद्धि लाकर
जीवन को सुखमय बना सकते हैं-
४- मुख्यद्वार पर ध्यान दें। |
बागबानी-
के अंतर्गत लटकने वाली फूल-टोकरियों के विषय में कुछ उपयोगी सुझाव-
४- गर्मियों में गुलदोपहरी का बहुरंगी बाना। |
सुंदर घर-
शयनकक्ष को सजाने के कुछ उपयोगी सुझाव जो इसके रूप रंग को
आकर्षक बनाने में काम आएँगे-
४-
वे कालजयी
शांतिप्रदायक रंग |
- रचना व मनोरंजन में |
क्या
आप
जानते
हैं- आज के दिन (१५ फरवरी को) नरेश मेहता, बशीर
बद्र, रणधीर कपूर, हृषिकेश सुलभ और आशुतोष गोवालिकर...
विस्तार से
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नवगीत संग्रह- में प्रस्तुत है-
संजीव सलिल की कलम से रामशंकर वर्मा के नवगीत संग्रह-
''चार
दिन फागुन के'' का परिचय। |
वर्ग पहेली- २६२
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और
रश्मि-आशीष के सहयोग से
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हास परिहास
में पाठकों द्वारा भेजे गए चुटकुले |
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साहित्य एवं
संस्कृति में- |
समकालीन कहानियों में प्रस्तुत
है भारत से
पुष्पा तिवारी की कहानी
पलटवार
"पापा ने बिल्कुल ठीक किया
तुम्हारे साथ। तुम तो हो ही ऐसी।"
क्रोध से तमतमाये चेहरे ने तर्जनी हिला हिलाकर कहा और फिर फूट फूटकर रो पड़ी।
मैं स्तब्ध थी! रोते रोते भी शब्द अपनी सीमाएँ तोड़ते जा रहे थे। लेकिन मैं तो
पत्थर सी बैठी केवल उसे देख रही थी, चलती जुबान, बिखरे बाल, चलते हाथ पाँव जो
आल्मारी के तह लगे कपड़ों को उठा उठाकर आँगन में फेंक रहे थे, बीच बीच में
आँसुओं के साथ वह आती नाक को बाँह से पोंछते जा रहे थे। आँसुओं के खर्च पर उसे
कभी कोई कंजूसी नहीं रही। जिन्दगी शुरू हुई है अभी उसकी। अभी तो न जाने कितने
बहाने पड़ेंगे। इस समय तो वह क्षण में तोला बनी हुई अपनी माँ को ज्यादा से
ज्यादा दुख देना चाह रही है। पता नहीं क्यों, कहाँ का दुख उसके अपने अंदर उग
आया है जिसे वह क्रोध के जरिए मुझ पर उड़ेल रही है। बिल्कुल अपनी ममता की तरह।
मुझे बात अंदर कहीं चुभ गई तभी तो मैं हिल डुल नहीं पा रही। हाथ पैर शरीर सुन्न
से रजाई के अंदर न रो पा रहे हैं न चुप ही रह पा रहे हैं।...
आगे-
*
सुशील यादव का व्यंग्य
जागो ग्राहक जागो
*
मधुकर अष्ठाना की पड़ताल
२०१५ में
प्रकाशित नवगीत संग्रह
*
महेन्द्र सिंह रंधावा का आलेख
सुंदर वृक्षों की खोज
*
पुनर्पाठ में कृष्ण बिहारी की
आत्मकथा
सागर के इस
पार से उस पार से का बारहवाँ भाग |
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अंतरा करवड़े की लघुकथा
बुरी हवाएँ
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प्रभात कुमार की नगरनामा
कभी आइये
फरीदाबाद
*
गुणशेखर की चीन से पाती
बिना ईश्वर का देश
*
पुनर्पाठ में कृष्ण बिहारी की
आत्मकथा
सागर के इस
पार से उस पार से का ग्यारहवाँ भाग
*
उपन्यास-अंश में यू.एस.ए. से
इला प्रसाद के उपन्यास
''रोशनी आधी
अधूरी सी''
का अंश-
फिर आया है प्रेम
शुचि देर रात गए हॉस्टल वापस
लौटी। आजकल यह रोज का क्रम हो गया है। वह आईटियन हो गई है। रात में काम करना
उसे कभी अच्छा नहीं लगता था। बी एच यू में रहते हुए कल्पना भी नहीं की थी कि
कभी वह रात में विभाग में हुआ करेगी। लेकिन यह कैम्पस सुरक्षित है। बल्कि रातों
में लैब यूँ गुलजार रह्ते हैं जैसे रात नहीं दिन हो। एक बजे रात, रात नहीं
लगती। प्रोफेसर, स्टूडेंट सब डटे हुए। शुरू में यह
सब अजीब लगता था। वह पूछती थी अपने सहयोगियों से - "तुम दिन में काम क्यों नहीं
करते।" वे हँस देते - हम रात-दिन काम करते हैं।" यानी वही है कामचोर। लेकिन ऐसा
भी क्या! फिर समझा, रात गए काम कर के लौटने वाले अपने आप को अतिरिक्त स्मार्ट
समझते हैं। स्टूडेंट्स के लिये मजबूरी है। इतना सारा प्रोजेक्ट वर्क, पढ़ाई,
असाइनमेंट, लेकिन वह? वह क्यों करे? उसे तो ऐसी कोई जरूरत महसूस नहीं होती।
हाँ, जब दिन का सारा समय लाइब्रेरी की खाक...
आगे-
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