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रचना प्रसंग

 

२०१५ में प्रकाशित नवगीत संग्रह
- मधुकर अष्ठाना


गीत केवल भावोच्छास नहीं है, यह अनुभूतियों की सहज लयात्मक छान्दसिक रचना है। गीत एक ऐसी नदी है, जिसमें जीवन की विसंगतियों, विषमताओं, विडम्बनाओं, विघटनों, विद्रूपताओं और मानव की प्रत्येक सुखद-दुखद अनुभूतियों की लहरें उठती रहती हैं। युगीन सम्वेदना एवं छन्द इस नदी के तटबन्ध हैं। द्वन्द्व-घुटन और त्रासद वातावरण में वह किसी गीत की ही सुगन्ध होगी। गीत जीवन का प्रभात है। गीत मानवीय जीवन का अविभाज्य अंग है। यह खुशी की बात है कि वर्ष २०१५ में दो दर्जन से अधिक नवगीत-संग्रह प्रकाशित एवं चर्चित हुए।

इसी कड़ी में एक श्रीमती सीमा अग्रवाल का भी नवगीत-संग्रह "खुशबू सीली गलियों की" वर्ष २०१५ की ही देन है। सीमा जी, गीत की पारम्परिक लाक्षणिकता के साथ अभिनव सम्वेदनात्मक भावनाओं, नूतन प्रतीक-विम्बों और आधुनातम् शिला-विधानों से सामन्जस्य बिठाते हुए अपने परिवेश की यथार्थता को शब्दाकार करने में साधना-सम्पन्न कवयित्री हैं। इस भाव प्रवण इन्द्रधनुषी संकलन में रसात्मक अभिव्यक्ति की व्यापक विविधिता का सौष्ठव विद्यमान है, जो सहज ही आकर्षित करता है। खड़ी बोली में विषयानुकूल देशज शब्दों तथा अन्य भाषाओं के शब्दों का संयोजन एक ओर नवगीत को स्वभाविक सहजता प्रदान करता है, तो दूसरी ओर संप्रेषणीयता में भी अभिवृद्धि करता है। भारतीय संस्कृति, मानव-मूल्यों की पारम्परिकता में भी नवीनता का आग्रह उन्हें नवगीतकारों की श्रेणी में उल्लेखनीय बनाता है। नवगीतों में प्रज्ञा एवं श्रद्धा का संगम कुरीतियों, अन्धविश्वासों, प्रवंचनाओं समाज में व्याप्त कुटिलताओं का पर्दाफाश करते हुए समाज को दर्पण दिखाने का कार्य भी करता है। सीमा जी के नवगीतों में सहजता, सरलता, सम्प्रेषणीयता और प्रसाद गुण सम्पन्नता विद्यमान है, जिसमें गहरी मर्मस्पर्शिता रहती है। उदाहरणार्थ एक रचना यहाँ प्रस्तुत हैः-

"कमला रानी, कब
बदलोगी

बर्तन भाँडों ने हाथों की
सभी लकीरें घिस डाली हैं
आँचल के फूलों पर खारे
पानी की केवल नाली है

सड़क नापती फटी बिवाई-
को आखिर कब
मरहम दोगी

लुंज-पुंज मनवाली आँखों
की लाली से छोड़ो डरना
कोने में जो टुन्न पड़ी उस
गठरी को मत बोलो अपना

नील पड़े तन के हाथों कब
चूल्हे की लकड़ी
सौंपोगी

अलस भोर से थकी साँझ तक
बहे पसीने की है कीमत
हाथ तुम्हारे चमक रहा जो
वो मेहनत है नहीं है किस्मत

मेरी प्यारी बहन दुलारी
अपने हक को कब
समझोगी

कमला रानी कब
बदलोगी"

श्रीमती शीला पान्डेय जो बहुआयामी सृजन में साधनारत हैं, नयी कविता के व्यामोह की परिधि से बाहर आकर छान्दस गीतों-नवगीतों की ओर उन्मुख हुई हैं और अपने प्रथम गीत-नवगीत संग्रह "रे मन गीत लिखूँ मैं कैसे" शीर्षक, 'बोधि प्रकाशन' जयपुर से, द्वारा पाठकों के बीच समाद्रित हुई हैं। यद्यपि अभी वह पूरी तरह नवगीतकार नहीं बन पायी हैं, किन्तु उनकी अनेक रचनाओं में नवगीतात्मकता लक्षित की जा सकती है। शीला पान्डेय जी प्रगतिशील विचारों के समाज के प्रति पूरी तरह जागरूक हैं और निश्चय ही नवगीत की चौखट पर दस्तक दे रही हैं। प्रथम गीत-नवगीत संग्रह से ही वह सम्भावनाओं के प्रति आशान्वित करती हैं उनकी रचनाओं में सहजता, सरलता और स्पष्टता है जिससे संप्रेषण में सुविधा होती है। रचनाओं में विविधता और जीवन के प्रत्येक पक्ष की अनुभूतियों को शब्दाकार करने में प्रवीण हैं उनकी एक रचना यहाँ अवलोकनार्थ प्रस्तुत की जा रही है-

"नन्हें मन-मस्तिष्क संजोये
कोमल, कच्चे घड़े हैं हम
स्वप्न हमारे परियाँ बादल
पर स्तब्ध पड़े हैं हम

मिट्टी के ढेले में श्रम से
दाना-दाना हरित हैं हम
सत्ता, कुर्सी सभी खदानें
श्वेत-बाग वन भरित हैं हम

नन्हें मन में फूल बहुत हैं
पर उपलब्ध घड़े हैं हम

आसमान का छप्पर ओढ़े
कठिन भूमि पर बढ़े हैं हम
नंगे पग पथरीले पथ हैं
बेगवान पल पढ़े हैं हम

नन्हें मन में राग बहुत हैं
पर अपशब्द कड़े हैं हम

नवगीत विधा में भाई रामशंकर वर्मा की प्रगति स्पृहणीय और ईर्ष्या के योग्य है। उनका प्रथम गीत-नवगीत-संग्रह "चार दिन फागुन के" नवगीतकारों ही नहीं, गीतकारों में भी चर्चित हुआ है। उनके सृजन में जो स्वाभाविक सहजता-सरलता और प्रवाह है उसमें अवधी बोली की लहरें अर्न्तमन से टकराकर भिगो जाती हैं। सर्वसाधारण की बोलचाल की भाषा में एक ओर तो पूरी तरह से संप्रेषणीय हैं तो दूसरी ओर अधरों पर छा जाती हैं। नवगीत को वर्मा जी ने बहुत गहरायी से समझा है और ग्रहण किया है। एक ओर निर्धन, बेरोजगार, बीमार, सीधे-साधे गँवई लोगों का जीवन-संघर्ष, तो दूसरी ओर भारतीय परम्परा के अनुकूल पर्वों का उत्सवी वातावरण, उनकी कृति को पठनीयता प्रदान करता है। गाँव और नगर दोनों वातावरण में रमे वर्मा जी की दृष्टि अनेक चुनौतियों को दृश्यमान करती है और दोनों की विशिष्ट मर्मस्पर्शी संवेदनायें उद्घाटित करती है। उनके निष्कपट, निर्मल सहयोगी और सकारात्मक स्वभाव के अनुकूल उनकी रचनायें पाठक पर गहरा प्रभाव छोडती हैं और चिन्तन की प्रेरणा देती हैं। "चार दिन फागुन के" जहाँ सुखों की क्षणिकता का बोध कराती है, वहीं धरती पर शीघ्रातिशीघ्र अमिट चिह्न छोड़ जाने का सन्देश देती है। कृति की एक रचना प्रस्तुत है-

सोच रहा बैठा मन मारे
बेड़ी डाले पाँव में
धूम मची होगी होली की
दूर हमारे गाँव में

महुवारी में टपकी होगी
खुशबू भरी गिलौरी
गूलर की शाखों पर रक्खी
होगी लाल फुलौरी

सौ-सौ घुँघरू बाँधें होंगे
अरहर ने करिहाँव में

फगुनाहट में बदले होंगे
सम्बन्धों के तेवर
नई नवेली को बाबा में
दिखते होंगे देवर

दो पल को फँस जाते होंगे
दुख उत्सव के दाँव में

हेलमेल के रंगों वाला
झोला धरे बिसाती
सदा अनंद रहे यहु ट्वाला
फाग टोलियाँ गातीं।

ऐसे नयन सुखों से वंचित
उलझा काँव-काँव में।

जनकवि बृजेन्द्र कौशिक कोटा, राजस्थान अपनी १४ कृतियों- गीत, गज़ल, कविता तथा कहानी के उपरान्त सबका सम्मोहन त्याग कर नवगीत सृजन की ओर उन्मुख हुए हैं और इस क्रम में उनका प्रथम नवगीत संग्रह ‘ओ सुबह की हवा’ हमारे सम्मुख है। वास्तव में कठिन भाषा में लिखना सरल होता है किन्तु बोलचाल की भाषा में सृजन बहुत कठिन होता है। यह उल्लेखनीय है कि कौशिक जी के नवगीत सहज-सरल और दैनिन्दन जीवन-संघर्ष एवं मानव-मूल्यों के क्षरण के आख्यान प्रतीत होते हैं, जिनमें अमानुषीय त्रासदी दिखायी पड़ती है। अनेक प्रतीकों-बिम्बों और मानवीकरण के माध्यम से वे कथ्य को प्रस्तुत करने में प्रवीण हैं। अपने परिवेश की विसंगितयों को निरूपित करने उनकी दृष्टि बड़ी पैनी है। उनकी कहन, शिल्प और प्रस्तुतीकरण में एक विशिष्ट नूतनता का बोध होता है। न्यूनतम शब्दों में, लघुतम छन्दों में अपनी यथार्थगत विवेचना वे अनूठे ढंग से पाठक के सम्मुख रखते हैं जिसमें सन्देश अंतर्निहित रहता है। भारतीय सभ्यता, संस्कृति और परम्परा से स्नात श्री कौशिक मूल्यों की शब्द स्थापना हेतु प्रतिबद्ध हैं।

"ओ सुबह की हवा" से उनकी एक रचना प्रस्तुत हैः-

"बदहाली की सत्य कथायें
अखर रही हैं इनको-उनको
काले धन्धे गोल बन्द हो
आँखें दिखलाते हैं दिन को
संसद, शासन, न्याय-मीडिया
निगल रहे हाथी निर्भय हो
मेरे प्यारे देश बता फिर
तेरे घाव दिखायें किसको

हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी मुमकिन
करते आये, नामुमकिन को
धौंस-डपट से डर कर हमने
उत्तर नहीं कहा दक्खिन को
चाहे लाख प्रलोभन लेकर
दरवाजे पर डटीं हवायें
मगर रात को रात कहा तो
दिन ही कहा हमेशा दिन को

थूको, चाहे जूते मारो
शर्म नहीं आती पर इनको
जिस हमाम में, सब नंगे हों
उसमें करें नामजद किनको
इसे बदलना तो मुश्किल है
लेकिन नहीं असम्भव है यह
अगर कमर अब कसें सभी वे
प्यार वतन से है जिन-जन को"

हैदराबाद में निवास करने वाले ८५ वर्षीय डा॰ दिवाकर पाण्डेय का नवगीत-संग्रह "थकी उमर के बिखरे पल" भी इसी संदर्भ में उल्लेखनीय है। डा॰ पाण्डेय की दर्जनों कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं जो विभिन्न विधाओं में हैं। अहिन्दी भाषी राज्य में ६० वर्षों से वे हिन्दी का अलख जगा रहे हैं। भारत-स्तरीय अनेक सम्मान-पुरस्कार से अलंकृत डा॰ पाण्डेय जी को भी अन्त में नवगीत में ही शांति मिली। हैदराबाद में परिवार से पृथक एकान्तवासी डा॰ पाण्डेय का सम्पूर्ण जीवन पत्रकारिता, अध्यापन एवं लेखन को ही समर्पित रहा है। कथ्य को प्रायः शिल्प के बन्धन की परवाह न करते हुए प्रस्तुत कर देते हैं, उनमें जीवन का यथार्थ निहित रहता है। साहित्य सेवा करते हुए उन्होंने अनेक देशों की यात्रा की है और हैदराबाद में एक ऋषि की तरह ही पूज्य हैं। हिन्दी के प्रचार प्रसार का लगभग ६५ वर्षों से कार्य करते हुये उनका सम्पूर्ण जीवन हिन्दी को ही समर्पित रहा है। आइये "थकी उमर के बिखरे पल" की एक रचना का अवलोकन करें-

"आओ बैठें, बहुत अकेले सोचें क्या पाया क्या खोया

तब से अब तक दौड़ लगाते बहुत दूर पर आकर ठहरे
अभी रास्ता आगे भी है ऊबड़-खाबड़, गड्ढे गहरे
थके थके हैं प्राण पखेरू स्वेद बूँद में माथा धोया

बिन जाने मंजिल बढ़े कदम दुविधा का चौराहा आया
भूल भूलैया सभी तरफ है बार-बार खुद से टकराया
रात-रात भर तिकड़म बाजी सूरज निकला जी भर रोया

भूला सदा स्वयं को अपने रिश्तों से बाँधी परछाईं
पश्चातापों की गठरी लादी जीवन भर की यही कमाई।
मिले फूल-फल जिनसे हमने उन बीजों को गहरे बोया।"

श्री बूज भूषण सिंह गौतम अनुराग का नवगीत-संग्रह "चन्दन वन सॅंवरे" भी २०१५ में चर्चित हुआ है। अनुराग जी गीत-नवगीत को मनुष्य का सर्वोत्तम प्रस्फुटन मानते हैं और रचना की गीतात्मक लयबद्धता में जीवन जीने की आकांक्षा के रूप का स्वागत करते हैं। नये प्रतीकों बिम्बों में कथ्य को प्रस्तुत करने की शिल्पमान धनात्मकता पर पर्याप्त मानसिक चिन्तन करते हैं। सकारात्मक सोच मानवोचित जैविक एवं अस्थावान विचारों के साथ भारतीय मूल्यों की स्थापना अपने जीवन का ध्येय मानते हैं। ज्ञातव्य है कि दो महाकाव्य, कई खण्ड काव्य, अनेक गीत-नवगीत-गजल के संग्रह के उपरान्त ८० वर्ष के उपरान्त भी अधुनातन नूतन प्रयोगों के प्रति सजग अनुराग जी का संग्रह भी नवगीत के उत्कृष्ट संग्रहों में स्थान पाने योग्य है। उनकी प्रत्येक रचना में आशावादी संदेश अन्तर्निहित रहता है। भाषा पर उनकी पकड़ तथा शब्दों की जादूगरी के फलस्वरूप उनकी रचनाओं में शिल्प कथ्य, भाषा आदि में नवता लिखित की जा सकती है। अपने समय सम्वेदन को आत्मसात कर परिस्थितियों से मुठभेड़ करते हुये श्री अनुराग गौतम जी की रचनायें वर्तमान को आम आदमी की पक्षधरता में बड़ी कुशलता से व्याख्यायित करती है। यथाः-

"छप्पर-छानी छाने के दिन
यों ही निकल गये
किस्मत के भी लिखे लिखाये
आखर बदल गये

घर में फूँस-पतेल नहीं है
पैसों का टोटा
बेटे राम के इलाज में
बचे न थाली-लोटा

परे झुर्रियाँ
पाँव बिचारे काँपे फिसल गये

निपट अभावों की चादर में
हम ऐसे लिपटे
एक कटोरे में दुपहर की
जैसे उमर कटे

बूढ़े-बच्चे
कामधाम में बदल गये"

श्री शंकर दीक्षित का नवगीत-संग्रह "चाँदनी समेटते हुए" वर्ष २०१५ की चर्चित कृति है, जिन्होंने इसके माध्यम से एक विराट माप देखने समझने का प्रयास किया है। सम्वेदना के सूक्ष्म तत्वों के निरीक्षण सृजन और संप्रेषण के प्रति समर्पित श्री दीक्षित का यह प्रथम संग्रह है और इसकी यात्रा से पालने में ही पूत के पाँव देखकर कहा जा सकता है कि उनकी सोच दूर तक जाती है। अभिव्यक्ति के स्तर पर संगह की रचना-वस्तु कई आलम्बनों पर आधारित दिखती है। भारतीय मनीषा, समकालीन बोध नैसर्गिकता आदि जिनका उदात्त स्वरूप जीवन मूल्यों के रूपों में हो, गीत को नूतन बनावट के साथ सहजता प्रदान करती है। दीक्षित जी ने आम आदमी के स्थान पर खड़े हो कर उसकी गहन पीड़ा को शिद्दत से महसूस किया है। आम आदमी का जीवन संघर्ष उसकी जिजीविषा और उसके दैनंदिन जीवन में व्याप्त समस्त विसंगतियों को गहराई से जाँचा-परखा है तथा अभिव्यक्त किया है। भाषा की सहजता-सरलता, समकालीन अभिनव भाव-बोध एवं कुशल शिल्पिता के साथ उन्होंने अपनी शैली स्वयं विकसित की है। उक्त नवगीत संग्रह "चाँदनी समेटते हुए" की एक रचना यहाँ प्रस्तुत हैः-

"आँखों में तैर गईं
शंकायें-शंकायें
दफ्तर में डूब गया दिन

जुते रहे हम केवल
कोल्हू के बैल से
सकते पाले हमने
हर सीधी गैल से

दिखे नहीं वे पलाश
संध्या में-संध्या में
पाँवों में चुभ रहे पिन

शोचनीय अधिक हुए
युग के धर्मात्मा
यंत्रवत हुआ जीवन
दग्ध हुई आत्मा

नागिन सी लिपट गई
चिंता में-चिंता में
चेहरे पर सलवटें अगिन

गिरवी रख बैठे हम
प्राणवान साँसों को
गंगाजल समझ लिया
जग के उपहासों को

साकती नहीं बैरल
कुंठा में-कुंठा में
खोटे सिक्के बजते टिन"

श्री मुकुन्द कौशल जी पूरे भारत में चर्चित रचनाकार हैं और यह हर्ष का विषय है कि मंच एवं साहित्य दोनों का सामंजस्य बनाकर के जनमानस में ही सृजन करते हैं। ग्रामीण बैंक की सेवा के दौरान छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े क्षेत्र के सुदूर गाँवों के भ्रमण का उन्हें अवसर मिला। गाँवों की आंशिक गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी से उनका सीधा परिचय हुआ। इसके साथ ही ग्राम्य-संस्कृति की भी पर्याप्त जानकारी ही नहीं, भाग लेने का भी अवसर मिला। ऐश्वर्यमयी प्रकृति और शोषित जन समुदाय की गंभीर पीड़ा से रूबरू होकर उनकी दयनीयता ने अभिव्यक्ति की उन्हें दिशा दी। यद्यपि प्रेम एवं करूणा उनके गीतों के विषय रहे हैं। किन्तु शीध्र ही उनका हृदय इनसे ऊबने लगा और परिणामतः नवगीतों की ओर उन्मुक्त हुए। फिर तो अनेकानेक स्वनाम धन्य रचनाकरों से उनका परिचय हुआ और नवगीत का मार्ग प्रशस्त होता चला गया। सम्वेदना के यथार्थ स्वरूप एवं परिवेशगत जागरूकता से जुड़कर वे सामाजिक सरोकारों के साथ जीवन-संघर्ष और जिजीविषा की सच्चाई न्यूनतम शब्दों एवं लघुतम छन्दों में अभिव्यक्त करने लगे।

मुकुन्द कौशल जी की दृष्टि में, नव्यता प्रत्येक युग ही नहीं प्रत्येक क्षण की अनिवार्य आवश्यकता है। उनके विचार से नवगीत ही ऐसी विद्या है जो घ्वन्यात्मकता, क्रमबध्यता, तरलता, देशी अंदाज और धुवीय आवृत्ति जैसी जीवन्त गुणात्मकता के कारण जीवन की प्रत्येक जटिलता को सहजता से अभिव्यक्त कर पाने में समर्थ है। उन्होंने साहित्य की अनेक विधाओं में और चार भाषाओं में सृजन किया है और संगीत में भी उनकी विशेष रूचि है। अतः बहुश्रुत, बहुवृत होने के बाद भी नवगीत में उनके अन्तर्मन को विश्रान्ति मिलती है। उनके सद्यः प्रकाशित नवगीत संग्रह "सिर पर धूप आँख में सपने" से एक रचना यहाँ प्रस्तुत हैः-

"तन का पर्वत कितना रोये
मन के ढहने पर

बोयी पीर फले हैं दुखड़े
मुस्काते हैं घाव
पीड़ा पीते, भ्रम में जीते
सहते हैं बिखराव

भारी मन को चैन मिला
कुछ कहते रहने पर

सागर की उत्ताल तरंगें
नभ छूकर लौटीं
कटते-कटते उम्मीदों की
डोर हुई छोटी

मौसम भी तो विवश हुआ
मनमानी सहने पर

चहकी फिर से गहन उदासी
चीखी खामोशी
ठिठुर गया दिन बैसाखी का
कौन भला दोषी

यह विराट आकाश झुक गया
किसके कहने पर"

श्री हरिशंकर सक्सेना जी का नवगीत-संग्रह "प्रखर संवाद" भी वर्ष २०१५ में प्रकाशित होकर नवगीतकारों में चर्चा का विषय बना हुआ है। दरअसल श्री सक्सेना जी मानते हैं कि नवगीत-सृजन एक गम्भीर जनधर्मी, समय-सापेक्ष और समाज-सापेक्ष रचनात्मक कार्य है, जिसमें मन की गहन अनुभूतियों की कलात्मक अभिव्यक्ति होती है और उसकी सार्थकता उसकी प्रासंगिक सम्वेदना में ही निहित होती है। अतः कोई भी रचना समय-सन्दर्भों से जुड़कर सामाजिक सरोकार के उद्देश्य की पूर्ति करती है। सक्सेना जी के गीतों की अन्तर्वस्तु सामाजिक विसंगतियों एवं विद्रूपताओं पर केन्द्रित होती है। उनके नवगीत समय-सम्वेदना को प्रतीक-बिम्ब और जन सामान्य की बोली-बानी में स्वर देते हैं। शिल्प की नवता, बिम्बात्मक कथ्य और सम्वेदना की प्रासंगिकता के संतुलन से समृद्ध उनके नवगीत छन्द एवं लय के अनुशासन में निबद्ध होते हैं, जो सरलता से अधरों पर स्थान बना लेते हैं। उनकी रचनाओं की यह प्रमुख विशेषता है कि वे निजत्व से निकल कर सामाजिकता का विस्तार करते हैं। मुख्यतया उनकी रचनायें व्यंजना-प्रधान होती हैं और अनेकार्थी हैं जो उनके ज्ञान की परिचायक हैं। इस संदर्भ में "प्रखर-सम्वाद" नवगीत-संग्रह की एक सचना यहाँ प्रस्तुत हैः-

"पीठ पर फिर इस सदी का
दंश गहराया

पत्थरों से मेल करता
बादलों का दल
क्रूरता की परिधि में फिर
आप कलियों को
सुरक्षा दे नहीं पाये
मोरचा कट्टर
फिजाँ से ले नहीं पाये

टल नहीं पाया अभी
आतंक का साया

फिर हवा में जहर भरती
क्रूर पंचायत
तितलियों के पर कतरती
क्रूर पंचायत
जंगलों की संस्कृति ने
बाहर वरपाया"

भारतीय संस्कृति, सभ्यता और मानव मूल्य के हित में परम्पराओं में रचे-बसे डॉ॰ जय शंकर शुक्ल के नूतन गीत-नवगीत संग्रह "तम भाने लगा" की रचनायें आम आदमी के जीवन-संघर्ष के साथ ही प्रकृति, पर्व, देशभक्ति आदि अनेक विषयों को पाठक के सम्मुख रख कर चिन्तन की दिशा देने में सफल सिद्ध होती हैं। संग्रह के गीतों का शिल्प विविधवर्णी है और प्रत्येक रचना शिल्प एवं कथ्य में एक-दूसरे से भिन्न है। शिल्प की भिन्नता यह भी सिद्ध करती है कि वे उनके विविध रूपों को प्रयोग करने में पटु हैं। डॉ॰ शुक्ल रस, अलंकार, छन्द, प्रतीक-बिम्ब आदि के प्रयोग में स्वाभाविकता का विशेष रूप से ध्यान रखते हैं। शिल्प और कथ्य का संतुलन एवं समन्वय उनकी रचनाओं में सर्वत्र देखा जा सकता है। अर्थ निर्माण की प्रक्रिया और अनुभूतिगत सृजन को सहज, सरल तथा सम्प्रेषणीयता के साथ अभिव्यक्त करने में कुशल डॉ॰ शुक्ल अपने परिवेश, समाज, देश और प्रकृति सभी को जोड़ कर रखते हैं। जन सामान्य की बोली-बानी के साथ ही अनेक स्थलों पर देशज शब्दों का प्रयोग उनकी रचना को प्रसाद गुण सम्पन्नता प्रदान करता है। उनकी काव्य-दृष्टि और काव्य-रूचि उनके व्यक्तित्व की परिचायक है। वास्तव में सहजता, रागात्मकता, सामूहिकता उनकी रचना के स्वाभाविक गुण हैं अतः उनके गीत जनसामान्य के मध्य लोकप्रियता प्राप्त कर सकते हैं। "तम भाने लगा" गीत-नवगीत-संग्रह की एक रचना यहाँ प्रस्तुत हैः-

"सपनों के दर्पन पर
धूल का लिबास है
अधरों पर तड़प रही
सदियों की प्यास है

मन के चौबारे पर
फुदक रही गौरैया
साँसों के सरगम पर
सुधियों की ता-थैया

विरह के अलखों में
सिंकता हर खास है

कुंदन सी काया में
सूरज का ताप है
गहराये यौवन में
देश की छाप है

मौलसिरी में बैठी
लाज की मिठास है

नखों के सागर में
नैनों का सम्मोहन
द्वन्द्वों के मेले में
यादों का चिरनर्तन

बेगाने अपने हैं
अपना बिंदास है

बातें अपनेपन की
मरूथल की तृष्णा है
वृन्दावन सूना है
कुंभ-फुंख कृष्णा है

राधा के सपने में
मोहन उदास है।"

श्री राजेन्द्र वर्मा का सद्यः प्रकाशित गीत-नवगीत-संग्रह "कागज की नाव" नवगीतकारों में विशेष रूप से चर्चित हुआ है। श्री वर्मा जी के अनुसार नूतन शिल्प, भाषा, शैली और अभिनव प्रतीक-बिम्ब के साथ जन सामान्य की सम्वेदना को जो रचना व्यक्त करे, वह नवगीत कही जायेगी। सम्वेदना के अनेक रूप हैं और मानव-जीवन के प्रत्येक सुख-दुख में वह व्याप्त रहती है। सम्वेदना का अर्थ केवल पीड़ा अथवा करूणा तक सीमित नहीं है। आधुनिक बोध, नये उपमान और नवतायुक्त प्रतीक-बिम्ब आदि नवगीत की पहचान हैं। वर्मा जी ने नवगीत को जाँचा-परखा है और अपनी रचनाओं में विविधता लाने का भी प्रयास किया है। ५४ रचनाओं के इस स्तवक में प्रकृति और कल्पना में व्याप्त हर सुमन की सुगन्ध मिलती है। वर्मा जी की पूर्व में विभिन्न छन्दों यथा घनाक्षरी, सवैया, कुण्डलिया, दोहा आदि पर भी उनकी एक शोधात्मक पुस्तक प्रकाशित हुई थी। वर्तमान संग्रह गीतों के लिहाज से तीसरा संग्रह है, जिसमें वर्मा जी की प्रतिभा और सामर्थ्य विकसित एवं विस्तृत रूप से दिखाई पड़ती है। उनकी दृष्टि में स्वयंभू कवि बन जाना और स्वान्तः सुखाय सृजन का कोई अर्थ नहीं है। प्रत्येक रचना विशिष्ट सम्वेदना का स्वाभाविक छान्दसिक रूप होती है और विस्तार चाहती है। यह भी एक भ्रम है कि रचना का निर्माण किया जाता है। यदि प्रतिभा के साथ सम्वेदना है तो रचना अपने निर्माण का रूप स्वयं निर्धारित कर सृजन करा लेती है जिसमें कोई संदेश निहित होता है। इसी कृति से एक रचना यहाँ प्रस्तुत हैः-

"बीत रहे दिन-मास-वर्ष
बातें सुनते-सुनते
बीती जाती उम्र एक
सपना बुनते-बुनते

गाँव-शहर जंगल में बदले
जंगल मरूस्थल में
राजसदन क्रीड़ा केन्द्रों में
बदल गये पल में
आँगन-आँगन उग आये
हैं पेड़ बबूलों के
फूलों का विस्मरण हुआ
कॉंटे चुनते चुनते

जिम्मेदारी लुटी
मौजमस्ती के मेले में
रोटी का सवाल मुँह बाये
खड़ा अकेले में
कुम्हलाया बचपन भी
छप्पन भोग लगा लेता
सो जाता जो परी
कथाओं को सुनते-सुनते

इन्द्रधनुष से ज्यादा उसके
चर्चित चित्र हुए
इन्द्रसभा के पीछे पागल
विश्वामित्र हुए
कैसे प्राप्त परमपद हो
बस इसका युद्ध छिड़ा
अभिशापित त्रिशंकु जीता है
सिर धुनते-धुनते"

 

१५ फरवरी २०१६

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