अपनी तरफ के हिंदुस्तानी
ग्राहक, और लंका के मिस्टर कुम्भकर्ण के सोने का रिकार्ड
लगभग बराबर है। दोनों बेइंतिहा सोते हैं।
मिस्टर ‘कुम्भकर्ण’ की वजह से लंका को, ‘सोने की लंका’ भी
कहा जाने लगा।
वहाँ अगर असली सोना होता, भारत लूटने निकला ‘महमूद गजनवी’
उधर का रुख न कर लेता?
गजनवी के सिपहसालारों ने कान में फुसफुसा दिया, जनाबे आला,
देखने वाली बात को गौर करें, दोनों जगह सोने का भाव बराबर
है। पाँच सौ रुपया टन इंडिया में और यही भाव लंका में है।
ऊपर से समुद्र से लूट का माल लाने का खर्चा, जोखिम अलग।
पड़ता नई पड़ने का...। इंडिया ही लूट लो। उन्होंने इंडिया
लूटने का मन बना लिया।
वे सोते हुए इंडिया के राजे महराजे, रजवाड़े, मन्दिरों को
लूट ले गए। भोथरी तलवार लिए सिपाही, गमछा-धोती पहने पंडित,
कहीं अपने विरोध को मुखर नहीं कर पाए।
समय-समय पर हमले होते रहे। अंग्रेज आये, पोर्तगीज आये,
सबने अपना कमाल, रुमाल और तलवार दिखाये, माल बनाया और चलते
बने।
समय के जिस काल खंड में हम अभी जी रहे हैं उसे कलयुग कहते
हैं।
पुराणों में इस युग की कलंक गाथा ये है कि एक दूसरे के
साथ, आदमी-आदमी के बीच धोखाधड़ी, फरेबी, मक्कारी होने की
संभावनाएँ अनंत हैं।
हमारे फेमिली पंडित से इस बारे में चर्चा कर लें, तो वे
डिटेल में बताते हैं- "यजमान जी, लगता है, नरक में जीने के
या जाने के दिन बहुत नजदीक हैं। बेटा बाप को धकियायेगा,
बहु मरते मर जाओ, पानी नहीं देगी, रिश्तेदार उधार ले के
मुकर जायेंगे, किरायेदार मकान हड़प लेगा, बनिया मिलावटी
सामान दे दे के, आपको आई सी यु का मरीज बना देगा, डाक्टर
आपकी तरफ देखने भर की फीस झाड़ लेगा, मक्कार चांडाल लोग रेप
खून करके पैसे के दम बाहर निकल जायेंगे।"
फेमिली पंडित ने एक और खतरे को भाँपा है। वे कहते हैं
"कलियुग में विज्ञापन के ढोल-धतूरे का, ज्यादा बोलबाला
रहेगा। ग्राहक यहीं ज्यादा पिटेंगे।"
वे सत्संग में, अपनी बात का और खुलासा करते हैं।
"ये विज्ञापन वाले लोग, बी॰ पी॰ के पेशेंट को सुबह सुबह
नमक वाला टूथपेस्ट रिकमंड कर रहे हैं। चैन से सोना है तो
जाग जाओ स्टाइल में वे पूछते हैं, आपके पेस्ट में नमक है?"
ये एक ऐसा प्रश्न है जिसका जवाब, सिवाय मजबूरी में नमक
वाला पेस्ट खरीददारी के और कुछ नहीं। दम से ये आपको अपना
नमक खिला रहे हैं- ले हमारा भी नमक चख ...।
एक विज्ञापन ‘मैल में छिपे कीटाणुओ को धो डालता है’ के नाम
पर सब के दिमाग में छिपे हुए कीटाणुओं का खौफ पैदा कर रखा
है। ये कीटाणु जब डिटर्जेंट ईजाद नहीं हुए थे, तब शायद
पैदा नहीं हुए होंगे।
'बंटी! ‘तेरा साबुन स्लो है क्या,?' ऐसा लगता है साबुन को
किसी रेस में जाना था?
‘चौक गए छतरी मेन?'
घर आके कभी कोशिश करें। वैसी ही बरसात, वैसे ही कीचड़ सने
कपडे...। अगर विज्ञापन वाली धुलाई के उन्नीस बीस कपडे धुल
जाएँ और छतरी मेन अगर चौक जाये, तो श्रेष्ठ धुलाई का
पुरस्कार थमा दें। जरा वैसी टी वी वाली धुलाई करके दिखा
जाओ भाई।
टायलेट प्रोडक्ट वालों के प्रोडक्ट से, बी पी एल वालों का
टायलेट झकास क्यों नहीं धुलता?
किचन बरतन बार के खिलाफ, मेरी काम वाली बाई का अपना
अनुकरणीय मुहिम है।
"देखो साब जी, मैं बर्तन राख से धोऊँगी, ये जो आप टी वी
में देख देख के तंग करते हैं, बर्तन साफ नहीं धुलते, तो
मैं कहे देती हूँ, ये सब बड़े लोगों का चोंचला है। जो सफाई
राख से घिस कर मिलेगी, वो कहीं न मिल पायेगी। घिसने से
लगता है अल्लादीन घर के आसपास मंडराते रहता है। हर बर्तन
में, जो हुक्म आका वाली परछाईं दिखा करती है। हाँ, राख
आजकल मिलती नहीं साब जी, सब लोग गैस इस्तेमाल करते हैं।
होटलों से या तो आप ला दिया करो या हमको पैसे दो हमी ला
देंगे।"
-बाबूजी इक और राज की बात, अपना एक्सपर्ट ओपीनियाँ रखते
हुए बोली-
"बरतनों के बार या लिक्विड से बर्तन में डिटरजेंट चिपके रह
जाते हैं। आगे जाके यही सब केन्सर, टी॰ बी॰ होने का खतरा
पैदा कर देते हैं। अब आगे खतरा उठाना हो तो आपकी मर्जी।"
उसके ज्ञान स्रोत पर अदभुत आश्चर्य हुआ। मैंने सहमति में
सर हिला के बर्तनों में राख और मेरी अल्प मति में भभूत
मलने की अनुमति दे दी। मुझे लगा आगे भी मैं बर्तनों में
‘अल्लादीन ब्रांड की राख’ रगड़वाता रहूँगा।
मुझे उन सतसंगी ढकोसलेबाजों से महरी की साफगोई ज्यादा
अच्छी लगी जो दो दिन के योग के बाद हाथ उठा के कहलवाते हैं
-किसका वजन दो किलो कम हुआ? किसका चार किलो...हाथ उठायें?
हजारों हाथ उठ जाते हैं। बेशर्म लोग जाने किस चाईनाब्रांड
मशीन से तुल के आये होते हैं, रामजाने!
यही सत्संगी, भूतप्रेत-बाधा झाड़ने वाले, मूली, मेथी,
टमाटर, हरी सब्जी, हर्रा बहेरा के गुणों का बखान करेंगे और
अपने कष्ट का इलाज रातों-रात विदेश जा के करवा आयेंगे।
ग्राहकों का एक बड़ा तबका वो भी है जो किसी की सुनते नहीं
खुद अपना कहा भी मानते नहीं। जिसने भी झाँसा दिया, चार दिन
में पैसे दुगने, चौगुने, वे दोनों कान, दोनों आँख और
एकमात्र दिमाग कही जाने वाली इन्द्रिय को सुप्तप्राय कर
लेते हैं।
मगर हाँ, गच्चा खाने के बाद वही दिमाग सोलहों आने सही काम
करने लग जाता है। वो एफ आई आर करवा लेता है, मिनिस्टरों का
एप्रोच भिडाता है, धरने हड़ताल के लिए फरियादी इकत्र कर
लेता है। चेतना जगती है मगर तब तक आपको ठगने वाला फरार हो
जाता है या सशक्त राजनीतिक शरण में जाकर अभयदान पा चुका
होता है।
आजकल की राजनीति भी ‘प्रोडक्ट बेचो’ की तर्ज पर अपने आप को
एक ब्रांड बना लिए है।
"हम हैं एकमात्र बिल्डर, पचास मंजिला राम मन्दिर हम मुफ्त
में बना देंगे बशर्ते आप हमें कुर्सी काबिज करवा दें। हमसे
बेहतर गंगा सफाई करने का दम है किसी में? मन माफिक काम
करके देंगे।"
ये लोग बड़े बड़े अभियान को, कानों के मैल साफ करने की तर्ज
पर लिए चलते हैं। बहरे लोग सोचते हैं शायद साफ कान से धीमा
सही कुछ तो सुनाई देने लग जाएगा।
"आप अँधेरे में कब तक बैठे रहेंगे? हमारे ब्रांड की बिजली
घर में जलाइये इसमें रोशनी ज्यादा दमदार और टिकाऊ है ऊपर
से ये करेंट नहीं मारती, एकदम आधी कीमत पर वापरने के लिए
हमें वोट दें।"
"हम आपके प्रदेश में मेट्रो सुविधा देंगे। आप, मर्जी हो तो
नाती-पोतों के साथ डब्लू टी (बिदाउट टिकट ) सफर कर लें।"
लेपटाप, टी वी, टेबलेट, बैल, गाय, सायकल और सुविधा बाँटने
वाले मायाजाल कुछ यों फैलाते हैं कि आपका फँसना लाजिमी है
ही...
वोट देने वाली जनता, और सपने देखने वाले ग्राहक माने बैठे
हैं, चलो इसी बहाने उनको खाली समय में बहस करने का मुद्दा
मिल जाता है, वरना सपाट मैदान अमेरिका जैसे देशों में झख
मारते हुए एक सपाट उबाऊ जिन्दगी जियो।
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