"पापा ने बिल्कुल ठीक किया
तुम्हारे साथ। तुम तो हो ही ऐसी।"
क्रोध से तमतमाये चेहरे ने तर्जनी हिला हिलाकर कहा और फिर फूट
फूटकर रो पड़ी। मैं स्तब्ध थी! रोते रोते भी शब्द अपनी सीमाएँ
तोड़ते जा रहे थे। लेकिन मैं तो पत्थर सी बैठी केवल उसे देख रही
थी, चलती जुबान, बिखरे बाल, चलते हाथ पाँव जो आल्मारी के तह
लगे कपड़ों को उठा उठाकर आँगन में फेंक रहे थे, बीच बीच में
आँसुओं के साथ वह आती नाक को बाँह से पोंछते जा रहे थे। आँसुओं
के खर्च पर उसे कभी कोई कंजूसी नहीं रही। जिन्दगी शुरू हुई है
अभी उसकी। अभी तो न जाने कितने बहाने पड़ेंगे। इस समय तो वह
क्षण में तोला बनी हुई अपनी माँ को ज्यादा से ज्यादा दुख देना
चाह रही है। पता नहीं क्यों, कहाँ का दुख उसके अपने अंदर उग
आया है जिसे वह क्रोध के जरिए मुझ पर उड़ेल रही है। बिल्कुल
अपनी ममता की तरह। मुझे बात अंदर कहीं चुभ गई तभी तो मैं हिल
डुल नहीं पा रही। हाथ पैर शरीर सुन्न से रजाई के अंदर न रो पा
रहे हैं न चुप ही रह पा रहे हैं। करीब पौने, आधे घंटे का यह
नाटक अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचकर धीरे धीरे शांत हो रहा है।
गनीमत है कि इस समय घर में कोई नौकर चाकर नहीं।
धुले प्रेस किए कपड़ों का बिखरा ढेर आँगन में साड़ियों के रंग
बिरंगे चेहरों में मुझे मुँह चिढ़ा रहा है। धुँधलका घिरने को
है, इन कपड़ों को सबके आने के पहले समेटना है। यह मेरी बेटी है
जिसके प्यार में मैं सराबोर हूँ यह कोई कहने की बात नहीं कि
इसे मैं अपनी दोस्त समझती हूँ, तभी तो हम दोनों के बीच कुछ भी
छुपा नहीं है। अब तक इसे सलाह देती लेती रही हूँ। सच मानिए यह
आज तक भी मेरी दोस्त बेटी ही है, हमेशा अपने पापा के व्यवहार
पर मेरा पक्ष लेती रही कभी-कभी मेरे सामने उनकी आलोचना भी
करती। शायद यही बात उसको विश्वसनीय भी बनाती रही। दुनिया के
आधुनिकतम फैशन और ज्ञान से मुझे परिचित कराती, उसकी वजह से मैं
दोनों पीढ़ियों में समान गति से विचरण करती रही। तरह तरह की
चीजें बनाती, यहाँ तक कि मेरे गर्व के लिये अपनी पढ़ाई से ढेरों
गोल्ड मैडल लाती। आज इस एक साधारण वाक्य को कहकर उसने खुद को
मुझसे अलग कर लिया। मुझे लगा आज उसने अपनी नाल मुझसे झटककर काट
दी। मेरे अंदर कुछ खो देने का दुख तारी हो गया। अन्दर की
गूँजती आवाजें अब शोर बनती जा रही हैं। कान तमतमाने लगे। मैं
स्तब्ध शोर में प्रवेश करने लगी अचानक ही पूरे शरीर में सिहरन
हुई और मैं रजाई फेंककर झटके से उठी। मन से ज्यादा आँगन में
पड़े कपड़ों की चिन्ता हो रही है। कोई अगर इस बीच आ गया तो!
बहाने भी नहीं मिलेंगे मुझे, क्या बताऊँगी?
इस छोटी सी लड़की ने कितना बवाल मचा रखा है। अब तो वह बात भी
याद नहीं आ रही जिस पर यह झगड़ा शुरू हुआ था। उसका क्रोध पहली
बार देखा और क्रोध से काँपती उसकी आँखें भी। मुझे विश्वास नहीं
हो रहा कि यह सब मेरी बेटी ने किया है यह मेरी गुड़िया इतनी बड़ी
हो गई। मर्मान्तक वाक्य कहना कहाँ सीखा? यहाँ तो मैंने किसी को
दुख न पहुँचाने की शिक्षा दी है। एक पल के लिए भी नहीं सोचा कि
जिस माँ के दिल दिमाग में केवल वह, उसके सपने, उसका कैरियर,
उसका प्रेजेंटेशन रहता हो उसे...उसे उसने इतनी कड़ी बात कह दी।
सुनने में छोटी सी बात लेकिन जिसका अर्थ कितना गहरा। उस बेगाने
समय को मैं इसके सहारे ही बिता पाई थी। इसने ही मुझे वह शक्ति
दी थी जब दुखों से टूटकर मैं अपनी गुफा में घुस गई थी। दिन रात
मेरे आँसुओं को पोंछते आगे पीछे घूमती। मतलब उन बातों का नहीं
उनसे जुड़ी भावना का है कि जिस भँवर से वह मुझे निकालकर लाई थी
बिना सोचे समझे उससे भी बड़ी भँवर में मुझे ढकेल दिया। मेरा
दिमाग सुन्न है और मन...उससे शायद खून रिस रहा है। पिंजर जो
कुछ भी चल रहा है वह मुझसे सोचने समझने की शक्ति छीनता लग रहा
है।
घिसटती सधी चाल से कपड़े लाकर मैंने पलंग पर रखे। मैं अभी दूसरे
खेप के लिए मुड़ी ही थी कि धम्म की आवाज के साथ सारे कपड़े फिर
आँगन में बिखर गए। उसके रौद्र रूप की कसी कमर देखकर मैं हक्की
बक्की कभी उसे कभी आँगन को देख रही थी।
बँगले के अंदर एक बेडरूम और उससे लगा आँगन इस घटना का वैन्यू।
आवाजें तेज नहीं कि बाहर कोई सुन सके। आँगन में रहनेवाली
गिलहरी की हलचल में तेजी हो आई। बेचैनी से बार बार पेड़ में
चढ़ना उतरना मैं देख रही थी। नगर निगम का नल बह रहा था। पानी के
फालतू बहने पर मन हुआ उसे बंद कर दूँ। धुँधलका दिखने से बत्ती
जलाने के साथ तुलसी पर दिया रखने की याद भी आई, पर किसके लिए
मैं दिया जलाऊँ, इस घर के लोगों के लिए? जो जब तब दंश देते
रहते हैं। एक ही लड़की वो भी शादीशुदा। हम दो या कभी कभी के लिए
तीन...निरर्थकता का बोध मुझमें आता जाता है। बेचैन गिलहरियाँ
मुझे सहला रही हैं। अपनी भावनाओं को मैं गिलहरी में देख रही
हूँ उसकी संवेदनशीलता में मैं खुद कहीं हूँ। इसकी बेचैनी शांत
होने का नाम नहीं ले रही। दाना, पानी उसके मुँह में नहीं केवल
इधर उधर घूमती उसकी गरदन और झूलती पूँछ। पेड़ पर बार बार चढ़ना
उतरना इसकी बेचैनी दूर करने मैं क्या करूँ?
"मम्मी तुम कुछ बोलोगी नहीं तो आज मैं तुम्हें कपड़े रखने भी
नहीं दूँगी समझीं? उसने मुझे धमकाया
"अब बोलने के लिए कुछ बचा है क्या" असहायता में मेरे मुँह से
निकल गया।"
मैंने सोचा क्यों किया? तुम नहीं सोचोगी तो कौन सोचेगा? बात
कुछ और है। यह कुछ और कहना चाह रही है लेकिन यह कहने का कौन सा
तरीका ढूँढ़ा है इसने। मेरा मन बिल्कुल नहीं हो रहा था कि उसे
अपने में समेट सहला उसका दुख दर्द पूछूँ। मेरे अंदर की माँ मर
चुकी थी। इस समय मेरे अंदर की औरत मुझ पर हावी थी जो माँ को
दबोच कर केवल औरत बनी अपने आहत मन को किसी तरह सम्हाले हुए थी।
कुछ दुख ऐसे होते हैं जो शाश्वत होते हुए भी जब पहली बार महसूस
होते हैं तो नये लगते हैं। दुखों की यह नदी मुझ में न जाने
कितने घाट बना चुकी है जिसमें बैठकर मैं अपने दुख पछींटती
सुखाती फिर अंदर कहीं तहाकर रखती रही हूँ। उस समय को बिताने यह
भी मेरे साथ कभी रही है उन दुखों को दिखाने का एकांत मुझे कम
ही मिला। मैं स्त्री हूँ और तरह तरह के दुखों से संबंधित ढेरों
कहानियाँ उपन्यास देश विदेश की पढ़ रखी हैं। हमेशा सोचती रही
"औरतें भी न! जरा सी बात का बतंगड़ बनाती रहती हैं।"
मैं बतंगड़ से दूर ही रही। अगर कभी ऐसा हुआ भी तो बतंगड़ न बनाकर
उसे अतीत में जमाकर वर्तमान में जीने लगी। दुखों को बढ़ा चढ़ाकर,
महिमामंडित करने वाले लोग बचपन से ही मुझे अच्छे नहीं लगे।
बचपन के वे दिन जिन्हें माँ दुख की संज्ञा देती थीं मेरे लिए
दुख के नहीं बने। क्या हुआ अगर बाबू को व्यापार में घाटा लगा
और हमें खाने पहनने में गरीबी की स्तर रेखा से नीचे कुछ समय
गुजारना पड़ा। हमारे लिए बाजार का अर्थ केवल उठती बाजार की
सब्जियों में सिमट गया। दुख तो दूसरों की आँखों में भी नहीं
दिखे तब ही इंसान होना सार्थक होता है ऐसा बाबू कहते। बाजार
में बाबू चलते तो न आँख नीची न आवाज में कोई कमजोरी बल्कि
जल्दी से उस समय को बिता कर ऊँची कालर से चलते अच्छे समय को ले
आने का उत्साह उनमें कूट कूटकर झलकता रहता। जोश कभी कम नहीं
दिखा। बल्कि लमतरानियों में ज्यादा दिखता।
अम्मा भी कभी नहीं टूटीं। औरत का औरतपन कितना कड़ियल होता है यह
मैंने उनसे ही सीखा है जिन्दगी की कक्षा में बैठकर और शायद
मेरे जीन्स भी जिम्मेदार होंगे। बचपन से सुनती आई हूँ मेरी
बिटिया का आत्मविश्वास तौले नहीं तुलता इसे कोई चाहे भी तो खुआ
का काँटा नहीं लगा सकता। अब क्या माँ की ही नजर लग गई। वैसे
कहावत भी है बच्चे को सबसे पहले माँ की ही नजर लगती है। लेकिन
कोई माँ क्या कभी अपने बच्चे को दुखी देखना चाहती है? अगर
मातृत्व को यह पता चले तो शायद सबसे पहले मिर्चें लेकर वही
अपने बच्चे के आगे पीछे खड़ा रहे। फिर भौतिक जीवन में कमीबेशी
भला कोई दुख है। इन्हें हम कष्ट संघर्ष की श्रेणी में रखते
हैं। अम्मा कहती थीं-
"आजकल हम लोग जरा कष्ट में हैं।"
दुख शब्द का प्रयोग तो बहुत बाद में समझ में आया। शायद बाबू के
नहीं रहने के बाद। मेरे अपने शब्दकोश में यह शब्द पन्द्रह साल
पहले ही जुड़ा। जब बाबू के नहीं रहने के बाद माँ को सफेद कपड़ों
में देखा। अंदर की चट्टानें दरकीं नहीं एक झटके में ही विस्फोट
हो गया।
"मेरी माँ नहीं पहनेंगी सफेद कपड़े" मैं जोर से चिल्लाई थी
मायकेवालों के सामने ही अम्मा को सफेद कपड़े में रोज रोज देखना
हमें दुखी ही करेगा और वे खुद...सफेद कपड़ों में भला अपनी
जिंदगी जी पायेंगी। नहीं चाचा आप कहिए सबसे कि अम्मा बाबू की
लाई सारी साड़ियाँ पहनें इससे उनमें बाबू का एहसास जीवित रहेगा।
मेरा शब्दकोश दुख शब्द के साथ समृद्ध होता गया। हवा में उड़ते
मेरे पैर ठोस जमीन पर ठहर गए। बचपन कहीं चला गया। बात बात की
हँसी ने दूसरा घर खोज लिया। शायद इसी को व्यावहारिक भाषा का
परिपक्व होना कहते होंगे। हर समय समझदारी की बात, व्यवहार भी
वैसा ही। बिना सोचे बोलने की मनाही। हँसने हँसाने का मन कभी हो
तो चुटकुलों, दूसरों की नादानियों, चालाकियों और बेवकूफ बनाने
की कला पर किस्से एकत्रित किए। एक-एक शब्द को वर्तनी सहित रटती
दोहराती रहती हूँ। इसके बावजूद भी जीवन में गच्चा खा जाती हूँ।
मेरे लिए तो औरत की यात्रा मेरी माँ से शुरू हुई थी उसकी छाया
मैं अपनी बेटी पर न आने दूँ और २१ वीं सदी में औरत अपने परिपाक
पर पहुँचे यही शिक्षा बेटी को देती रही। माँ और बेटी के
मूल्यों के बीच मैं हमेशा ठगी सी खड़ी रही। मैं खुद तो अपनी
पीढ़ी सहित सैण्डविच बनकर रह गई। माँ मुझे आदर्शों का पाठ पढ़ाती
रही, मातृत्व की परिभाषा अपने व्यवहार से समझाती रहीं और आज इस
औरत का व्यवहार! यह व्यवहार मुझसे उत्तर चाहता है। मेरा दिमाग
सोच समझ नहीं पा रहा।
क्या हुआ होगा। कष्ट कोई नहीं शायद दुख...। यह व्यवहार परछाहीं
है क्या उसकी। इसकी आँखों में इसके पापा के क्रोध को मैं देख
रही हूँ वही स्वभाव, वही विचार। अब तो वही सोच भी, अरे! कितने
बड़े भ्रम में जी रही हूँ मैं ''माँ की बिटिया'' के जुमले में।
खुद भी तो कहती फिरती थी मेरी माँ, सबसे अच्छी माँ, सबसे अच्छी
दोस्त। जन्मदिन हो या शादी की सालगिरह मेरे मन में छुपी किसी
इच्छा को उपहार बनाकर पेश करना इसकी आदत है।
मैं अचानक से भूगोल की उस क्लास में पहुँच जाती हूँ जिसमें
मैंने कभी पढ़ाई नहीं की लेकिन पढ़ने की इच्छा जिंदगी भर रही।
नहीं आता था भूगोल...उसे पढ़ाते ही सीख गई कि मुलायम चीजें कैसे
समय की मार से चट्टानें बन जाती हैं। कैसे धरती अन्दर के दबाव
से धसक जाती है और विध्वंस होता है भूस्खलन के रूप में। कैसे
नदी समुद्र में मिलकर अपना अस्तित्व खोती है। पढ़ाते पढ़ाते
जिन्दगी को उससे जोड़ते चलती थी। एटलस देखती तो दुनिया के दूर
बसे देशों को देख लेने का मन होता। कल्पना में घूमती रहती।
शायद उसे मेरे मन का पता मेरी भाव भंगिमा से चल गया होगा तभी
तो एक जन्मदिन पर ग्लोब ही ले आई। रात को बिन्दु दिखते वो सारे
शहर, शब्दों में देश जिन्हें मैं घूमना चाहती थी दिखाकर उनकी
दूरी समझाती रही थी। उस रात हम दोनों के सपने तक एक जैसे थे।
उसका कोई काम बिना मेरी अंतिम सलाह के कभी पूरा नहीं हुआ। शादी
के बाद जब पहली बार नागपुर स्टेशन पर मिले तो एक एक चीज का
वर्णन। रोज घण्टों फोन पर बातें करने पर भी न जाने कितनी छूटी
हुई बातों के छोर हम जोड़ रहे थे।
हम दोनों के बीच समय कभी आड़े नहीं आया। नैतिक बल थी मैं उसका
ऐसा मैं समझती रही। माँ के रूप में नहीं एक औरत की तरह भी हम
दोनेां ने समझा है एक दूसरे को। इस कहावत को झुठलाते हुए "नारि
न सोहे नारि को रूपा।" हर विषय पर हम बहस करते, साथ घूमते,
सिनेमा, शॉपिंग होटल सब। शायद मैंने उसे सिखाकर अपने लायक
बनाया था और अब उसने सीखकर खुद को समय के लायक बना लिया है।
हमारी दोस्ती में माँ का अनुशासन, सम्मान बरकरार रहा। विश्वास
ने घड़ी का लिहाज भी नहीं किया फिर...यह झगड़ा और तुर्रा यह कि
गलती मेरी...चाहे किसी और ने गलती की हो।
सच आज शब्दकोश का दुख अपने साथ विशेषज्ञ लेकर मेरे सामने खड़ा
है। जब दोनों किनारे छूटते लगते हैं तब भी नदी तो बहती ही रहती
है न, भले ही उच्छृंखल होकर ही। ऐसे गाढ़े वक्त में मुझे माँ की
याद आ गई...बाबू के बाद कैसे वे संयमित नहीं रह पाईं। उन्हें
किसी पर विश्वास नहीं रहा अपनी बेटी पर भी नहीं। उनकी बेटी का
तो अपना परिवार है। बेटी के लिए पति और उसके बच्चे उसके लिए
पहली प्राथमिकता हैं फिर माँ तो उसके बाद ही आएगी। सम्मान अलग
बात है। रोज रोज की प्राथमिकताएँ केवल सम्मान पर नहीं होतीं।
प्यार, प्रेम ज्यादा जरूरी है। नाश्ता खाना, जाना आना या कोई
खर्च, उनकी बिटिया पहले अपनी बच्ची देखेगी फिर माँ...। यही
प्रकृति का शाश्वत नियम है बेटा, सब अपने को ही प्राथमिकता
देते हैं। अदृश्य नाल तो उन्हीं से जुड़ी रहती है। प्यार भी
उन्हीं से करते हैं। एक बार मैंने अम्मा से कहा था
"अम्मा मुझे अपने व्यवहार पर अफसोस तो होता है लेकिन मैं क्या
करूँ मैं विनी के बिना नहीं रह सकती।"
"इसमें अफसोस करना बेकार है अगर हम माँ को ही ज्यादा चाहते
रहेंगे तो अपने बच्चे को बड़ा नहीं कर पायेंगे, यही जीवन का सच
है बेटा। अपने जाए से ज्यादा कोई नहीं।" इस सच्चाई को झुठलाने
की मेरी सारी कोशिशें बेकार रहीं मैं माँ और बेटी के बीच हमेशा
सैण्डविच ही बनी रही। हम तीनों में मेरी बेटी फायदे में रही और
अम्मा...वो बेचारी तो मेरी माँ बनने का खामियाजा ही भुगतती
रहीं। विनी में नानी के गुण नानी के साथ रहते रोजमर्रे में ही
अपने आप आते चले गए। भाषण देने की कला से लेकर सीना पिरोना तरह
तरह का खाना बनाना।
उसमें उत्सुकता थी सीखने की। जो मैं खुद उनकी बेटी होकर ज्यादा
नहीं सीख पाई थी। मैं तो बहुत पहले ही उनसे दूर रहकर पढ़ने चली
गई थी सीखने का समय मेरा हॉस्टल में बीता। और मैंने वो सब सीख
लिया जो घर में सम्भव नहीं हो सकता था। बेटी को माँ और नानी के
एक साथ रहने का फायदा ही फायदा था। लाड़ प्यार दुलार। वह तो
नानी की भी दोस्त बनती चली गई। इसलिए बदलते समय के पाठ सीखने
में उसे मुश्किल नहीं हुई। हम माँ बेटी उन पाठों से अनभिज्ञ
आपस में छोटी छोटी बातों में लड़ पड़ते, कारण बनती बेटी। बेटी का
मोह मुझे माँ से लड़ाने के लिए मजबूर करता। मैं भविष्य नहीं देख
पाती। उस समय माँ समझाती तब भी वह कहानी भूली रही जिसमें बहू
के द्वारा सास ससुर को प्रताड़ित करते देख उसके बेटे ने आधा
कम्बल रख कहा था जब मैं बड़ा होऊँगा तब मेरी माँ के काम आयेगा।
मैं भूल गई थी न्यूटन का सिद्धान्त। मैं भूल गई थी सारे कथन
कहावतें मुहावरे। सब कुछ भूल गई थी यहाँ तक कि अपना खुद भी।
अपना अस्तित्व भी। बस याद रहा तो अपनी बेटी का बढ़ना उसको और
ज्यादा परिष्कृत करना। मुझे उसके अलावा कुछ नहीं दिखता। मैं तो
समय तक को भूल गई थी। पीछे छूट गया था मेरे लिए मेरा समय।
मैं उसकी उँगलियाँ पकड़े बीस साल तक हवा में हवा से आगे चलती
रही। कष्ट वष्ट कोई आया भी होगा तो उड़ गया होगा कहीं। महत्वहीन
हो गई थी दिनचर्या। केवल याद रही एक बात इसे कैसे बेस्ट
परफैक्ट बनायें। हमारी सोच एक एक कदम एक दूसरे को बढ़ाती चलती
रही। उसकी सहेलियों से लेकर मेरी सहेलियों तक की वो चहेती बेटी
बन चुकी थी। विनी...विनी स्वर गूँज उठा था पूरे मोहल्ले में।
सबकी लाड़ली दुलारी। रिश्तों को आत्मीयता से निभानेवाली। आज इसे
क्या हो गया। क्यों यह मुझसे इस तरह का व्यवहार कर रही है।
क्या है यह? असुरक्षा। क्या है आखिर? मैं सोच नहीं पा रही हूँ।
मेरी बेटी ने आज पूरी तरह से नाल काट दी है मेरी। दर्द महसूस
करने का समय कहाँ है मेरे पास...। मेरी बेटी को तकलीफ है शायद
जिसे वह कह नहीं पा रही। इस समय उसका ध्यान अपने दुध-मुँहें की
तरफ नहीं है। वह तो बाहर प्रेम में अपने नाना के साथ घूमने गया
है। क्या इसे अपनी नाल अपने बच्चे से जुड़ी रखने में पुरानी नाल
का काटना जरूरी लग रहा है।
एक औरत बेटी माँ बहन और तरह तरह के रिश्ते निभाते निभाते थक गई
है शायद। शायद टूट गई है वह। क्या वह भी अब रिश्तों में अभिनय
को दाखिला देना चाहती है। मैं सोच रही हूँ। ठीक ही कर रही है
शायद यह। आजकल की लड़की बनने के लिए इसे मोह और भ्रम के जाल से
निकलना होगा। आपकी उम्र की औरतों की तरह। अपने सपनों को दिन
में ही देखते रहने की, उनमें जीते रहने की फुरसत नहीं होगी बटन
दबाओ और इंटनरनेट के बिकते सपनों में खो जाओ "सपने के सपने और
ज्ञान का ज्ञान।" बटन दबाओ और टी.वी. चैनलों में खो जाओ। कितनी
विविधता आ गई है स्त्री के जीवन में। हाथ में बेलना वाली
स्त्री तो अब किसी की कल्पना या कार्टून में भी नहीं आती। अब
तो स्त्री ही नए भौतिक जगत का परिचय करा रही है। चाहे सुन्दर
को और सुन्दर बनने की चाहत हो, कौन सा साबुन लगायें, कौन सा
तेल खायें, चाय, कॉफी के ब्रैंड बताती औरतें हर जगह। हर कदम पर
सलाह देती औरत का रूप देखकर कहीं अपने अस्तित्व के बड़े फलक पर
उमड़ आने का ख्याल भी होगा। अच्छा है बेटी के शब्द में दुख शब्द
का समावेश नहीं हो पायेगा। और बहुत सी चीजें हैं उसे भरमाने के
लिए। अंदर से कहीं मैं बहुत बहुत खुश हो रही हूँ। बेटी को
इक्कीसवीं सदी के लायक बनते देख रही थी। फिर दुख भी हुआ
रिश्तों की परिणति देखकर। माँ के लिए यह रवैया... यह मनोभाव।
ज्यादा से ज्यादा क्या होगा, इसके साथ भी देखने वालों का
रिश्ता रह जायेगा। उसके आहत करने के भाव से तकलीफ हो रही थी
आहत होने से नहीं।
बढ़ती उम्र का फायदा भी तो है जिगरा जरा बड़ा हो जाता है। माफ
करने की, क्षमा माँगने की क्षमता बढ़ गई है। अपने बच्चों से ही
तो सीखा है सब। अपनी माँ का कहा एक वाक्य हमेशा याद रहता है
"जैसा करोगे वैसा भरोगे" शायद यही वाक्य मुझमें एक डर भी पैदा
करता रहा। कुछ भी गलत न हो जाये मुझसे इसलिए सतर्क भी करता
रहा। बहुत याद करती हूँ क्या ऐसा गलत किया कि मेरी बेटी
ही...कहीं धुँधला सा याद आ रहा है...एक बार कुछ ऐसा हुआ तो था।
अम्मा का चेहरा याद आ रहा है...कहता हुआ...अरे जिस लड़की के लिए
तुम मुझसे लड़ीं, जिसके लिए तुमने मेरी परवाह नहीं
की
वही...अरे वही बिटिया, यही लड़की तुम्हें ऐसे दिन दिखायेगी कि
तुम तो रो भी नहीं सकोगी। वो मुझे आज दिखाई पड़ रही हैं
दुर्वासा मुनि की तरह "शकुन्तला, जिसके ध्यान में तू खोई है
वही भूल जायेगा तुझे एक दिन।"
मुझे लगा मैं कैरम खेल रही हूँ लेकिन उसके खेल से अनभिज्ञ हूँ
अपनी गोटी डालने की फिराक में मैंने सामने की तरफ जोर से
स्ट्राइकर मारा, स्ट्राइकर ने टकराकर पलटवार किया और पीछे लगा।
वहाँ गोटी नहीं थी मेरा हाथ था। |