जी,
हमें बताना पड़ता है कि हमारा शहर भी एन सी आर
(राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) में ही है। आपका भी क्या
दोष? दिल्ली, गुड़गाँव, नोएडा की नियान लाईट वाली
चमक-दमक में यह शहर पीछे जो छूट गया। बिजली के सामान,
ट्रैक्टर, जेसीबी, कल-पूर्जे बनाने वाले कारखानों के
शोरगुल के बीच लोग यह भूल ही गए हैं कि दिल्ली के
इतिहास की रचना करनेवाला सूरजकुंड की सादगी और
फरीदाबाद की रंगीनियत का अलग ही मिज़ाज है! आधुनिक
‘मेट्रोपोलिस’ बनने की होड़ में हमारा शहर थोड़ा पीछे
जरुर है, लेकिन सूरजकुंड मेले में नगाड़े की धुन पर
लोक-कलाकारों संग नाचने पर आप मजबूर न हो जाएँ तो फिर
कहिए।
मेले से याद आया, हर साल की तरह १ से १५ फरवरी के बीच
सूरजकुंड मेले में देश-विदेश की कलाकृतियों और
लोक-कलाकारों का जमघट होता है। मौका हो, तो आइए घुमने।
बदरपुर बॉर्डर (दक्षिणी दिल्ली) से सटा ही तो है। इसी
बहाने तोमर राजा अनंगपाल सिंह का गाँव, उसका बनवाया
डैम और सूर्य मंदिर के अवशेष भी देख लेंगे। यमुना की
लहरों और अरावली की वादियों के बीच यहीं तो गुर्जर
राजाओं ने ७३६ ई. के करीब राजधानी बसाई थी! फिर उसके
वंशज महरौली चले गए, और दिल्ली आबाद होने लगी।
चलिए, इतना कष्ट उठाकर आप आए हैं इसके लिए शुक्रिया!
दुआ-सलाम, फिर महानगरीय जिंदगी के दर्द और रोजाना
ट्राफिक की दास्तान। सुविधा के साधन से होने वाली
असुविधा!
-मेट्रो से आए?
-नहीं, महरौली-बदरपुर रोड से। ... बहुत जाम था।
-नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से केंद्रीय सचिवालय, फिर
मेट्रो की वायलेट लाईन ले लेते। (मैं जतलाना चाह रहा
था- हमारा शहर भी आधुनिकता की सवारी करने लगा है)
-अब केजरीवाल के ओड-इवेन फार्मूले से प्रदूषण कितना कम
होगा, देखते हैं।
-दिल्ली के पास थोड़े बचे हुए जंगल तो काटे जा रहे हैं,
और नए–नए फार्मूले बनाते हैं!
-एक कहानी सुनी थी सीढ़ी और कौए वाली। सुनाऊँ?
एक व्यक्ति के घर के छप्पर पर खाने की कोई चीज रखी थी।
एक कौआ, साथ ही लगी सीढ़ी से फुदकते हुए उसे लेने ऊपर
चढ़ा। सीढ़ी हटाकर उस भले आदमी ने कौए से बोला- देखूँ,
कैसे नीचे उतरते हो। यही हाल इन नेताओं का है। एन सी
आर में डीज़ल और किरासन तेल से चलने वाली गाड़ियाँ ऐसे
ही दौड़ती रहीं, तो धुएँ को क्या दिल्ली बॉर्डर पर रोक
लोगे? मजाल है कि फरीदाबाद के किसी चौराहे के
बीचों-बीच पार्क किए और धुआँ छोड़ते गाड़ीवाले ‘गुज्जर
बॉय’ से कुछ बोल दें आप!
-चलें? सुनकर, मेरा गुस्सा गुर्जर-गाथा से बाहर आया।
सूरजकुंड- बढखल रोड पर पब्लिक ट्रांसपोर्ट की गाड़ियाँ
कम ही चलती हैं इसलिए पूछा- कोई आटो रिजर्व कर लें?
फटफटिया टाईप टेम्पो की सवारी अगर पसंद न हो तो कार भी
ले सकते हैं। थोड़ा महँगा पड़ेगा।
एनएच-२ पर चलते हुए बातचीत का दौर शुरू हुआ-
आगरा से लाहौर सफ़र करते हुए जहाँगीर ने इतना ख्याल रखा
कि यहाँ प्याऊ, सराय और कोसमीनार बनवाए ताकि आपको
दिक्कत न हो और आप हैं कि दिल्ली से मथुरा-आगरा जाते
हुए जल्दीबाजी का बहाना कर यहाँ रुकते भी नहीं। कभी
थोड़ी देर रूकिए तो सही! मुज्जेसर, सेक्टर २९ और कनिष्क
रेजिडेंसी (सराय-ख़्वाजा) की कोसमीनारें बताएँगी कि
दिल्ली हमसे दूर नहीं।
१६०७ ई. में सड़क–ए–अजीम (ग्रैंड ट्रंक रोड) के किनारे
मवाई गाँव– भीम बस्ती के पास जहाँगीर के एक खजांची शेख
फरीद ने एक क़स्बे को बसाया। शायद, सोचा होगा कि शहर
में उसकी बनवाई मस्जिद का कोई नमाज़ी या तालाब किनारे
सैर करनेवाला कोई शख़्स पास ही बने उसकी क़ब्र पर फ़ातिहा
पढ़ने आएगा। क्या पता था, इसके वासिंदे फ़िकर-ए-जिन्दगी
में सुबह-व-शाम मगशूल हो जाएँगे। वक़्त की रफ़्तार में
जिंदगी ऐसे गुज़रेगी कि अपनी ही सुध–बुध न रहेगी,
उन्हें कौन याद करेगा। तालाब रोड पर गोपी कालोनी (ओल्ड
फरीदाबाद) में शेख फरीद का मक़बरा अपने शहर के आगंतुकों
का इंतजार कर रहा है।
जाड़े का मौसम है। असोला- भाटी के जंगल घूमने और
पक्षी-दर्शन के लिए मनोहर दिन।
फरीदाबाद की खासियत है- मन करे तो जंगल के बेर, थक
जाएँ तो मौल की सैर। पक्षियों का कलरव सुनना हो तो
सुबह लीजर-वैली पार्क या रोज़ गार्डेन और शॉपिंग माल
घूमना हो तो शाम को मथुरा रोड। हरियाली भरा गाँव देखना
हो तो नहर-पार और कोहरे में लिपटा शहर की खूबसूरती का
नज़ारा लेना हो तो मेट्रो की सवारी। असोला वन्यजीव
अभयारण्य भी यहीं है, तो प्रकृति अवलोकन के लिए कहीं
और क्यों जाना?
मथुरा रोड पर एनएचपीसी चौक से मुड़कर आगे बढ़ा ही था कि
ग्रीनफील्ड में शांत सा दिखनेवाला‘बाल-ग्राम’परिसर नज़र
आया। ध्यान गया उस समाजसेवी पर, जिसने अनाथ-असहाय
बच्चों को माँ, भाई-बहन, घर और गाँव दिलाने के लिए
अपनी जिंदगी लगा दी।
हरमेन माईनर- १९१९ में जन्मा एक ऑस्ट्रियन। द्वितीय
विश्व-युद्ध की विभीषिका के शिकार अनाथ बच्चों को उनका
अधिकार दिलाने के लिए उन्होंने ‘एस ओ एस बाल-ग्राम’की
स्थापना की। १९४९ में इम्स्ट (ऑस्ट्रिया) से शुरू होकर
यह स्वयंसेवी संस्था आज दुनिया के १३३ देशों में
सेवारत है। भारत में पहला बाल-ग्राम ग्रीनफील्ड,
फरीदाबाद में पद्मश्री स्वर्गीय जगन्नाथ कौल के प्रयास
से स्थापित हुआ। १९६८ में बना यह बालग्राम आज २०० से
अधिक असहाय बच्चों का घर है।
पास ही, आचार्य श्रद्धाननंद द्वारा १९१६ में स्थापित
‘गुरुकुल इंद्रप्रस्थ’है जो कभी आजादी के दिवानों का
केंद्र हुआ करता था। नेताजी, गाँधीजी, लालजी और
जयप्रकाश नारायण जैसे विभूतियों का यहाँ आना-जाना लगा
रहता था। ‘शहीद स्मृति संग्रहालय’ में उनकी कुछ यादें
सँजोकर रखी हैं।
बातों बातों में हम सुरजकुंड पहुँचे। अरावली पहाड़ियों
में मिलनेवाले क्वार्टजाईट पत्थरों को तराशकर बनवाया
गया सूर्य मंदिर, विशाल कुंड और अनंगपुर डैम आजकल
भारतीय पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है। राजहंस होटल
के निकट ‘सूरजकुंड अवशेष’ देखने का प्रवेश-शुल्क के
पाँच रूपए लेने को कोई नजर तो आता नहीं। चलिए, यों ही
सैर कर लेते हैं।
कहते हैं, १० वीं सदी में जब यह कुंड बना था तो हमेशा
पानी से भरा होता था। बरसात में भी अब यह सूखा ही
दिखता है। यहाँ से थोड़ा दक्षिण और एनएचपीसी कालोनी से
१ किलोमीटर पश्चिम अनंगपुर में बना बाँध थोड़ी अच्छी
अवस्था में है। पानी के लिए रोज झगड़ते हमारे शहर के
लोगों को शायद पता नहीं, आज से १००० साल पहले तोमर
राजाओं ने पानी के लिए लगभग १०१ मीटर लंबा और २० मीटर
ऊँचा बाँध बनवा रखा है। भू-माफियाओं के कब्जे से उसे
छुड़वाइए तो सही।
हमारा ड्राईवर विनोद अनंगपुर का है। बीच में बोल पड़ता
है- हमारे गाँव में बना ‘माता का मंदिर’देखा है आपने?
हमारे ना करने पर बोलता है- फ्लैटों में रहनेवाले
आपलोग, गाँव कहाँ आएँगे? चुनौती सुनकर, हमलोग
सुरजकुंड-बडखल रोड छोड़ अनंगपुर की ओर मुड़ते हैं।
अनंगपुर चौक से ‘अखिल भारतीय संतमत सत्संग आश्रम’ और
गाँव की गलियों से गुजरते हुए अरावली की सुरम्य
उपत्यकाओं के बीच हरि-पर्वत पर बने ‘दुर्गा-मंदिर’आकर
मन आनंदित हो गया। थोड़ी देर के लिए जीवन के भाग दौड़ को
भूल ही गया।‘सिद्धदाता आश्रम’ में लक्ष्मी-नारायण के
दर्शन कर भी ऐसी शांति नहीं मिली ।
भूख लग गयी? चलिए, आपको ओल्ड मार्केट में रघुबर की
मिठाई और गुड्डू की कचौरी खिलाते हैं फिर शहर की सैर
कराएँगे। चाय एनआईटी में पी लेंगे। वहाँ रेहड़ीवाले
सरदारजी दिखे तो ‘सोया-अफ़गानी’ का आस्वादन भी करेंगे।
अरे! आप पहले शख्स हैं जो एनएच और एनआईटी का मतलब पूछ
रहे हैं। एनएच मतलब ‘नेशन हार्ट’ और एनआईटी बोले
तो,‘न्यू इंडस्ट्रियल टाऊन’।
१९४७ के विभाजन में जान-ओ–असबाब लुटाकर पाकिस्तान से
आए हिंदू और सिक्खों को फरीदाबाद ने यहाँ सहारा दिया,
फिर उन्होंने फरीदाबाद को। इसलिए तो यह नेशन हार्ट है!
शहीद भगत सिंह, शहीद सुखदेव और कन्हैया लाल मेहता जैसे
देश के सपूतों के नामवाली सड़कों के बीच बसा है-
एनआईटी! ये देखिए, एनआईटी का गुरुद्वारा और वैष्णो
देवी मंदिर। यह गवाह है उन दिनों का, जब पेट की आग
शांत करने लोग रात-दिन यहाँ पड़े रहते थे। अपने और
परिवार को दुर्दिन से निकालने के लिए बहाया गया पसीना
फरीदाबाद को हरियाणा के इंडस्ट्रियल टाउन के रूप में
स्थापित कर गया। कारखाने लगे, फिर इसे चलाने के लिए
बिहार, उत्तर प्रदेश या ओडिसा के मेहनतकश आए और शहर
आधुनिक तरक्की के दौर में शामिल होने लगा। गुड़गाँव और
नोएडा को कौन जानता था तब!
४०० वर्षों से अधिक पुराना यह शहर दिल्ली के पास होकर
भी सत्ता की तेज रोशनी में नहीं नहाया। मुगलों ने
फरीदाबाद को सराय ही समझा। एतमादपुर (एनपीटीआई के पास)
में बुढ़िया नाले पर बना खूबसूरत‘मुगल ब्रीज’उस वक्त का
गवाह है। मुगलों के दिन लदने पर १७५० ई. के आसपास इस
कस्बे का सितारा चमका। भरतपुर के जाट राजा के करीबी
राव बलराम (बल्लू) को सफदरजंग की निजामी में पड़नेवाले
पलवल और फरीदाबाद का दीवानी अधिकार मिल गया। अच्छे
दिनों का फायदा उठाकर बल्लू ने १७४० में एक किला
बनवाकर अपने नाम का शहर (बलरामगढ फिर बल्लभगढ़) बसाया।
बलराम सिंह के जलवे ज्यादा दिन नहीं रहे। मुगल
नुमाईंदा अक़ीदत खान ने नवंबर, १७५३ में बल्लभगढ़ एवं
पलवल को तहस-नहस कर दिया। १७५६ में पुन: इस शहर को
अहमदशाह अब्दाली के हमले का घाव सहना पड़ा। बाद में,
जाटों ने संगठित ताकत से अपनी सत्ता पुन: हथिया ली।
अगले १०० सालों तक बल्लभगढ़ जाट सत्ता का तबतक एक
केंद्र बना रहा जबतक अंग्रेजों के खिलाफ जंग-ए-आजादी
में हिस्सा लेते हुए अंतिम शासक ‘राजा नाहर सिंह’ शहीद
न हो गए। प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन की विफलता के बाद
फरीदाबाद ब्रिटिस सत्ता के सीधे नियंत्रण में आ गया।
मथुरा रोड पर फल-सब्जी वालों की रेहड़ियों की गंदगी और
मेट्रो- रेल विस्तार कार्य के चलते हमारे मित्र को
बल्लभगढ़ की कहानियाँ झूठी ही लगीं। सचमुच, इसकी भव्यता
का अनुमान करना मुश्किल है। पेशोपेश में पड़े मित्र से
मैंने कहा- खूबसूरत से दिखने वाले गेट से थोड़ा अंदर तो
आइए। राजस्थानी शैली में लाल पत्थरों से बना भव्य किला
एवं छतरी अपने सुनहरे दिनों की कहानियाँ सुनाएँगे। आप
चाहें तो हरियाणा पर्यटन के राजा नाहर सिंह हेरिटेज
होटल में रात गुजार सकते हैं। सरकार ने १९८१ में
अंतर्रष्ट्रीय मैचों के लिए नाहर सिंह क्रिकेट
स्टेडियम बनवाकर को इस स्वतंत्रता सेनानी को याद रखने
का ज़रिया दिया। स्टेडियम अरावली गोल्फ कोर्स के साथ
बना है।
१५००० से अधिक छोटी, मझोली और बड़ी औद्योगिक इकाइयों के
बीच बैलगाड़ी पर गुड़ की भेली बेचते किसान को देखकर आपको
लगेगा नहीं कि यह शहर हरियाणा को सार्वाधिक आय देता
होगा। कभी मेहँदी निर्यात के लिए प्रसिद्ध रहे
फरीदाबाद को अब हेयर-डाई और शैंपू बेचने से फुरसत
नहीं। फ़रीदाबाद आज जैसा दिखता है वह १९५० के बाद सरकार
की औद्योगिक नीतियों का नतीजा है। छोटी इकाइयों से
शुरूआत करनेवाले फ़रीदाबाद में आज एल एंड टी, एबीबी,
जेसीबी, वुडवार्ड गवर्नर, आयशर, इस्कार्टस, इंपीरियल
आटो, यामा, हेवेल्स, हिंदुस्तान वायर, न्यूकेम,
नार्सिस, गुड़ईयर, व्हर्लपूल, लखानी, बाटा जैसी बड़ी
कंपनियाँ निर्माण कार्य कर रही है। औद्योगिक रोजगार और
हरियाणवी लोगों की उदारता के चलते फरीदाबाद की
जनसंख्या १९६१ में ५६००० की तुलना में २५ गुनी होकर आज
१४ लाख के पार हो गई है। अब इतने लोग होंगे, तो पढ़ाई
और इलाज में शहर पीछे कैसे रहेगा। अच्छे स्कूल,
व्यावसायिक शिक्षा केंद्र और हस्पताल के लिए भी
फरीदाबाद को लोग सराहते हैं।
बल्लभगढ़ से वापस लौटते हुए चर्चा चली टाउन पार्क में
पिछले साल (२०१५) पर लगाए गए देश के सबसे ऊँचे तिरंगे
की। सोचा, २५० फीट ऊँचे स्तंभ पर लहराते भारतीय शान के
प्रतीक को नमन करता चलूँ। यह गगनचुंबी राष्ट्रध्वज
हमारे लिए भले ही कौतूहल का विषय है लेकिन,‘नहर-पार’
बसनेवाले नए फरीदाबादी, सेक्टर १२ के बाबुओं तक अपनी
माँग पहुँचाने इसी तिरंगे के नीचे जमा होते हैं।
स्मार्ट सिटी का सपना बुनते फरीदाबाद के नए वासिंदे
भले ही सरकार को निकम्मेपन के लिए कोसते हों, लेकिन
यही ‘नहरपार’ कभी पांडवों का प्रिय था। जूए में हारे
पांडवों को दुर्योधन ने हस्तिनापुर से दूर यमुना
किनारे पाँच गाँव दिए थे - तिलप्रस्थ (तिलपत),
इंद्रप्रस्थ (इंदरपत), बाघप्रस्थ (बाघपत), सोनप्रस्थ
(सोनीपत) और पानीप्रस्थ (पानीपत)। दिल्ली बसाते समय
अंग्रेजों ने इंदरपत गाँव को उजाड़ दिया, लेकिन तिलपत
गाँव फरीदाबाद शहर के किनारे आबाद है। हजारों साल
पुराना यह ऐतिहासिक गाँव भले ही सेक्टर प्लान का
हिस्सा नहीं, लेकिन वक्त-ए-ताबीर देखिए। इस गाँव के
साथ ही ग्रेटर फरीदाबाद की तक़दीर लिखी जा रही है।
महाभारत काल से लेकर आजतक फीनिक्स पक्षी की तरह इस
धरती का पुनर्जन्म होता रहा है। कई पुराने और नए रंगों
को लेकर यह शहर सबके स्वागत को तैयार बैठा है। शीत काल
में समय न मिले, तो वसंत में आइए। अरावली के जंगलों
में खिलनेवाले पलाश (टेसू) के सुर्ख़ रंग फरीदाबाद में
आपका मन मोह लेंगे। |