सुंदर वृक्षों की खोज
- महेन्द्र सिंह
रंधावा
गुलमोहर
"ढाक या पलाश बूटिया फ्रोंडोसा
का पेड़, फूल वाले वृक्षों में सबसे अधिक भड़कीला वृक्ष है। इसका
दूसरा नाम 'वन की ज्वाला' है। इसके फूलों से लोग पीला रंग
बनाते हैं, जिसे वे होली में आम तौर से इस्तेमाल करते हैं।"
जब मेरी आयु १६ वर्ष की हुई, तब मुझे वनस्पति-विज्ञान की एक
पाठय-पुस्तक पढ़नी पड़ी। इन उद्धृत वाक्यों को छोड़ कर उस पुस्तक
का शेष भाग नीरस था। लेकिन इन वाक्यों ने चिंगारी का काम किया।
इन्होंने मेरी कल्पना में लौ लगायी, और सुंदर फूल वाले वृक्षों
के प्रति मेरे प्रेम की ज्योति जगायी। मेरा लालन-पालन पंजाब के
देहात में हुआ, जहाँ आम तौर पर केवल शीशम, कीकर और फुलाही के
वृक्ष होते हैं। इसलिए मैं भी अपने अधिकांश भाइयों की भाँति
दूसरे प्रदेशों की वनस्पतियों में रंगों की छिपी हुई अमूल्य
निधि से परिचित न था।
नीला गुलमोहर
उत्तरप्रदेश
के फैजाबाद जिले में जब मेरी नियुक्ति हुई तब वहाँ मनमोहक पीले
फूल वाले अमलतास और नारंगी फूल वाले
गुलमोहर से परिचय हुआ। लखनऊ में
मैंने नीले गुलमोहर जैकेरेंडा के गहरे नीले और बड़े सावनी
लैजेरस्ट्रोमिया थोरेली के बैंगनी और जामुनी रंगों की झलक पहली
बार देखी। सुंदर पार्कों और मनोरम उद्यानों के इस नगर में मुझे
हल्के गुलाबी फूलों से ढँके गुलाबी कैसिया नोडोसा का पहली बार
दर्शन हुआ। उसकी सुंदरता पर मैं मुग्ध हो गया। मैंने उसे पहली
बार देखा नहीं कि उसके प्रेम में फँस गया। उसी समय से गुलाबी
कैसिया मेरा अति प्रिय वृक्ष हो गया। वह फूलने पर गुलाब के
फूलों का बड़ा गुलदस्ता-सा लगता है।
ढाक का वृक्ष
जब मैं बाहर दौरे पर जाता था, तब मुझे ढाक के जंगलों में घूमने
का बड़ा चाव था। मार्च के महीने में ढाक के फूलों से लदे वृक्ष
दूर से अंगारों की लपटों के समान दिखायी देते हैं। गेहूँ के
सुनहले खेतों के पीछे इन वृक्षों का दृश्य अति मनोरम प्रतीत
होता है। पत्तियों रहित शाखाओं में हुए ढाक के फूल जलती मशालें
मालूम होते हैं। उस दृश्य को मैं कभी नहीं भूल सकता हूँ।
रोजाना सुबह-शाम जंगल में घूमने के समय मैं घंटो समय इन फूलों
की शोभा देखने में बिताता था। इन वृक्षों ने रेह के भूखंडों को
भी, जहाँ ढाक के सिवाय और कुछ भी नहीं उगता, अनुपम सौंदर्य
प्रदान किया था। कुछ ऊँचे वृक्षों पर बसेरा लेते हुए सफेद
बगुले और उनके पीछे भूमि पर भैंसों के झुंड उस दृश्य को और भी
आकर्षक बना देते थे। सारसों की तीव्र ध्वनि वन की निष्ठुर
नीरवता को यदा-कदा भंग करती थी। जगह-जगह सारस अपनी सुंदर लम्बी
गर्दनों को ऊँचा किये बार-बार अपने गुलनारी सिरों को कभी इधर
और कभी उधर घुमाते हुए घूमते फिरते थे। वे अपनी छोटी-छोटी
आँखों से अपने निश्वास-स्थान में आने वालों को शंका की नजर से
देखते थे। यदि उन्हें थोड़ा-सा भी डर लगता तो वे तुरंत ही अपने
स्लेटी रंग के पंखों को फड़फड़ाते और दूर उड़ जाते थे।
सफेद चम्पक
शांत
रायबरेली नगर में, जो वास्तव में एक
बड़ा गाँव है, मुझे फूल वाले अनेक
वृक्षों के साथ नजदीक से गहरी
जान-पहचान का मौका मिला। इन्हें कुछ
अंग्रेजों ने, जिन्हें वृक्षों से
प्रेम था, अपने बँगलों के अहातों में
लगाया था। ये वृक्ष गदर के बाद के
आँग्ल-भारतीय काल के आरम्भिक दिनों की
यादगार हैं। आजकल ये अनाथ की तरह
जीर्ण-शीर्ण दिखायी देते हैं। मैंने
गुलाबी, जामुनी और सफेद कचनार के
सुंदर फूलों से लदे वृक्ष देखे, जो
अनेक घरों के अहातों की शोभा बढ़ाते
थे। मुझे बहुत से बँगलों के अँधेरे
कोनों में सफेद चम्पक प्लूमेरिया
एल्बा के फूलते झाड़ भी देखने को मिले,
जिनकी तेज खुशबू से वायुमंडल महकता
था। सिविल लाइंस में पतली शाखाओं वाले
सफेद चम्पक के बहुत-से पेड़ लगे थे।
अप्रैल के महीने में ये बड़ी-बड़ी
पत्तियों से ढक जाते और उनके ऊपर
भीनी-भीनी सुगंध वाले हल्के पीले
फूलों के गुच्छे छा जाते थे।
कुटज
एक डिप्टी कलक्टर के बँगले के कोने पर
क्लीनहोविया का सुंदर वृक्ष था, जिसकी
शाखाएँ पान के आकार की पत्तियों से
ढँकी थीं और जिसके कोमल गुलाबी फूलों
के गुच्छों से उस वृक्ष की शोभा कई
गुनी बढ़ जाती थी। मेरे बँगले के
प्रवेश-द्वार पर कुरैया क्रुटज के
वृक्ष लगे थे। अप्रैल के महीने में
उनकी सफेद सुगंधित फूलों से लदी काली
टहनियाँ अति सुंदर और आकर्षक मालूम
होती थीं। उनकी सुंदरता ने मुझे मोह
लिया। उन फूलों की सुंदरता पर मैं
इतना मुग्ध हुआ कि मैं उस व्यक्ति पर
खीज उठा, जिसने इतने सुंदर फूलों को
होलेरैना एंटीडाइसैंट्रिका जैसा
बेहूदा नाम दिया था।
फूल वाले वृक्षों की शोभा के प्रति
अपने देश के लोगों की उदासीनता देखकर
मुझे कुछ कम झुँझलाहट न होती थी।
मालूम नहीं उन्होंने अपने ढाक, कचनार
और सेमल के अनुपम सौंदर्य को कैसे
भुला दिया। फल और इमारती लकड़ी के लिए
बहुत-से लोग वृक्ष लगाते हैं, लेकिन
शोभाकर फूल वाले वृक्ष लगाने की
चिन्ता करने वालों की संख्या बहुत कम
है। फलों के वृक्षों की देखभाल तो
अपने-आप हो जाती है, इसलिए मैंने यह
अनुभव किया कि जहाँ सुंदर फूलों के
वृक्ष लगाने की जरूरत है, वहाँ उन्हीं
को लगाने पर अधिक से अधिक बल देना
चाहिए। इस समय राष्ट्रीय या प्रांतीय
राजमार्गों और नहरों के किनारों पर
लगाये जाने वाले वृक्षों में शोभाकर
वृक्षों के लिए कोई स्थान नहीं है।
लेकिन घरों, पार्कों और सरकारी
इमारतों के अहातों में और नगरों की
सड़कों के किनारे उन्हें उचित स्थान तो
मिलना चाहिए।
शोभाकर
वृक्षों की अवश्यकता
आजकल हमारे देशवासियों में
सौंदर्य-भावना की बड़ी कमी है। इसलिए
जरूरत है शोभाकर वृक्षों को लगाने और
प्रचार करने की। यदि प्रचार में कुछ
अतिशयोक्ति से काम लेना पड़े तो वह भी
क्षंतव्य है। अशोक के समय में और
गुप्त काल में हमारे पूर्वजों की
सौंदर्य-भावना बहुत ही उत्कृष्ट थी।
लेकिन आश्चर्य की बात है कि उनकी
संतानों में उस भावना की बड़ी कमी है।
मैंने विचारा कि यदि घरों और नगरों के
सार्वजनिक स्थानों में शोभाकर वृक्ष
लगाये जाएँ तो वे इस दुःखद अभाव को
मिटाने में समर्थ होंगे। उसका परिणाम
भी अच्छा होगा। अपने को सुसंस्कृत
समझने वाले, विशेषकर पढ़े-लिखे लोगों
की रूचि बहुत कुछ सुधर जाएगी। मैंने
निश्चय किया कि जो लोग हठपूर्वक आँखें
मूँद कर देखना भी नहीं चाहते, उन्हें
इन वृक्षों के सौंदर्य को कई गुना बढ़ा
कर दिखाना चाहिए।
रंगीन फूलों के वृक्षों को रेल्वे
स्टेशनों के प्लेटफार्मों पर और नगरों
की सड़कों के किनारे कतारों में लगाकर,
लोगों को इनकी सुंदरता का प्रदर्शन
कराना चाहिए। अपने-अपने बगीचों में
ऐसे वृक्ष लगाने के लिए लोगों को
प्रोत्साहित करना चाहिए। हमें तो उनके
घरों तक इस सौंदर्य को पहुँचाना है।
मैंने जिले की अदालतों, तहसीलों,
स्कूलों और सड़कों पर बने हुए
सुसम्पन्न व्यक्तियों के बँगलों के
अहातों में इन शोभाकर वृक्षों को
लगवाने का प्रबंध किया था। यद्यपि
मैंने वृक्षों को कभी बढ़ते नहीं देखा
तथापि मैं यह जानता था कि बढ़ने के बाद
उन में एक दिन जरूर फूल खिलेंगे और वे
वृक्ष प्रकृति-सौंदर्य के प्रेम का
मेरा संदेश कम से कम आने वाली पीढ़ी तक
पहुँचाएँगे।
मैंने इलाहाबाद में अपने मकान के लिए
एक जगह खरीदी। उस समय मुझे यह अनुभव
हुआ कि इमारतों के साथ सुंदर वृक्षों
का मेल मिलाने में कितना कठिनाई होती
है। वहाँ ऐसे वृक्ष लगाने चाहिए जो हर
महीने रंग-रंग के फूल देते रहें। अपने
इस उद्देश्य को पूरा करने में मुझे
अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा,
जिन्हें मैंने हल करने की कोशिश की।
मैंने अनुभव किया कि ऐसे बहुत-से लोग
हैं, जो अपने लिए घर बनाने के इच्छुक
हैं और वे यह जानना चाहते हैं कि वे
अपने घरों को सुंदर बनाने के लिए
कौन-कौन से पेड़-पौधे लगाएँ। उन दिनों
जब मैं इस समस्या को हल करने में लगा
हुआ था, मेरा परिचय श्री मनोहरदास
चतुर्वेदी से हुआ। वह उन दिनों
उत्तरप्रदेश के वन-विभाग में
वन-संरक्षक के पद पर थे। श्री
चतुर्वेदी एक मौलिक विचारक हैं।
सौंदर्य-विज्ञान के क्षेत्र में उनकी
देन उल्लेखनीय हैं। उन के सहयोग से
मैंने उत्तरप्रदेश में वृक्षारोपण
सप्ताह मनाने के सुखद कार्य का
श्रीगणेश किया। वही आगे चलकर श्री
कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के प्रेरक
नेतृत्व में एक राष्ट्रीय पर्व बन
गया। आज वन-महोत्सव देश के कोने-कोने
में बड़े उत्साह से मनाया जाता है।
अशोक
असली
अशोक, सरैका इंडिका का वृक्ष आजकल
उत्तर भारत में अति दुर्लभ है।
सामान्यतः उसी से मिलते-जुलते एक अन्य
वृक्ष, पोलिएल्थिया लोंगीफोलिया, को
वहाँ के लोग अशोक कहते हैं, जिसका
मस्तूल जैसा छत्र होता है और जिसमें
हल्के हरे फूल लगते हैं। उसे
उत्तरप्रदेश में घरों के अहातों और
बगीचों में आम तौर से लगाते हैं।
कुषाण-मूर्तियों में चित्रित और
कालिदास द्वारा वर्णित लाल फूल वाले
अशोक को बहुत कम लोग जानते हैं।
अमृतसर के रामबाग में इसका केवल एक
पेड़ है। असली अशोक के कुछ वृक्ष लखनऊ
नगर में भी देखने को मिलते हैं। अशोक
के वृक्ष में यदि फूल न लगे हों तो वह
लीची के वृक्ष के समान दिखायी देता
है। अशोक और लीची की पत्तियाँ आपस में
इतनी अधिक मिलती हैं कि सरसरी तौर से
देखने वाला कोई भी व्यक्ति उनको
पहचानने में गलती कर सकता है। यदि
अशोक का वृक्ष फूलता हो तो उस को
पहचानने में इस तरह की गड़बड़ी नहीं हो
सकती क्योंकि इस प्रकार के सुंदर फूल
वाला कोई अन्य वृक्ष कठिनाई से
मिलेगा। मैंने लखनऊ के एक बँगले में
जब मूँगे-से लाल फूलों से लदे अशोक के
वृक्षों का एक कुंज देखा, तब अपनी इस
नवीन खोज से मैं फड़क उठा। अशोक की
शाखाओं पर आम जैसी गहरी हरी पत्तियों
के बीच बाहर फूट कर निकलते हुए लाल
रंग के फुलों के गुच्छे देख कर मुझे
बड़ी प्रसन्नता हुई। उस समय मैंने
अनुभव किया कि प्राचीन काल में
भारतवासी क्यों इस वृक्ष-विशेष का
इतना अधिक आदर करते थे। यह वृक्ष उनके
मंदिरों के बगीचों की शोभा था, और
उनके कवियों और शिल्पकारों को इससे
शृंगाररिक विषयों की प्रेरणा दिखती
थी।
कदम्ब
कदम्ब
के वृक्ष की खोज में मुझे बड़ी कठिनाई
हुई। बड़ी खोज-बीन करने पर मुझे
रायबरेली जिले में एक ताल्लुकेदार की
हवेली के अहाते में कदम्ब का एक सुंदर
वृक्ष देखने को मिला। वह अति शोभाकर
वृक्ष था। उस का छत्र फैला हुआ था। उस
की पत्तियाँ चौड़ी और चमकीली थीं, और
उनके बीच-बीच में गोल बड़े-बड़े फूलों
के लड्डू, मीठे लड्डू, जिनकी चर्चा
भगवान् कृष्ण की कथाओं में मिलती है,
लटक रहे थे। आज से लगभग २००० वर्ष
पहले वृंदावन में कदम्ब के विस्तृत
हरे-भरे जंगल थे। महाभारत में उन का
जिक्र है। लेकिन आजकल मथुरा और भरतपुर
के बीच में कदम्ब के केवल थोड़े-से
वृक्ष उन विशाल जंगलों में अवशेष हैं।
पीपल
पीपल,
बोधि वृक्ष, ज्ञान का प्रकाश देने
वाला वृक्ष है। गौतम ने इसी वृक्ष की
शीतल छाया में बुद्धत्व दान किया था।
भरहुत-मूर्तियाँ अशोक-काल की हैं। उन
से मालूम होता है कि उस समय तक
बौद्धों द्वारा बुद्ध के स्थूल रूप की
पूजा आरम्भ नहीं हुई थी।
ई॰ वी॰ हावैल एक स्थान पर लिखते हैं,
"ये सभी पदार्थ बौद्ध धर्म के सूचक
हैं, परंतु बौद्ध धर्म के प्रतीक होते
हुए भी इन में बुद्ध के स्थूल रूप के
चित्रण का आभास नहीं मिलता। इन में
कहीं भी न तो अवतारी पुरूष, सन्यासी,
के रूप में बुद्ध की पूजा दिखायी देती
है और न वे सन्यासी के रूप में ही
दिखाये गये हैं। जो मानव और पशु दोनों
की श्रद्धा के भाजन हैं, वे हैं धर्म
के प्रतीक पवित्र पदचिन्ह और
बोधि-वृक्ष, जिन में बुद्ध का आवास
है, परंतु वे स्वयं बुद्ध नहीं हैं।"
इन मूर्तियों में हम देखते हैं कि
भक्तगण पीपल की पूजा कर रहे हैं, और
अप्सराएँ उस पर फूलों की मालाएँ चढ़ा
रही हैं। आम की फलों से लदी शाखाएँ और
अशोक की फूलों से भरी टहनियाँ पीपल को
चारों ओर से घेरे हैं। भारत के पूर्व
इतिहास में पीपल की जो धार्मिक
पवित्रता मानी जाती थी, वह इस आधुनिक
युग में भी जैसी की तैसी बनी हुई है।
इस वृक्ष की पवित्रता को लेकर, अगस्त,
१९४७ के पहले, अनेक बार साम्प्रदायिक
झगड़े हुआ करते थे।
हिंदू पीपल के वृक्ष को क्यों इतना
पवित्र मानते हैं? यह प्रश्न मुझे
प्रायः उधेड़-बुन में डाल देता था।
गाँव के तालाब के पास लगा हुआ पीपल का
वृक्ष मनोरंजक गोष्ठी के लिए अच्छी
जगह है, जहाँ गाँव के लोग दोपहर के
बाद मनोरंजन के लिए जमा होते हैं।
ग्रीष्म ऋतु में कड़ी धूप से व्याकुल
पथिक उस की शीतल छाया में विश्राम
करते हैं। बड़े-बूढ़े बातचीत करने के
लिए वहाँ आ बैठते हैं। लड़के उसकी ठंडी
छाया में बैठकर दोपहर के बाद तालाब
में नहाती हुई अपनी भैंसों की निगरानी
करते हैं। एक बार अप्रैल के महीने में
होशियारपुर जिले की शिवालिक पहाड़ियों
में स्थित भरवाई के बँगले में ठहरा
हुआ था। पूर्णिमा का चाँद सुआ घाटी पर
अपनी रूपहली चाँदनी फैला रहा था।
बँगले के एक कोने में एक वृक्ष लगा
था। उसकी पत्तियाँ चाँदनी में सोने के
दीपों के समान चमक रही थीं। ये किसी
और वृक्ष की नहीं, पीपल के वृक्ष की
ही नयी ताम्रवर्णी पत्तियाँ थीं, जो
चाँदनी में अप्सराओं के दीपों की तरह
झिलमिला रही थीं। फिर सवेरा हुआ और
पीपल की ओट से निकलते हुए अप्रैल के
प्रचंड सूर्य ने उन पत्तियों के ताँबे
को तरल सोने के रूप में बदल दिया। तब
मैंने इस बात का अनुभव किया कि
प्राचीन हिंदू कवि के इस कथन में कोई
अतिशयोक्ति नहीं हैं कि पीपल की जड़
में ब्रह्मा, तने में विष्णु और
पत्ते-पत्ते में देवताओं का वास है।
भरहुत, साँची और मथुरा की मुर्तियों
के सौंदर्य को देख कर प्राचीन हिंदु
और बौद्ध वाटिकाओं में मेरी रूचि और
बढ़ गयी। उनसे प्रेरित होकर मैंने
कालिदास, अश्वघोष और वात्सायन के
कामसूत्र से परिचय प्राप्त किया।
कालिदास
के प्रिय वृक्ष
मुझे यह जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि
वृक्षों के सम्बंध में कालिदास का
ज्ञान कितना विस्तृत था। कालिदास
प्रकृति के उत्कट प्रेमी अवश्य रहे
होंगे, जिन्होंने वृक्षों की दशाओं का
इतनी सूक्ष्मता से निरीक्षण किया।
उन्होंने मध्यभारत के नर्मदा के
तटवर्ती वनों से लेकर हिमालय के
गंगोत्री तक के जंगलों में अवश्य ही
भ्रमण किया होगा। हिमालय में उन्होंने
चीड़ और देवदार के वृक्षों की शोभा
अवश्य देखी होगी। सुंदर फूल वाले
वृक्षों के विषय में हिंदू-काव्यों और
प्राचीन वन-गीतों के अध्ययन से वे
वन-दृश्य मेरे सामने नाचने लगे, जिनके
वातावरण में हमारे ऋषि और
वन्य-कन्याएँ अपने प्रिय वृक्षों का
लालन-पालन करती हुई निवास करती थीं।
जब मैं कालिदास की विज्ञता से वर्तमान
पीढ़ी के उन लोगों की अनभिज्ञता की
तुलना करता हूँ, जिन के लिए प्रत्येक
वृक्ष एक पेड़ है, प्रत्येक पक्षी एक
चिड़िया है और प्रत्येक वनस्पति एक
बूटी है, तब मैं कभी-कभी सोचने लगता
हूँ कि उन्नति की ओर बढ़ने की अपेक्षा
क्या हम अवनति की ओर नहीं जा रहे हैं?
भारतीय मूर्तिकला में वृक्ष
मैंने
प्राचीन काल के वृक्षों के विषय में
जानकारी प्राप्त करने की चेष्टा की।
लखनऊ संग्रहालय के अध्यक्ष, श्री
वासुदेवशरण अग्रवाल, ने मुझे कुषाण
कालीन कुछ सुंदर मूर्तियाँ दिखायीं,
उनसे मुझे प्राचीन बौद्ध मंदिरों की
वाटिकाओं का भी संकेत मिला। अशोक,
कदम्ब और चम्पक फूलों से क्रीड़ा करती
कुषाण-यक्षणियों को देखने से मुझे इस
बात का बोध हुआ कि प्राचीन काल में
हमारे पूर्वज शोभाकर वृक्षों से कितना
प्रेम करते थे। मुझे उन मुर्तियों में
आज से लगभग २००० वर्ष पूर्व की कृष्ण
और गोपियों की भूमि, वृंदावन, की
जलवायु का भी संकेत मिला। मुझे यह सोच
कर दुःख होने लगा कि जिस देश में कभी
अशोक और कदम्ब के घने जंगल लहलहाते
थे, वहीं आज वृक्षों के विनाश से
मरुस्थल बनता जा रहा है।
भरहुद और मथुरा की मुर्तियों में अशोक
और कदम्ब के आश्चर्यजनक वास्तविक
चित्रण के साथ अंकित 'नारी और वृक्ष'
सम्बंधी भाव ने इन वृक्षों को फूलते
हुए देखने की मेरी लालसा और तीव्र कर
दी।जिस कलात्मक प्रेरणा ने भारत को
भरहुत, साँची और मथुरा की सुंदर
मूर्तियाँ, अजंता के रंगीन
भित्तिचित्र, नालंदा और तक्षशिला के
मंदिरों की वाटिकाएँ और अश्वघोष और
कालिदास का साहित्य प्रदान किया, वह
सातवी शती के अंत तक प्रायः लुप्त हो
गयी। उस के पश्चात की कला–कृतियों में
हमें कहीं पर भी अशोक-वृक्षों और
सुंदर कन्याओं का उल्लेख नहीं मिलता
और न कहीं हमें उस प्रेरणादायिनी कला
के दर्शन मिलते हैं, जिसकी विश्व-भर
के सौंदर्य-प्रेमियों ने भूरिभूरि
प्रशंसा की है।
सुंदर वृक्षों की खोज
अंततः
मेरे लिए सुंदर वृक्ष की खोज, जीवन
में सौंदर्य की खोज अथवा यों कहिए कि
जीवन-सौंदर्य की खोज हो गयी। मैं
लोगों के घरों की भीतरी सजावट का
अध्ययन करने लगा। इस दृष्टि से मैंने
सुसंस्कृत अग्रेजों और विभिन्न श्रेणी
के भारतीयों के घरों का निरीक्षण
आरम्भ किया। एक सुसंस्कृत अंग्रेज की
गम्भीर और परिष्कृत रुचि, घर की भीतरी
सजावट के लिए मेज-कुर्सियों और अन्य
पदार्थों का चुनाव, और उनकी क्रम से
सजावट स्पर्धा के योग्य थी। दूसरी ओर
एक सामान्य मध्य श्रेणी के भारतीय घर
में सुरूचि और सौंदर्य-भावना की कमी
ने मुझे बहुत ठेस पहुँचायी। तब मैं
सुंदर घर की खोज करने लगा। मेरे
मस्तिष्क में रह-रह कर यही विचार उठता
उठता था कि क्या मुझे भारत में कोई
ऐसा घर देखने को मिल सकता है, जो
विशुद्ध देशी सामग्री से
सौंदर्य-सिद्धांतों के अनुरूप सजा हो?
एक बार मैं शांतिनिकेतन गया। वहाँ
मैंने रवीन्द्रनाथ ठाकुर के निवास-गृह
में यह समन्वय पाया। उस गृह को उन के
पुत्र रथीन्द्रनाथ ने, जो स्वयं एक
कुशल माली और सौंदर्य-प्रेमी हैं,
सुरूचिपूर्ण ढंग से सजाया था। उनके इस
छोटे वाटिका-गृह के साथ एक सुंदर
बगीचा है, जिसमें रंगीन फूलों वाले
लगभग सभी प्रकार के भारतीय पेड़-पौधे
लगे हुए हैं। इस वाटिका-गृह को देखकर
मुझे अतीव आनंद हुआ। यह एक ऐसा स्थान
है, जहाँ कोई भी व्यक्ति शांत वातावरण
में जीवित सौंदर्य के साक्षात् दर्शन
कर सकता है। वृक्षों की शोभा, प्रकृति
के मनोहर दृश्य, वर्षा की सुहावनी
झाड़ियाँ, निर्मल मन से उत्पन्न मानवता
का सौंदर्य, प्रकृति और मानव-मन के
संयोग से उत्पन्न विशुद्ध संस्कृति का
प्रमाण-चिन्ह, सभी कुछ तो यहाँ सुंदर
था।
मुझे कुछ गाँववालों के कच्चे घरों में
भी सौंदर्य की झाँकी दिखायी दी। बड़ी
सावधानी से लीप-पोत कर दीवारों को वे
स्त्री-पुरूषों और पशुओं के भावपूर्ण
चित्रों से सजाते हैं, जिन से लोक-कला
की खोज में गाँव-गाँव घूमने वाले
हमारे कुछ आधुनिक चित्रकारों को बड़ी
प्रेरणा मिलती है। मैंने काँगड़ा घाटी
में किसानों के कच्चे घरों में
वास्तविक सौंदर्य पाया। यहाँ मकानों
के समूह धरती में से निकलते हुए-से
दिखाई देते हैं, मानो घाटी में उगे
कैथ के समान वे भी धरती माता ही के
लाल हैं।
अंततोगत्वा इस सुखद खोज से मैं इस
परिणाम पर पहुँचा कि वाटिका-विज्ञान,
वास्तु-कला, घरों की आंतरिक सजावट और
संगीत के मूल सिद्धांत- लय, समरसता और
संतुलन, वास्तव में एक ही हैं।
सम्भवतः धर्म के मूल सिद्धांत, जो
वास्तव में आंतरिक जीवन की कला का नाम
है, ये ही हैं। व्यक्ति के जीवन में
समरसता होनी चाहिए। घर और वाटिका
मानसिक समरसता में योगदान करते हैं।
समरसता व्यक्ति को जीवन के छोटे-मोटे
कंटकों की उपेक्षा करते हुए और क्षोभ
उत्पन्न करने वाली साधारण बातों को
हँस कर टालते हुए सत्य के प्रकाश में
जीवन-यापन करने से प्राप्त होती है।
ऐसा व्यक्ति असार का त्याग करके सार
को ग्रहण करता है और इस तथ्य पर
पहुँचता है कि ये आधारभूत सिद्धांत ही
सत्य और सौंदर्य के आदर्श हैं। अंत
में सौंदर्य की खोज सत्य की खोज हो
जाती है और वृक्षों की पूजा हमें जीवन
की उपासना की ओर ले जाती है।
जीवन-सौंदर्य का पारखी जीव-दर्शन का
ज्ञाता बन जाता है। जहाँ एक ओर
विज्ञान प्रकृति का मंथन करके सत्य को
निकालने का प्रयत्न करता है, वहाँ
दूसरी ओर, कला सांसारिक पदार्थों में
सौंदर्य की खोज करती है।
जीव-सौंदर्य-शास्त्र में विज्ञान और
कला घुल-मिल जाते हैं, और सत्य और
सौंदर्य के आदर्शों का समन्वय होता
है।
१५ फरवरी २०१६ |