बिना ईश्वर का
देश
-डॉ. गुणशेखर (चीन से)
मेरी पत्नी
यह कहकर स्वदेश चली गई कि यह तो बिना ईश्वर वाला देश है। मंदिर
होते तो उनकी भव्यता देख के पूजा-पाठ करके आरती और घंटे
घड़ियालों के बीच उसका मन रम सकता था। यहाँ बौद्ध मंदिर हैं भी
तो उनमें शोर-गुल नहीं होता। फूल मंदिर के बाहर रखे बड़े-बड़े
पात्रों में रख दिए जाते हैं। अगरबत्तियाँ भी लगती हैं तो
मूर्ति से सैकड़ों फुट दूर रखे पात्रों में। मिठाई तो यहाँ
चढ़ती ही नहीं है। उनके अनुसार मैंने चुना भी तो बिना ईश्वर का
देश।
यहाँ रह-रह कर परिवार बहुत याद आता है जब तक काम में व्यस्त
रहता हूँ मन भटका रहता है और जैसे खाली होता हूँ मन अपने
परिवार और देश में अटक जाता है। आखिर कब तक लिखूँ-पढूँ और
पढूँ-पढाऊँ। कब तक मन को अटकाए-भटकाए रखूँ। अपने और पराए का
अंतर यहाँ बहुत स्पष्ट दिखता है। सड़क भी जैसे भेदभाव करती हुई
मिलती है। लगता है अभी मना कर देगी कि ज़रा हटकर चलो।
पेड़-पौधे जो गले लगने को आतुर बाँहें फैलाए हुए-से मिलते थे।
अब लगता है कि जैसे वही सब बाँहें समेटे सर्द से सिकुड़े हुए
खड़े हों।
बाहर की बहार देखने के लिए भी बाहर के बजाय भीतरी आँखों की
ज़्यादा ज़रुरत होती है। मन प्रसन्न है तो मुरझाए हुए बाहरी
नज़ारे भी हसीन लगेंगे और मन खिन्न हो तो हसीं से हसीं वादियाँ
भी रोनी सूरत बनाए दिखेंगी। इसी उदासी को कम करने के लिए
स्काइप पर पत्नी, बेटे और पोती से बात की। पोती भी अनमनी थी।
बीच में ही उठकर चली गई और पत्नी भी नाराज़ हो गई। उसे लगा कि
मैं उससे बातें कम टाइप ज़्यादा कर रहा हूँ। वास्तविकता भी यही
थी। मेरा ध्यान बातों में कम टाइप करने में ज़्यादा था। मैं
अपनी इसी उदासी को लिपिबद्ध कर रहा था। मेरी उदासी की बात अपनी
जगह सही थी और उसकी नाराजगी अपनी ज़गह। मन का इतना गहर असर
मैंने कई बार झेला ज़रूर है लेकिन तत्काल और प्रत्यक्ष असर आज
ही देखा।
दुनिया भर के देशों के विद्यार्थियों और विशेषज्ञों से
भरा-पूरा परंतु भारतीय विद्यार्थियों और विशेषज्ञों से विहीन
यह विश्व विद्यालय देखकर ऐसा लगता है कि, "भीड़ है क़यामत की
और हम अकेले हैं।" पढ़ने-पढ़ाने के बाद का समय 'एकला चलो रे'
की तर्ज़ पर बीतता है। अगर 'गुरदेव' मिलते तो उनसे पूछता कि
आपका यह 'एकला चलो' लेकर चला तो आया इतनी दूर तक। लेकिन आखिर
कोई कितना चले और कब तक? वह भी 'एकला'। अंततः लम्बे समय समय तक
अकेले और एकांत में पड़ा हुआ मनुष्य मन से दुर्बल अवश्य हो
जाता है। थक कर टूटने अवश्य लगता है।
पता नहीं क्यों, कल से मैं कुछ अधिक उदास हूँ। शरदपूर्णिमा की
तरह यहाँ भी मनाया जाने वाला चीनी मध्य शरदोत्सव पिछले सप्ताह
ही था। उसमें, बच्चों ने बड़े मन से बुलाया था। फिर भी यह
उदासी घेरे हुए थी। सोचा मनहूस चेहरे को लेकर इनके बीच जाना
उचित नहीं, इसलिए बनावटी खुशी का मुखौटा लगाकर उनके द्वारा
निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच इंतज़ार करने लगा। पूर्व निर्धारित
ठीक साढ़े पाँच बजे एक छात्रा जिसने अपने हिन्दी प्रेम के चलते
अपना नाम ही सोनम रख लिया है, मुझे रिसीव करने आ गई। सुन्दर
परी-सी उछलती-मचलती आई उस किशोरी में अपनी ही बेटी-सा अथाह
अपनापन पाकर कुछ पलों के लिए इस अपनेपन में मन भटका रहा।
इस अवसर पर एक पारंपरिक मिठाई खिलाने का रिवाज़ है। इसका नाम
है तैन्गुयान। यह मिठाई मैदे और चीनी के साथ कुछ अन्य पदार्थों
को मिलाकर बनाई जाती है। लेकिन एक ख़ास बात यहाँ के खाने की
वस्तुओं के साथ है कि वे प्रायः सूप युक्त अवश्य होती हैं। इस
मिठाई में भी मीठा सूप था। उसे पीने के लिए एक छात्रा ने
अनुरोध किया। मैंने अनुरोध का आदर करते हुए उसें से एक-दो
चम्मच सूप भी पिया। इसके साथ उनके उस मिष्ठान्न के और लाने के
अनुरोध को बड़ी शालीनता से मन भर जाने की बात कहकर स्थगित करा
दिया। कल लगा कि किसी वस्तु का कम-ज़्यादा स्वादिष्ट होना उस
वस्तु से अधिक हमारी रुचि पर निर्भर होता है। इस वस्तुस्थिति
को मद्दे नज़र रखते हुए मैंने उस 'तैन्गुयान' से अधिक उन
बच्चों के मन की मिठास का आनंद लिया। उनसे अलग होते ही मन फिर
उदासी से भर गया था।
इन बच्चों का भोलापन मुझे बहुत प्रभावित करता है। कभी-कभी यह
लगता है कि इस कयामत की भीड़ में यही बच्चे तो हैं जो पहचान
लेते हैं और दौड़ कर मिलते हैं। दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते करते
हैं। कभी-कभी लगता है कि इन्हें बच्चे क्यों कहता हूँ? ये तो
ग्रेजुएट होने जा रहे हैं, तरुण हैं। लेकिन अगले ही क्षण इनका
भोलापन मुझे सही ठहरा देता है और मैं अपने पूर्व संबोधन
(बच्चे) पर अटल हो जाता हूँ।
इन बच्चों के अलावा यहाँ की एक चीज़ और मेरे नितांत एकांत में
जा-जा कर सम्मोहित करती रही है। वह है यहाँ की बेलौंस
अनीश्वरवादिता। मुझे और मेरे अकेलेपन को बेधती हुई इसकी
आक्रामक किरणें सुबह-सुबह ही उस कमरे में घुस आती हैं, जहाँ
मैं योगासन पर बैठता हूँ। अभी तो मेरे चार कक्षीय विशाल आवास
में पत्थर पर बैठी एक चिड़िया की पेंटिंग के अलावा किसी भी
दीवाल पर एक भी देवी-देवता ने कब्ज़ा नहीं जमाया है। मेरी
धर्मपत्नी के आते ही हनुमान जी, दुर्गा जी और इनके साथ और भी
नेक और अनेक इनके अड़ोसी-पड़ोसी देवी-देवता दीवालों पर
आड़े-तिरछे लेट जाएँगे। कुछ विशेष देवी देवता होंगे वे ड्राइंग
रूम की आलमारी में अपना डबलबेड डाल लेंगे। रोज सुबह आरती
उतरेगी 'ॐ जय जगदीश हरे।'
मैं सोचता हूँ, ये बड़े समझदार हैं। इन्हें तो नीत्से की तरह
ईश्वर को मारने की भी तकलीफ़ नहीं उठानी पड़ी। जिसे पैदा ही
नहीं किया गया उसके मरने या मारने की चिंता किसे होगी? सारे
धर्म कहते हैं कि इंसान को ईश्वर ने बनाया और पता नहीं क्यों
मुझे इस पर यकीन ही नहीं होता। मुझे बराबर यही लगता रहा है कि
ईश्वर को इसी इंसान ने बनाया है। सबसे पहले उसने इस ईश्वर को
अपने कबीले के सरदार को बेचा फिर राजा को। बहुत बाद में इसकी
बोली लगी और यह धर्माधिकारी के हाथ बिका। बोली मँहगी छूटी थी।
इसलिए इसके नाम की हुंडियाँ कटने लगीं। इसे स्वर्ग और नरक का
आवंटन-कर्ता बना दिया गया। तब से लेकर आज तक यह लौट कर किसी
राजा के कब्जे में नहीं जा पाया और आज भी यह स्वर्ग-नरक की
पर्चियाँ काट-काट कर अपना पेट पाल रहा है। यहाँ आने और अनीश्वर
वादियों से मिलने से मेरा यह विचार और पुष्ट हुआ है। यहाँ की
अधिकांश आबादी अनीश्वरवादी है। उनका कोई कृत्रिम धर्म है ही
नहीं। हाँ, उनका प्राकृतिक धर्म अवश्य है। उसे वे बखूबी निभा
रहे हैं। यहाँ संतानें ईश्वर की नहीं माता-पिता की देन हैं।
लेकिन यह देन राष्ट्र हित में एक तक ही सीमित है।
धर्म पर विचार करते समय मैं प्रायः धर्म संकट में फँसा हूँ। यह
धर्म संकट यहाँ और भी गहरा गया है। तथाकथित धर्म के ठेकेदार
ऐसों को नास्तिक कहते हैं। कहने के लिए श्रम को धर्म मानने
वाले इन श्रम-पूजकों को हम भी नास्तिक कह सकते हैं। लेकिन किसी
पर हम यह नाम क्यों थोपें? इनके लिए प्रकृति ही प्रभुसत्ता
संपन्न एक मात्र सर्वमान्य सत्ता है। इसी में इनकी अटूट आस्था
है। यहाँ के अधिकांश गाँव, इन गाँवों के किसान और एथनिक ग्रुप
इसी सत्ता से संचालित हैं न कि किसी ईश्वरीय सत्ता से। यहाँ
ईश्वरीय सत्ता का वैभव शहरी सीमाओं को बहुत कम ही लाँघ पाया
है। सुना है बीजिंग में ईसाई, बौद्ध और इस्लाम धर्मानुयायी
काफी संख्या में रहते हैं। लेकिन इनका धर्माचरण किसी भी तरह की
धर्मान्धता से पूर्णतः मुक्त है। शेष शहर भी इस धर्म संकट से
ज़्यादातर मुक्त ही हैं।
यदि ईश्वरीय सत्ता में विश्वास होता तो किसी गुफा में बैठकर
साधनालीन होकर काफी समय पास किया जा सकता था। ईश्वर मिलता न
मिलता समय तो कट जाता। लेकिन यहाँ तो पाँचों महाविकारों (काम,
क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार) से लदे-फँदे अपने मूरख और अज्ञानी
मन को कितना भी समझाऊँ कि इस संसार को छोड़ उसमें मन लगा जिसने
तुझे मानव योनि में जनम दिया है। हर तरह से कितना भी इस मन को
समझाऊँ यह कामी और मोही मन हमेशा घर भागने को ही तैयार बैठा
मिलता है। लोगों ने चलते समय समझाया था कि अबकी बार-बार घर मत
भागना। साल-छः महीने टिककर कुछ बचाकर ही आना। वही बात मैं अपने
इस नालायक मन से कह रहा हूँ तो मान ही नहीं रहा है। चलते समय
इसे समझा-बुझा और मना कर लाया था। इसने पक्का वादा भी कर लिया
था। लेकिन अभी महीने भर में ही नटखट नटवर नागर-सा नट रहा है।
अपने ही किए वादे से मुकर रहा है।
आखिर धन बचाने के सारे गुणा-भाग और मुझसे यहाँ टिकने के किए
अपने वादे को काटकूट कर इस नटनागर मन-मोही मन ने चाँदनी चौक
जैसे चमकीले और भड़कीले दिल वाली दिल्ली का टिकट कटा ही लिया
है। |