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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
अंतरा करवड़े की लघुकथा- बुरी हवाएँ


“आने दो आशु को आज, कितनी बार कहा है कि स्कूल जाने से पहले कमरा थोड़ा तो ठीक कर जाया कर। कभी सुनता ही नहीं है"।

शालिनी भुनभुना रही थी और नीलेश जी ने हमेशा की तरह मुस्कुराकर उसे शांत हो जाने को कहा। पीछे देखा, तो थका हारा आशु सीढ़ियाँ चढ़ रहा था। स्कूल, पढ़ाई, खेल, होमवर्क की उधेड़बुन उसके नन्हें से चेहरे को समय से पहले परिपक्व बनाने पर तुली हुई थी।
जल्दी से झटककर चादर बिछाई और बेटे का स्वागत किया। ध्यान से देखा, तो चेहरे पर थकान की कम और उदासी की रेखाएँ ज्यादा थी। आँखों में सवाल उभरने की ही देर थी और आशु फफककर रो पडा।
“श्रीकांत ने आत्महत्या कर ली मम्मी”
शालिनी का चेहरा काठ का हो आया, शब्दों ने साथ छोड़ दिया और बेटे को गले लगा लिया।
थोड़ा सामान्य होने के बाद आशु को उसके कमरे में ही छोड़ शालिनी ने नीलेश को यह जानकारी दी, चर्चा का सार यही था कि वे भाग्यवान हैं जो उनके पास आशु जैसा समझदार बेटा है... वैसे दोनों के ही मन में बात यही थी कि उनका बेटा “है"
तभी तैयार होकर आशु बाहर निकलने को हुआ। दोनो की आँखों में सवाल ही था, “कहाँ?”
“श्रीकांत के घर जा रहा हूँ, उसके मम्मी पापा के प्रति मेरा भी तो कोई फर्ज बनता है ना...!” प्रयत्नपूर्वक आँसू रोककर चला गया आशु।
शालिनी और नीलेश सोचते ही रह गए कि श्रीकांत के माता पिता उनके भी तो अच्छे पारिवारिक मित्र हैं, लेकिन उनसे मिलकर दुख में शरीक होने की बात मन में क्यों नहीं आ पाई...
नीलेश ने उठकर खिडकियाँ बंद करनी चाहीं। आजकल हवाएँ ही बुरी होने लगी थीं।

१ फरवरी २०१६

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